अवधेश कुमार का ब्लॉग: अमेरिका का तालिबान से बातचीत तोड़ना राहतकारी
By अवधेश कुमार | Published: September 16, 2019 06:01 AM2019-09-16T06:01:05+5:302019-09-16T06:01:05+5:30
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने तालिबान के साथ वार्ता से पीछे हटने की वजह पांच सितंबर को काबुल में तालिबान द्वारा किया गया हमला बताया है जिसमें एक अमेरिकी सैनिक समेत 12 लोग मारे गए.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कब क्या कर देंगे या बोल देंगे इसके बारे में कोई भी भविष्यवाणी जोखिम भरी होगी. बावजूद इसके, तालिबान से बातचीत को खत्म करने की उनकी घोषणा वाकई राहतकारी है. जब पिछले 2 अगस्त को घोषणा हुई कि अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते को अंतिम रूप दे दिया गया है तो पूरी दुनिया में भविष्य को लेकर कई प्रकार की आशंकाओं के स्वर उभरने लगे. उस घोषणा के अनुसार अमेरिका नाटो सहित अपनी फौजों को वापस बुला लेगा.
ट्रम्प प्रशासन के अंदर इस बात पर सहमति है कि उन्हें किसी तरह अफगानिस्तान से निकल भागना है. इसीलिए जल्मे खलीलजाद को विशेष प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया जो पिछले दिसंबर से कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के साथ नौ दौर की बातचीत के बाद समझौते के एक मसौदे पर पहुंचे थे. साफ लगने लगा था कि अमेरिका और तालिबान इस पर हस्ताक्षर करने ही वाले हैं. इसी बीच अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने घोषणा की कि वे इस समझौते से सहमत नहीं हैं. हालांकि तब भी कुछ विशेषज्ञ यह मान रहे थे कि ट्रम्प अपने विदेश मंत्री को दरकिनार कर स्वयं हस्ताक्षर कर देंगे. लेकिन ट्रम्प ने वही किया जो उनके विदेश मंत्नी चाहते थे. प्रश्न है कि अब आगे क्या? इस बारे में कुछ भी कहना कठिन है.
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने तालिबान के साथ वार्ता से पीछे हटने की वजह पांच सितंबर को काबुल में तालिबान द्वारा किया गया हमला बताया है जिसमें एक अमेरिकी सैनिक समेत 12 लोग मारे गए. माइक पोम्पियो ने कहा है कि अगर तालिबान अपना रवैया बदले तो वार्ता फिर हो सकती है. यह वार्ता तालिबान के लिए कितनी अनुकूल थी इसका पता ट्रम्प के निर्णय के बाद आए उसके बयान से चलता है.
तालिबान ने कहा कि इससे सबसे ज्यादा नुकसान वॉशिंगटन को होगा लेकिन वह भावी वार्ता के लिए द्वार खुला छोड़ता है. इस बयान का सीधा अर्थ तो यही है कि तालिबान अपनी शर्तो पर बातचीत कर रहा था. उसका मानना है अमेरिका उसको पराजित नहीं कर सकता, इसलिए हारकर समझौता वार्ता करने आया.
भारत की समस्या अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों हैं. अफगानिस्तान में तालिबानों के वर्चस्व का मतलब पाकिस्तान का परोक्ष आधिपत्य. भारत की अफगानिस्तान में अब तक जो प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई गई सबके मटियामेट होने का खतरा. पिछले कुछ महीनों से पाकिस्तान इस बातचीत को लेकर कितना उत्साहित था यह बताने की आवश्यकता नहीं. उसने तालिबान के सह संस्थापक मुल्ला बरादर को दोहा बातचीत में शामिल होने के लिए जेल से रिहा कर दिया था. पाकिस्तान को यह भी उम्मीद थी कि अफगानिस्तान के माध्यम से वह कश्मीर पर भारत को दबाव में ला सकता है. कम से कम तत्काल पाकिस्तान के सारे मंसूबों पर पानी फिर गया है.
अगर ट्रम्प अपने रुख पर कायम रहे तो अमेरिका में पाकिस्तान को मिलने वाली तरजीह खत्म हो जाएगी. हालांकि अफगानिस्तान से वापसी ट्रम्प का चुनावी वायदा है. वो हर हाल में वहां से निकलना चाहते थे. जॉन बोल्टन तो बिना समझौते के ही निकलने के पक्ष में थे जिन्हें ट्रम्प ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पद से हटा दिया. तो देखना होगा अमेरिका आगे क्या करता है. लेकिन तत्काल भारत और पूरे क्षेत्र के लिए यह राहत की खबर है.