राजेश बादल का ब्लॉग: तालिबान से समझौता अमेरिकी चुनावी स्टंट

By राजेश बादल | Published: September 15, 2020 10:25 AM2020-09-15T10:25:25+5:302020-09-15T10:25:25+5:30

अफगानिस्तान में शांति के लिए तालिबान और अफगान सरकार आमने-सामने बैठी है. भारत भी इस बातचीत में अहम भूमिका निभा रहा है. वहीं, चुनावी मौसम में डोनाल्ड ट्रंप के लिए भी ये बातचीत जीवन-मरण का प्रश्न है.

Rajesh Badal's blog: Afghanistan Taliban talk a election stunt for America and Donald Trump | राजेश बादल का ब्लॉग: तालिबान से समझौता अमेरिकी चुनावी स्टंट

तालिबान और अफगानिस्तान की सरकार के बीच बातचीत के मायने (फाइल फोटो)

Highlightsडोनाल्ड ट्रंप अगर अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच समझौता कराने में कामयाब रहे तो चुनाव में होगा फायदाभारत भी इस वार्ता का अहम हिस्सा है और ऐसे में उसे अपनी दुविधा खत्म कर खुलकर सामने आने की जरूरत है

तालिबान और अफगानिस्तान की सरकार के बीच कतर में अब सीधी बातचीत हो रही है. पहली बार दोनों पक्ष आमने-सामने इस तरह बैठे हैं. पहली बार से आशय यह है कि मध्यस्थता करने वाले परदे के पीछे हैं. इस बातचीत का आगाज पाकिस्तान की पहल पर अमेरिका ने किया था. किन्हीं कारणों से उस चर्चा को अभी तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका. 

उस समय भी यह मसला अमेरिका की प्राथमिकता सूची में था और आज तो डोनाल्ड ट्रम्प के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है. इन दिनों राष्ट्रपति के तौर पर दूसरी पारी खेलने के लिए ट्रम्प चुनाव मैदान में हैं. मगर वे सारे सर्वेक्षणों में प्रतिद्वंद्वी जो बिडेन से पिछड़ते दिखाई दे रहे हैं. 

समझौते के जरिए ट्रंप को वोट की आस 

अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की अरसे से मौजूदगी से अमेरिकी जनता बेहद खफा है. उसकी समझ में नहीं आ रहा कि दूर बसे एक पहाड़ी देश में उनके बच्चे क्यों मर रहे हैं? अगर ट्रम्प यह समझौता करा देते हैं तो वे जो बिडेन के साथ अपने मुकाबले को रोमांचक मोड़ पर ला सकते हैं. इसीलिए उन्होंने तालिबान से अफगानी हुकूमत का समझौता कराने के लिए अपने विदेश मंत्री माइक पोंपियो को सब काम छोड़ काबुल पहुंचने का निर्देश दिया है.

तालिबान के साथ वहां की सरकार का समझौता कैसा होगा? उसकी शर्ते क्या होंगी? उन पर अमल होगा अथवा नहीं, कोई नहीं जानता. पर यह तय लगता है कि जब माइक पोंपियो वतन लौटेंगे तो उनके हाथ में करारनामे की एक कॉपी जरूर होगी, जो डोनाल्ड ट्रम्प के चुनावी अभियान को मजबूत बना सकती है. 

हम मान सकते हैं कि यह तथाकथित समझौता विशुद्ध अमेरिकी चुनाव अभियान का एक हथकंडा है, जिसे रिपब्लिकन पार्टी इस्तेमाल में लाना चाहती है. अफगानी लोगों को शांतिपूर्ण माहौल प्रदान करने से उसका कोई लेना-देना नहीं है. 

भारत भी है इस वार्ता का अहम हिस्सा

पाकिस्तान की जिद के चलते पिछली समझौता वार्ता से भारत को अलग-थलग रखा गया था, लेकिन इस बार डोनाल्ड ट्रम्प अपने चुनाव में भारतीयों की भूमिका देख चुके हैं. इसलिए उन्होंने हिंदुस्तान को भी चर्चा में शामिल होने का न्यौता दिया. इसके बाद ही भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने अपनी ऑनलाइन आहुति डालने का निर्णय लिया. 

हालांकि विदेश मंत्रलय के संयुक्त सचिव जे. पी. सिंह भी दोहा पहुंचे हैं. जयशंकर ने भारत का पक्ष रखते हुए अफगानिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों की हालत बेहतर बनाने पर जोर दिया है. समझौते के बाद यदि तालिबान सत्ता में शामिल होते हैं तो इन वर्गो की आवाज उठाने वाला स्वर मद्धम पड़ जाएगा. 

