राजेश बादल का ब्लॉग: पाकिस्तान में प्रतिपक्ष के पीछे किसकी सियासत?
By राजेश बादल | Published: September 22, 2020 01:32 PM2020-09-22T13:32:08+5:302020-09-22T13:32:08+5:30
पाकिस्तान के इतिहास में इस तरह की प्रतिपक्षी एकता पहले कभी नजर नहीं आई. पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो जरदारी ने इस कांफ्रेंस के लिए पहल की थी.
पड़ोसी पाकिस्तान की सियासत बदले अंदाज में है. प्रधानमंत्नी इमरान खान को ऐसे विपक्षी तेवरों का सामना करना पड़ रहा है, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी. रविवार को तमाम विपक्षी दलों के एक मंच पर आने से यह स्थिति बनी है.
इसमें दो धुर विरोधी पार्टियां पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग भी एक साथ आ गई हैं. इन दलों ने ऑनलाइन ऑल पार्टी कांफ्रेंस की और इमरान सरकार के खिलाफ निर्णायक संघर्ष छेड़ने का ऐलान कर दिया. इस कांफ्रेंस को पूर्व प्रधानमंत्नी नवाज शरीफ ने भी संबोधित किया.
इन दिनों वे लंदन में इलाज करा रहे हैं. कांफ्रेंस में उनके भाषण पर हुकूमत को सख्त एतराज था. इसलिए मीडिया पर उसे दिखाने या प्रकाशित करने पर पाबंदी लगा दी गई थी. फिर भी विदेशी पत्नकारों और सोशल मीडिया के अन्य अवतारों के जरिये लोगों तक खबरें पहुंच ही गईं.
अब समूचे प्रतिपक्ष ने एक लोकतांत्रिक मोर्चा बना कर मुल्क में बड़ा आंदोलन छेड़ने का फैसला लिया है. यह मोर्चा पाकिस्तान के चारों राज्यों में गांव -गांव रैलियां निकालेगा, सभाएं करेगा और नए साल की शुरुआत पर जनवरी में राजधानी इस्लामाबाद में महा रैली करेगा. इस मोर्चे ने 26 सूत्नी कार्यक्रम बनाया है. इस कार्यक्रम के सहारे विपक्ष आगे बढ़ेगा.
पाकिस्तान के इतिहास में इस तरह की प्रतिपक्षी एकता पहले कभी नजर नहीं आई. पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो जरदारी ने इस कांफ्रेंस के लिए पहल की थी. शुक्र वार को उन्होंने टेलीफोन पर पूर्व प्रधानमंत्नी नवाज शरीफ से अनुरोध किया था कि वे इस आयोजन में शिरकत करें और मार्गदर्शन दें.
पहला भाषण पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का था. उन्होंने पाकिस्तान में लोकतंत्न की बहाली पर जोर दिया. जरदारी ने कहा कि इमरान सरकार जिस तरह से सत्ता में आई है, वह वैध नहीं है. फौज के समर्थन से इमरान की पार्टी तहरीक ए इंसाफ ने चुनावों में धांधली की है. जरदारी ने फौज पर इशारों ही इशारों में आक्रमण किए.
उनकी पार्टी इमरान खान को कठपुतली ही मानती है. असल केंद्रबिंदु तो पाकिस्तान की सेना ही थी. जरदारी के बाद नवाज शरीफ बोले. उनके सुर बेहद तीखे थे. जरदारी की तुलना में नवाज ने फौज पर खुलकर प्रहार किए.
उन्होंने हालांकि इमरान सरकार को कोसते हुए कश्मीर का मुद्दा उछाला और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तारीफ की. गौरतलब है कि जब इमरान विपक्ष में थे तो शी जिनपिंग की पाकिस्तान यात्ना के खिलाफ धरने पर बैठ गए थे और चीनी राष्ट्रपति को अपनी यात्ना रद्द करनी पड़ी थी. तब नवाज शरीफ प्रधानमंत्नी थे.
अपने संबोधन में नवाज शरीफ इसका जिक्र करना नहीं भूले. यह भी याद रखना जरूरी है कि कारगिल जंग के बाद अपने बयानों से नवाज शरीफ की छवि भारत के प्रति सहानुभूति रखने वाले राजनेता की बन गई थी. इस कारण उन्हें बाद में गद्दार तक कहा गया. इसके बाद वे संभले और अपनी छवि चीन के संग अच्छे रिश्तों वाले राजनेता की बनाई.
हालिया घटनाक्रम के चलते चीन ने पड़ोसी देशों पर भारत के खिलाफ खुलकर सामने आने का दबाव बनाया था. नेपाल तो इस दबाव में आ गया. श्रीलंका ने बता दिया कि उसकी पहली प्राथमिकता भारत ही रहेगा और बांग्लादेश ने भी चीन का बहुत साथ नहीं दिया. पाकिस्तान ने दबाव में भारत को घेरने की कोशिश तो की लेकिन वह कश्मीर से आगे नहीं बढ़ पाया.
चीन पाकिस्तानी सेना से और आक्रामक होने की अपेक्षा कर रहा था. लेकिन पाक सेना का मनोविज्ञान 1971 के बाद हिंदुस्तान से पंगा नहीं लेने का है. वह गुरिल्ला तरीके से तो लड़ सकती है लेकिन खुले युद्ध में उसके लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी. पाक फौज के संकोच से चीन खुश नहीं है.
वह एकदम सीधा साथ चाहता है. बीते दिनों चीन - पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की धीमी रफ्तार पर चीन ने इमरान सरकार से गुस्से का इजहार किया था. नाराजगी दूर करने के लिए इमरान सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा के साथ तीन बार चीन जा चुके हैं. विदेश मंत्नी महमूद कुरैशी भी चीन से बेआबरू होकर लौट चुके हैं.
उनसे तो शी जिनपिंग ने मिलने से भी इनकार कर दिया था. इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई उलझन नहीं होनी चाहिए कि भारत की आक्रामक घेराबंदी के लिए चीन पाकिस्तान से खुलकर साथ देने की आस लगाए बैठा है. वह अपनी सेना को जंग में शायद नहीं झोंकना चाहे. अलबत्ता पाकिस्तानी सेना के बहाने से भारत को परेशान करने में उसे सहूलियत है.
अब वह पाकिस्तान में ऐसी सरकार चाहता है, जो उसके इशारों पर नाचे. क्या जरदारी और नवाज शरीफ की जोड़ी उसकी ख्वाहिश पूरी कर सकती है? भारत के साथ सीधी जंग तो वहां की कोई भी सरकार पसंद नहीं करेगी. बहुत संभव है कि ऑल पार्टी कांफ्रेंस बीजिंग में लिखी गई पटकथा का एक अध्याय हो. लेकिन यह तय है कि अगर इसके पीछे चीन का हाथ है तो उसे नाकामी हाथ लगेगी.
फिर भी हिंदुस्तान को इस नजरिये से पाकिस्तान पर ध्यान देना होगा. भारत के लिए पाकिस्तान में चीन के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली सरकार की तुलना में दिमागी तौर पर लंगड़ाती हुकूमत अधिक अनुकूल होगी.