राजेश बादल का ब्लॉगः पाक की विदेश नीति बदलने से भारत को लाभ
By राजेश बादल | Published: May 10, 2022 08:18 AM2022-05-10T08:18:45+5:302022-05-10T08:22:05+5:30
इस बीच शाहबाज शरीफ के नेतृत्व में बनी सरकार ने पुरानी सरकार की विदेश नीति में क्रांतिकारी बदलाव कर डाला और अपनी परंपरागत पटरी पर लौट आई। नई हुकूमत अमेरिका के साथ पींगें बढ़ाने लगी है और चीन से दूरी बनाने के संदेश देने शुरू कर दिए हैं।
हुकूमत बदलने के साथ-साथ कोई देश अपनी विदेश नीति भी बार-बार बदले, तो यह न केवल उस मुल्क पर भारी पड़ता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संतुलन और राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर पड़ोसी राष्ट्रों को भी अपनी नीतियों की समीक्षा करनी पड़ जाती है। पाकिस्तान का हाल कुछ ऐसा ही है। इमरान खान की सरकार संयुक्त विपक्ष के आंदोलन के कारण गिर गई। जाते-जाते इमरान खान चीन के पाले में मजबूती से खड़े थे। उनका आरोप था कि अमेरिका ने ही उनकी सरकार गिराने का षड्यंत्र रचा था। विरोधाभास तो यह था कि इमरान खान जब अमेरिका को गरिया रहे थे तो उनके देश की फौज के मुखिया जनरल बाजवा ने ही खंडन कर दिया कि अमेरिका का इसमें कोई हाथ है।
इस बीच शाहबाज शरीफ के नेतृत्व में बनी सरकार ने पुरानी सरकार की विदेश नीति में क्रांतिकारी बदलाव कर डाला और अपनी परंपरागत पटरी पर लौट आई। नई हुकूमत अमेरिका के साथ पींगें बढ़ाने लगी है और चीन से दूरी बनाने के संदेश देने शुरू कर दिए हैं। यानी शाहबाज ने अपने बड़े भाई नवाज शरीफ की नीतियों पर अमल शुरू कर दिया है। इस कारण आनेवाले दिन पाकिस्तान के लिए बड़े चेतावनी और उलझन भरे हो सकते हैं। उधर, चीन पाकिस्तान की बदल रही विदेश नीति को बहुत आसानी से स्वीकार करने वाला नहीं है। उसने पाकिस्तान में हालिया वर्षों में काफी निवेश किया है। पाकिस्तान से उसे अपने कर्ज की वसूली भी करनी है, जो बहुत कठिन है। इसके अलावा चीन के मजदूर दहशत में पाकिस्तान छोड़कर स्वदेश लौट रहे हैं। बीते एक साल में चीनी नागरिकों पर पाकिस्तान में तीन-चार बार हमले हो चुके हैं। हाल ही में कराची विश्वविद्यालय परिसर में एक आत्मघाती हमले में तीन चीनी नागरिकों की हत्या कर दी गई थी। अन्य हमलों में भी कई चीनी नागरिक मारे जा चुके हैं।
चीन की चिंता का एक सबब यह भी है। इसलिए पाकिस्तान के अमेरिका के साथ बेहतर रिश्ते वह किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा। वैसे चीन पाकिस्तान में अपने बिछाए जाल में उलझता जा रहा है। आर्थिक गलियारे का काम बंद सा पड़ा हुआ है। पाकिस्तान को उसने इस गलियारे की कई बड़ी परियोजनाओं के लिए पैसा देना रोक दिया है। इसके अलावा वह लगातार पुराना कर्ज चुकाने का दबाव डाल रहा है। पाकिस्तान इस स्थिति में अभी नहीं है। उल्टे उसने आर्थिक गलियारा प्राधिकरण को समाप्त ही कर दिया है। यह एक तरह से चीन के लिए अप्रिय संदेश है। अब चीन की दुविधा