राजेश बादल का ब्लॉग: रूस ने भी कम धोखे नहीं खाए हैं चालबाज चीन से

By राजेश बादल | Published: June 24, 2020 06:15 AM2020-06-24T06:15:27+5:302020-06-24T06:15:27+5:30

Rajesh Badal's blog: china also betrayed russia | राजेश बादल का ब्लॉग: रूस ने भी कम धोखे नहीं खाए हैं चालबाज चीन से

भारत और चीन के बीच वार्ताओं का थकाने वाला अंतहीन सिलसिला संयम का बांध तोड़ने लगा है.

Highlightsरूस में भारत के लिए चीन के साथ कोई बैठक हमेशा ही सहूलियत भरी है.चीन ने 1960 में ही रूस से सीमा विवाद शुरू कर दिया साल 1969 में चीन ने डोनबाओ द्वीप सीमा पर रूसी गाड़ी पर हमला किया था

भारत और चीन के बीच रूस की उपस्थिति में महत्वपूर्ण बैठक के अनेक मायने हैं. इस बैठक के लिए तीनों पक्ष सुविधाजनक स्थिति में हैं. अगर यही बैठक अमेरिका की पहल पर होती तो शायद मौजूदा माहौल में चीन को यह नागवार होता. हालांकि इसमें दोनों ही पक्षों के लिए सार्थक और ठोस परिणाम की गुंजाइश नहीं है. फिर भी बारीक तराजू से तौलना हो तो भारत के लिए यह बेहतर है. वह रूस के साथ अतीत के रिश्तों के आधार पर सुविधाजनक हाल में है. इस बैठक से उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. एक तरह से यह बैठक भी रस्मअदायगी ही है. गलवान में टकराव के बाद अनुभव कहता है कि सारे मित्र व शुभचिंतक अभी ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं.

रूस में भारत के लिए चीन के साथ कोई बैठक हमेशा ही सहूलियत भरी है. इसके पीछे चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के ऐतिहासिक कारण हैं. उन्हें याद करने से रूस की भूमिका साफ हो जाती है. चीन के साथ रूस (सोवियत संघ के स्थान पर अब रूस का उल्लेख ही उचित है ) ने भी भारत की तरह कम धोखे नहीं खाए हैं. चीन 1949 में कम्युनिस्ट-राज की स्थापना के बाद भारत की सदाशयता को कचरे की टोकरी में फेंकता रहा तो यही व्यवहार उसने रूस के साथ भी किया. भारत ने 1937-38 में जापान के आक्रमण पर चीन की प्रार्थना पर चिकित्सकीय मदद दी, उसके संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश का समर्थन किया, पंचशील के नाम पर हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगाए और चाऊ एन लाई की भारत यात्ना पर कदमों में फूल बिछा दिए. मगर चीन सीमा विवाद पर नए नक्शों का बहाना लेता रहा. उसने तो 1950 में ही तेलंगाना में कम्युनिस्ट पार्टी की इकाई को भारत सरकार के खिलाफसशस्त्न क्रांति के लिए उकसाया. उन्हें ट्रेनिंग और हथियार दिए. आखिरकार गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा को 1952 में राष्ट्र के नाम आपात संदेश देना पड़ा और फौजी कार्रवाई करनी पड़ी. इसके बाद 1962 से आज तक चीन की कुटिलताओं और धोखेबाजी की दास्तान सामने है.  

अब रूस के साथ चीन की धूर्तता देखें. आज चीन जिस हाल में है, वह रूस की बदौलत ही है. जब 1938 में जापान ने हमला किया तो रूस ने ही हजारों सैनिक पैराशूट से उतार दिए थे. जापान के हवाई हमलों से रूस ने ही चीनी शहर बचाए. इससे पहले 1937 में चीन और रूस के बीच अनाक्रमण संधि हुई और इस तरह विचारधारा के आधार पर दोनों देशों की अवाम भी एक मंच पर खड़ी थी. चीन को रूस ने जापान के हमले के वक्त 25 करोड़ अमेरिकी डॉलर के दो उदार कर्ज दिए, जिससे वह हथियार खरीद सके. यह मृत्युशैय्या पर लेटे चीन के लिए प्राणवायु से कम नहीं था. लेकिन जैसे ही अंतिम सांसें गिन रहा यह मरीज फर्राटे से दौड़ने लगा तो रूस को ही आंखें दिखाने लगा. उसने 1960 में ही रूस से सीमा विवाद शुरू कर दिया.

