रहीस सिंह का ब्लॉग: ट्रंप की नीतियों के चलते दुनिया पर नए शीतयुद्ध का साया
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: May 27, 2019 02:14 PM2019-05-27T14:14:29+5:302019-05-27T14:14:29+5:30
अमेरिका ने खाड़ी में अपना युद्धपोत यूएसएस अर्लिगटन भेज दिया है जिस पर जल-थल युद्ध उपकरण और लड़ाकू जहाज हैं. ये युद्धपोत यूएसएस अब्राहम लिंकन के साथ खाड़ी में तैनात रहेगा. कतर के अमेरिकी सैन्य बेस पर भी बी-52 बमवर्षक विमान भेज दिए गए हैं.
अ मेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की नीतियां सनक भरी हैं इसलिए उनकी नीतियों के चलते पूरी दुनिया में एक अजीब सा वातावरण दिख रहा है. सबसे चुनौतीपूर्ण वातावरण तो फारस की खाड़़ी में दिखाई देता है. ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को निरस्त करने की एकतरफा घोषणा के बाद ट्रम्प प्रशासन ने उस पर धीरे-धीरे प्रतिबंधों का शिकंजा कसना शुरू किया और अब अमेरिका ने मध्यपूर्व में अपना पेट्रियॉट मिसाइल डिफेंस सिस्टम तैनात कर दिया है.
अमेरिका यहीं नहीं रुका है बल्कि उसने खाड़ी में अपना युद्धपोत यूएसएस अर्लिगटन भेज दिया है जिस पर जल-थल युद्ध उपकरण और लड़ाकू जहाज हैं. ये युद्धपोत यूएसएस अब्राहम लिंकन के साथ खाड़ी में तैनात रहेगा. कतर के अमेरिकी सैन्य बेस पर भी बी-52 बमवर्षक विमान भेज दिए गए हैं. इससे क्या ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका ईरान के बहाने खाड़ी क्षेत्र में सर्वोच्चता की एक नई लड़ाई लड़ने की तैयारी में है?
ईरान के साथ हुए न्यूक्लियर समझौते से अमेरिका के अलग होने के पश्चात यह विचार करना अब जरूरी हो जाता है कि बराक ओबामा ने इस समझौते को संवेदनशील वरीयता पर क्यों रखा था? दरअसल उस समय ईरान की यूरेनियम संवर्धन क्षमता, संवर्धित यूरेनियम के भंडार, इसके सेंट्रीफ्यूज की संख्या और अरक रिएक्टर में प्लूटोनियम तैयार करने की क्षमता ने यह संदेश दे दिया था कि ईरान परमाणु बम बनाने की स्थिति में पहुंच गया है.
ऐसे में उन देशों के लिए सबसे बड़ा संकट था जो अमेरिकी न्यूक्लियर अम्ब्रेला के नीचे थे. इसका मतलब यह कि ईरान की परमाणविक महत्वाकांक्षाओं का अंत एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों का. दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि वे मध्य-पूर्व में इजराइल को चुनौतीविहीन बनाए रखना चाहते हों.
कारण यह है कि अहमदीनेजाद के समय ईरान ने सभी को चुनौती देने का साहस डाला था, फिर चाहे वह घरेलू राजनीतिक ताकतें हांे या बाहरी, जिनमें अमेरिका भी शामिल था. उस समय ऐसी अध्ययन रिपोर्टे भी आनी शुरू हुईं जो यह बता रही थीं कि ईरान परमाणु बम बनाने के निकट पहुंच चुका है.
स संकट से भारत को भी नुकसान हो सकता है. ईरान भारत को कुछ रियायतें देता है इसलिए भारत भी ईरान को तरजीह देता रहा है. ध्यान रहे कि पिछली बार जब प्रतिबंध लगे थे तो उसमें दो प्रकार के प्रतिबंध शामिल थे-यूएन और अमेरिकन. भारत ने उस समय यूएन द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को माना था, अमेरिकी प्रतिबंधों को नहीं. अब हमें अमेरिकी प्रतिबंधों का अनुपालन करने को कहा जा रहा है इसलिए इस ‘थ्रेट’ का अनुपालन करने में दिक्कत तो होगी, पर ऐसा नहीं कि उसका अतिक्रमण न किया जा सके. पर जो दूसरी समस्या आएगी वह अधिक प्रभावशाली होगी.
भारत को ईरान और अमेरिका के बीच रिबैलेंस करना होगा. अमेरिका भारत के साथ कई ऐसे मोर्चो पर खड़ा है जिसके कारण भारत अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक लड़ाई जीतता है. लेकिन ईरान के साथ हमें केवल तेल को ही नहीं बल्कि दो पक्षों को देखना होगा. पहला-परंपरागत संबंध और दूसरा चाबहार. महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत को ईरान की जरूरत कनेक्टिविटी के लिहाज से भी अधिक है.
प्रतिबंध के दौरान ऊर्जा सहयोग जरूर प्रभावित हुआ है, लेकिन भारत मल्टी मॉडल कनेक्टिविटी के लिए ईरान को जरूरी मानता रहा है क्यांेकि सेंट्रल एशिया और रूस से संपर्क के लिए भारत को ईरान की जरूरत रही है और आगे भी रहेगी. चाबहार भारत के लिए सामरिक रणनीति के लिहाज बेहद महत्वपूर्ण है.