यह भी है कि वह एक सीमा तक ही पाकिस्तान पर दबाव डाल सकता है। यदि अमेरिका ने पाकिस्तान को चीन का कर्ज चुकाने के लिए आर्थिक सहायता दे दी तो पाकिस्तान चीन के हाथ से छिटक सकता है। सूत्रों के अनुसार अमेरिका ने पाकिस्तान से गारंटी चाही है कि यदि वह हमेशा के लिए चीन से कुट्टी कर ले तो पाकिस्तान को वह कंगाली की हालत से बाहर निकाल सकता है। पाकिस्तान को अपने पाले में रखना अब अमेरिका की मजबूरी भी बन गया है। यूक्रेन - रूस जंग में भारत, चीन और रूस तीनों ही अपने-अपने कारणों से अमेरिका के साथ नहीं हैं। इसलिए अमेरिका ने अब पाकिस्तान पर डोरे डालने की कोशिशें तेज कर दी हैं। पाकिस्तान को अपने साथ रख कर वह भारत और चीन दोनों को झटका देना चाहेगा। जो बाइडेन ने पहले भारत को तमाम कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से प्रभावित करना चाहा, लेकिन नाकाम रहा। असल में राष्ट्रपति बनने से पहले ही जो बाइडेन और उपराष्ट्रपति कमला भारत की कश्मीर नीति के मुखर आलोचक रहे हैं। इसलिए उनके पद पर रहते अमेरिका के साथ भारत के संबंध सहज हो सकेंगे, इसमें संदेह है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान उसे इस हकीकत का अहसास हो गया है। पाक की ओर उसके झुकाव का यह भी कारण माना जा रहा है।
जहां तक भारत की बात है तो पाकिस्तान की विदेश नीति में यह बदलाव उसके लिए सकारात्मक हो सकेगा। एक तो पाकिस्तान की सहायता करने के कारण हिंदुस्तान को अमेरिका से सहज और स्वाभाविक दूरी का ठोस कारण मिल जाएगा। दूसरा यदि चीन और पाकिस्तान के बीच फासला बढ़ा तो भारत के लिए ग्वादर बंदरगाह से समंदर सीमा पर खतरे की आशंका तनिक कम हो जाएगी। तीसरा रूस के साथ संबंधों को लेकर परंपरागत मित्र भाव बना रहेगा। रूस का साथ भारत के लिए एक स्वाभाविक सहयोगी जैसा है। इस कारण चीन भी भारत के प्रति उतना आक्रामक नहीं रह पाएगा। यूक्रेन प्रसंग में रूस का साथ देकर एक तरह से उसके प्रति उपकार ही किया है। भले ही इसमें उसके अपने कूटनीतिक और सामरिक सुरक्षा के हित छिपे हुए हैं। अमेरिका और पाकिस्तान के बीच निकटता से हिंदुस्तान के लिए ईरान से रिश्तों में आई जड़ता को दूर करने का अवसर भी मिलेगा। अमेरिकी प्रभाव में भारत ने कच्चे तेल का आयात सीमित कर दिया था और चाबहार जैसे महत्वपूर्ण बंदरगाह से प्राप्त होने वाले फायदे खो दिए थे। एक बार ईरान से कच्चे तेल का आयात बढ़ा तो कारोबार के अन्य रास्ते भी खुल सकते हैं। भारत को चाबहार के जरिये ईरान के अलावा अफगानिस्तान से भी व्यापार बढ़ाने में आसानी हो सकती है। पाकिस्तान को ग्वादर बंदरगाह से भारत के खिलाफ मिलने वाला फायदा चाबहार के जरिये नियंत्रित किया जा सकेगा।
पाक की विदेश नीति में यह बदलाव भारत के लिए अधिक राहत लेकर आया है। पाकिस्तान को इसका कितना लाभ मिलेगा, कहा नहीं जा सकता। अतीत तो यही कहता है कि पाक अपनी नीतियों में कितना भी बदलाव कर ले, उसे खास लाभ होने वाला नहीं है।