भारत को मिल रही इतनी अहमियत पाकिस्तान को नहीं पोसा रही है और उसके प्रधानमंत्री इमरान खान अभी से अपनी पीठ थपथपाने लगे हैं. नहीं भूलना चाहिए कि करीब तीन सप्ताह पहले तालिबान का एक दल पाकिस्तान आया था और वहां फौजी अफसरों के अलावा विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी से मुलाकातें की थीं. 

इनके बाद अफगानिस्तान की सरकार ने पाकिस्तान के रवैये पर निराशा का इजहार किया था. उसने कहा था कि पाकिस्तान अब तक अपनी सार्थक भूमिका निभाने में नाकाम रहा है. उसे व्यावहारिक और सारे पक्षों को मंजूर समाधान खोजने के प्रयास में मदद करनी चाहिए. लेकिन इससे पाकिस्तान पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. उसकी घोषित नीति हमेशा कट्टर तालिबान को खुला समर्थन देने की रही है.

तालिबान और अफगानिस्तान के बीच कैसे बनेगी बात

यह साफ है कि अफगानिस्तान सरकार का तालिबान के साथ कोई भी समझौता तब तक कामयाब नहीं हो सकता, जब तक कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के लिए अपने-अपने कुछ हित नहीं छोड़ें. यह ऐसी बात है, जिस पर कोई स्थायी सहमति बननी मुश्किल है. सत्ता का इस्लामीकरण तालिबान की पहली शर्त हो सकती है. वह महिलाओं के अधिकार छीनने पर शायद ही कोई आग्रह मंजूर करे. 

यह दोनों बातें अफगानिस्तान की सरकार और अवाम को पसंद नहीं हैं. करीब एक सप्ताह पहले ही अफगानिस्तान की एक लोकप्रिय अभिनेत्री की हत्या कर दी गई थी. दूसरी ओर सरकार पूरी तरह मुल्क में शांति बहाली और हिंसा रोकने की बात कर रही है. तालिबान इसे किसी भी सूरत में नहीं मान सकते और न ही वे ऐसा कोई वादा कर सकते हैं. जाहिर है कि यह सारी कवायद सिर्फ डोनाल्ड ट्रम्प को प्रसन्न करने के लिए हो रही है ताकि उन्हें अमेरिकी अवाम को दिखाने के लिए एक चुनावी झुनझुना मिल जाए. 

अमेरिका की फौज अफगानिस्तान में बीते 19 साल से लड़ रही है. अब उसका मनोबल टूट चुका है. हर हाल में उसके लड़ाके स्वदेश लौटना चाहते हैं. अमेरिका के साथ खड़े सहयोगी मित्र राष्ट्रों के फौजियों की भी वहां उपस्थिति है.  इन देशों का भी अमेरिका पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है. ऐसे में इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कतर के दोहा में चल रही वार्ता के बाद समस्या सुलझ ही जाएगी और अफगानिस्तान की पहाड़ियों में कोई शांति संगीत गूंजने लगेगा.

भारत के लिए दुविधा खत्म करने का समय!

भारत के लिए अफगानिस्तान का मामला हमेशा ही दुविधा भरा रहा है. वह अपनी रचनात्मक भूमिका तो निभाता रहा है, पर लगता है कि इस तरह काम करने का दौर अब निकल चुका है. भारत को खुलकर अपने स्वार्थो की वकालत करनी होगी अन्यथा तालिबान और पाकिस्तान मिलकर उसका सिरदर्द बढ़ाते रहेंगे. अब वहां स्कूल बना देने या संसद की इमारत बना देने से बात नहीं बनेगी. 

इन दिनों अफगानिस्तान में 1700 भारतीय काम करते हैं. भारत को वहां की सरकार का खुला समर्थन है. भारत वहां सत्रह सौ की संख्या बढ़ाकर सत्रह लाख क्यों न करे और अपने लोगों की हिफाजत के लिए अपने आधुनिकतम सशस्त्र बलों को तैनात करे. विदेश और उद्योग नीति में इस आक्रामक बदलाव के जरिये ही भारत वहां अपनी रौबदार स्थिति बना सकता है.

Web Title: Rajesh Badal's blog: Afghanistan Taliban talk a election stunt for America and Donald Trump

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