रहीस सिंह का ब्लॉग: अपने बुनियादी सरोकारों से दूर खड़ा संयुक्त राष्ट्र
By रहीस सिंह | Published: October 6, 2020 06:21 AM2020-10-06T06:21:27+5:302020-10-06T06:21:27+5:30
सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए प्रयास 1992 से ही शुरू हो गए थे. विषय दो रहे- प्रथम सुरक्षा परिषद की सदस्य संख्या में विस्तार और द्वितीय- संयुक्त राष्ट्र की काम करने की प्रक्रिया में बदलाव. सदस्य संख्या के विस्तार के लिए संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में एक औपचारिक संशोधन की आवश्यकता होगी
यह समय विश्व व्यवस्था में संक्रमणकालीन दौर की तरह दिख रहा है. वैश्विक राजनीति ऐसे मोड़ पर खड़ी है जिसकी दिशा स्पष्ट नहीं है. विश्व व्यवस्था में असंतुलन है, अनिश्चितता है और गैर सम्भ्रांतवादी प्रतिस्पर्धाओं का वर्चस्व. ऐसा नहीं लगता कि आज का दौर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थितियों की पुनरावृत्तियों की ओर लौट रहा है?
जास्मिन क्रांति के बाद के मध्य-पूर्व, रूस द्वारा क्रीमिया का विलय किए जाने के बाद का यूरेशिया, चीन के आर्थिक ताकत बनने के बाद का ट्रांस-पैसिफिक और ब्रेक्जिट के बाद का यूरोप क्या वास्तव में सामान्य स्थिति का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं?
वैश्विक महामारी का दुनिया ने जिस तरह से सामना किया, मानव पूंजी जिस तरह से इस महामारी से जूझी और शिकार बनी, दुनिया की दो बड़ी ताकतों ने इससे निपटने के लिए जिस तरह का आचरण प्रस्तुत किया और कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं व संगठनों ने जिस तरह की शिथिलता दिखाई, उसे देखकर इतना तो समझ में आ जाना चाहिए कि दुनिया सही ट्रैक पर नहीं है और संयुक्त राष्ट्र अक्षम साबित हो रहा है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की जिन उद्देश्यों, मूल्यों और लक्ष्यों के साथ स्थापना की गई थी, क्या वह उनके करीब भी पहुंच पा रहा है? क्या ऐसा नहीं लगता कि आज संयुक्तराष्ट्र पहले विश्वयुद्ध के बाद बने लीग ऑफ नेशंस की तरह एक अक्षम और सामथ्र्यहीन संगठन है? सवाल यह भी है कि अगर ऐसा है तो क्यों?
यह सच है कि आज की विश्व व्यवस्था युद्धोत्तरकालीन स्थितियों से भी अधिक जटिल और दिशाहीन है. युद्धोत्तरकालीन दौर नवनिर्माण और पुनरुद्धार का दौर था, इसलिए दुनिया संक्रमण में तो थी लेकिन नवनिर्मित वैश्विक संस्थाओं की स्थापनाओं के कारण नई अपेक्षाएं और संभावनाएं भी जन्म ले रही थीं. परंतु आज एक अजीब सी अनिश्चितता का वातावरण है जो बार-बार आधुनिक विश्व की समृद्ध और प्रगतिशील परिकल्पनाओं व अवधारणाओं को खंडित कर तानाशाही, भय और युद्धोन्माद से भरा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि दुनिया अपने उन संगठनों और संस्थाओं से संयुक्त सहकारों को नदारद पा रही है जो आज से 75 साल पहले उनकी बुनियाद रखते समय सुनिश्चित किए गए थे.
गौर से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि पोस्ट ट्रुथ के इस दौर ने एक ऐसी भ्रमात्मक स्थिति उत्पन्न कर दी है जिसमें डायनॉमिक कोऑपरेशन, सस्टेनेबल ग्रोथ विद् पीस एवं हैप्पीनेस की संभावनाएं लगभग क्षीण सी दिख रही हैं. क्यों? क्योंकि संयुक्त राष्ट्र जैसी वैसी वैश्विक संस्था लोकतांत्रिक मूल्यों का अनुपालन नहीं कर पा रही है.
दुनिया के पांच देश पुलिसमैन की भूमिका में हैं जो अपने हितों के अनुरूप इसे चला रहे हैं. वे नहीं चाहते कि दुनिया को नियंत्रित और संचालित करने का तरीका लोकतांत्रिक हो. ऐसा होते ही उनके द्वारा स्थापित वर्चस्ववाद पर आधारित व्यवस्था कमजोर हो जाएगी और इससे हासिल होने वाले डिविडेंड सिकुड़ जाएंगे.
सुरक्षा परिषद में सुधार के लिए प्रयास 1992 से ही शुरू हो गए थे. विषय दो रहे- प्रथम सुरक्षा परिषद की सदस्य संख्या में विस्तार और द्वितीय- संयुक्त राष्ट्र की काम करने की प्रक्रिया में बदलाव. सदस्य संख्या के विस्तार के लिए संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में एक औपचारिक संशोधन की आवश्यकता होगी जबकि काम करने की प्रक्रिया में बदलाव चार्टर के एक औपचारिक संशोधन के बिना किया जा सकता है.
इसके बाद संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव बुतरस-बुतरस घाली ने ‘ऐन एजेंडा फॉर पीस’ तैयार किया और भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील ने जी-4 के जरिये सुधार को आंदोलन का रूप दिया. परंतु परिणाम अभी तक वही ढाक के तीन पात है. कारण यह कि पी-5 देश यह नहीं चाहते कि सुरक्षा परिषद लोकतांत्रिक बने.
ऐसा होते ही उनकी अंतरराष्ट्रीय पुलिसमैन की भूमिका समाप्त हो जाएगी. लेकिन यह तो दुनिया के देशों को तय करना होगा कि वे कैसा संयुक्तराष्ट्र चाहते हैं. अभी तो वह उन सरोकारों से बहुत दूर खड़ा दिखाई दे रहा है जिनकी परिकल्पना उसकी बुनियाद में निहित थी.