अनमने रूस ने इस पर 1962 में चर्चाएं शुरू कर दीं. इसी बीच 1964 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओ त्से तुंग ने जापानी समाजवादी पार्टी के प्रतिनिधिमंडल से गोपनीय बैठक में कहा कि रूस ने चीन की 52000 वर्ग किलोमीटर से अधिक जमीन हथिया ली है. उसके कई नदी द्वीप रूस के कब्जे में हैं. यह खबर लीक हो गई और गुस्साए सोवियत संघ ने अनाक्रमण संधि रद्द कर दी. इसके बाद चीन चुपचाप छोटे युद्ध की तैयारी करता रहा. चीन ने रूसी सैनिकों के साथ हिंसक झड़पें शुरू कर दीं. अगले ही साल 1969 में चीन ने ङोनबाओ द्वीप सीमा पर रूसी गाड़ी पर हमला कर दिया. इसमें 58 रूसी सैनिक और 248 चीनी सैनिक मारे गए. इसके बाद दोनों मुल्कों ने छोटी जंग लड़ी. युद्ध पश्चिमी सीमा तक फैल गया. सात महीने तक जंग चलती रही. रूस-चीन के इस युद्ध में एक तरह से रूस की शिकस्त हुई और उसे ङोनबाओ समेत अनेक द्वीप चीन को देने पड़े. द्वीप देने का सिलसिला बरसों तक चला. इसके बाद भी चीन की भूमि-भूख समाप्त नहीं हुई है. यही वह कारण है, जो रूस के गले की फांस हो सकता है कि वह आज जंग छेड़कर द्वीप वापस ले ले, लेकिन उसका ध्यान बड़ी राजनीतिक भूमिका निभाने पर है. यानी वह अमेरिका की चौधराहट को रोकना चाहता है.

एशिया में वह भारत और चीन से संतुलन बनाकर रखना चाहता है. लेकिन भीतर ही भीतर वह भी चीन से खुश नहीं है. यह भारत के लिए अच्छी बात है. भारत और चीन के बीच वार्ताओं का थकाने वाला अंतहीन सिलसिला संयम का बांध तोड़ने लगा है. दोनों पक्ष सोचते हैं कि निर्थक बातचीतों से कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है. एशिया की ये दोनों महाशक्तियां बेशक टकराव टालना चाहती हैं, पर सवाल यह है कि परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए बिना कोई अनेक साल तक एक ही कक्षा में कब तक अध्ययन कर सकता है. विश्व-मंच पर कभी न समाप्त होने वाले इस प्रहसन के अभिनेता भी अब अपने ही अभिनय से बोर होने लगे हैं.

दर्शक की तरह मौजूद तमाम छोटे-बड़े मुल्कों का उकताना स्वाभाविक है. दोनों ही राष्ट्रों से उनके बड़े कारोबारी, रणनीतिक, कूटनीतिक और राजनयिक संबंध हैं. इस कारण किसी एक देश का खुलकर साथ देने से वे बच रहे हैं. यक्ष प्रश्न है कि भारत की उस फसल का क्या हुआ, जो उसने हालिया बरसों में बोई थी. क्या विदेश नीति और वाणिज्यिक नीति के बांझ बीजों का छिड़काव दुनिया के खेत में किया गया? आने वाले समय में इस प्रश्न का उत्तर पाने की आशा कर सकते हैं.

Web Title: Rajesh Badal's blog: china also betrayed russia

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