अमेरिका के नए मुखिया के लिए बड़ी चुनौतियां, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: November 10, 2020 05:09 PM2020-11-10T17:09:40+5:302020-11-10T17:10:50+5:30
चुनाव आयोग के होने वाला यह सबसे अनोखा लोकतांत्रिक निर्वाचन है और ढाई सौ साल पुराना है. तब से आज तक इस प्रणाली को बदलने की बहसें तो खूब चलीं, लेकिन विकल्प कोई भी सरकार अवाम के सामने पेश नहीं कर सकी है.
दुनिया के मंच पर 5 महीने चले रोमांचक सियासी नाटक का पटाक्षेप हो गया. संयुक्त राज्य अमेरिका ने नए राष्ट्रपति को चुन लिया. बिना चुनाव आयोग के होने वाला यह सबसे अनोखा लोकतांत्रिक निर्वाचन है और ढाई सौ साल पुराना है. तब से आज तक इस प्रणाली को बदलने की बहसें तो खूब चलीं, लेकिन विकल्प कोई भी सरकार अवाम के सामने पेश नहीं कर सकी है.
इसका कारण यही है कि इस तरीके से मुल्क के सबसे काबिल व्यक्ति का चयन होने की संभावना होती है. लेकिन जिस तरह समूचे संसार में राजनेताओं का स्तर गिरा है, उससे यह ताकतवर देश भी अछूता नहीं रहा है. डोनाल्ड ट्रम्प भी इसी पद्धति से निकलकर दुनिया के चौधरी बन बैठे थे पर अपने स्वभाव के चलते वे पद से न्याय नहीं कर पाए. आप कह सकते हैं कि इस जटिल प्रक्रि या में ट्रम्प की पराजय हुई है, जो बाइडेन की जीत नहीं.
नए राष्ट्रपति के रूप में जो बाइडन को सबसे पहले तो उस खरपतवार को साफकरना होगा, जो चार साल में डोनाल्ड ट्रम्प ने बोई है. इसके अलावा नई फसल के लिए भी अमेरिकी जमीन उन्हें तैयार करनी होगी. असल में डोनाल्ड ट्रम्प देश के मुखिया के ओहदे पर तो थे, लेकिन मूड और मिजाज से कारोबारी ही रहे. अपने को बदल नहीं सके. इसका खुद उन्हें और राष्ट्र को बड़ा खामियाजा उठाना पड़ा है. पूरे कार्यकाल में अमेरिकी पत्नकारों और संपादकों से उनकी ठनी रही. नतीजतन छबि लगातार गिरती गई.
आज अमेरिकी नागरिक चैनलों और अखबारों के साथ गहराई से जुड़े हैं. वे मीडिया पर भरोसा करते हैं. इस देश की अपनी लंबी यात्ना के दरम्यान मैंने इस हकीकत को महसूस किया है. जो बाइडेन को विरासत में अमेरिकी राष्ट्रपति से लोकतंत्न के इस चौथे स्तंभ की नाराजगी तो मिली है, लेकिन इसी कारण उम्मीदवार के रूप में समर्थन भी कम नहीं मिला है. पत्नकारिता के जरिए मतदाताओं से जीवंत संपर्क उन्हें रखना ही पड़ेगा.अमेरिका को डोनाल्ड ट्रम्प का बड़बोलापन और जल्दबाजी में लिए तुनक भरे फैसलों का नुकसान भी कम नहीं हुआ है.
इस पृष्ठ पर कई आलेखों में मैंने इन निर्णयों का विस्तृत विवेचन किया है. आवेश में उठाए उनके कदम बाद में सार्थकता सिद्ध नहीं कर पाए. इस कारण दशकों से अमेरिका के खास रहे मित्न-मुल्क भी उनसे छिटक गए. ईरान के साथ परमाणु अप्रसार संधि से अलग करना, चुनावी हित में अफगानिस्तान से सैनिकों की स्वदेश वापसी के लिए तालिबान से गुपचुप बातचीत में पाकिस्तान पर यकीन करना और समझौता करना, संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की खिल्ली उड़ाना, कोरोना-काल में विशेषज्ञ सलाहकारों की उपेक्षा करते हुए ताबड़तोड़ निर्णय लेना और देश की आर्थिक बदहाली दूर करने के लिए केवल हवाई किले बनाना और ठोस उपाय नहीं करना, बेरोजगारी से मुकाबले के लिए सिर्फ गाल बजाते रहना उनकी आदत रही.
एक साक्षर देश के निवासियों को लगातार बड़बोलेपन से भरमाया नहीं जा सकता. जो बाइडेन को इन फैसलों की समीक्षा करनी चाहिए तथा अपने शुभचिंतक देशों का विश्वास जीतना होगा. कोरोना से निपटने के लिए उन्हें ठोस कार्ययोजना देश को देनी होगी. चीन से अमेरिका के संबंध जो बाइडेन के कार्यकाल में कैसे होंगे - इस पर सारे विश्व की निगाहें लगी हैं. ढाई सौ साल पुराने लोकतंत्न और विकृत तानाशाही वाले देश के बीच रिश्तों की इबारत अब नए सिरे से लिखनी पड़ेगी. डोनाल्ड ट्रम्प ने जहां इन संबंधों को छोड़ा है, वहां से न तो अमेरिका वापसी कर सकता है और न ही झुक सकता है.
भारत ने हालिया वर्षो में अमेरिका के साथ संबंधों की नींव नए सिरे से रखी है. हालांकि इस तरह का आधार हमेशा देश के साथ ही होता है. किसी व्यक्ति विशेष के पद पर रहने अथवा नहीं रहने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता पर भारत के संबंधों में जो बाइडेन को सावधान रहना होगा. वे प्रचार अभियान में भारत की कश्मीर नीति के बड़े आलोचक बनकर उभरे हैं. उन्होंने और उनके साथ चुनी गईं उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भारत की वर्तमान कश्मीर नीति पर कड़े प्रहार किए हैं. ऐसे में उनके लिए घोषित रुख से यू-टर्न आसान नहीं होगा.
इसी तरह हिंदुस्तान को भी रिश्ते आगे बढ़ाने में फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा. बराक ओबामा के कार्यकाल में वे आठ साल उपराष्ट्रपति रह चुके हैं और उनकी छबि अमेरिकी विदेश नीति की गहरी समझ रखने वाले राजनेता की है पर राष्ट्रपति के रूप में वे कैसा व्यवहार करते हैं - यह देखना होगा. वास्तव में चीन और भारत के साथ अमेरिकी संबंध समूचे एशिया के लिए आने वाले दिनों में महत्वपूर्ण हो सकते हैं.
अश्वेतों के साथ अमेरिका में लंबे समय से भेदभाव होता रहा है.
नस्ली हिंसा में हर महीने औसतन तीन अश्वेत मारे जाते हैं. दोनों पार्टियां अश्वेतों के लिए वादे करती हैं, मगर धरातल पर परिणाम नहीं दिखते. जो बाइडेन के अभियान में बराक ओबामा लगातार साथ रहे हैं इसलिए उनकी अपनी साख दांव पर है. इसके अलावा बर्नी सैंडर्स का भी उन्हें उपकार नहीं भूलना चाहिए. कमला हैरिस को उप राष्ट्रपति के तौर पर लाकर डेमोक्रेट्स ने अपने लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी कर ली हैं. अमेरिका में अश्वेत आंदोलन की तलवार म्यान से निकल आई है. अब उसके वापस जाने की संभावना कम है. जो बाइडेन डोनाल्ड ट्रम्प की तुलना में परिपक्व हैं मगर वे भी झूठ बोलने में उस्ताद हैं. इसलिए उनकी पहली पारी एक किस्म से कांटों भरा ताज है.