PM Modi’s Moscow visit: यूक्रेन जंग के बीच रूस और भारत के रिश्ते, 22वीं सालाना शिखर बैठक को लेकर दोनों राष्ट्र उत्साहित
By राजेश बादल | Published: July 9, 2024 11:31 AM2024-07-09T11:31:13+5:302024-07-09T11:32:38+5:30
PM Modi’s Moscow visit: यूक्रेन के साथ जंग का घोषित कारण तो यही है कि रूस नाटो सेनाओं को अपनी सीमा पर आकर मोर्चा संभालने की इजाजत क्यों दे?
PM Modi’s Moscow visit: इस बार भारत और रूस के बीच 22वीं सालाना शिखर बैठक कुछ-कुछ असाधारण है. इसे लेकर दोनों राष्ट्र खासे उत्साहित हैं. एशिया की इन दो बड़ी ताकतों के लिए पश्चिम और यूरोप का रवैया अब पहेली नहीं रहा. हालांकि रूस का करीब 40 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल यूरोप का हिस्सा है और यूरोप की कुल आबादी का 15 प्रतिशत रूस में रहता है. मगर चरित्र और स्वाभाविक मेलजोल रूस को एशिया के निकट रखते हैं. भारत और चीन के साथ उसकी सहजता का यह भी एक कारण है. पर यूरोपियन देशों को शायद रूस का यह चरित्र नहीं भाता.
यूरोपीय मुल्कों के साथ मतभेद उभरने की यह भी वजह रही है. यूक्रेन के साथ जंग का घोषित कारण तो यही है कि रूस नाटो सेनाओं को अपनी सीमा पर आकर मोर्चा संभालने की इजाजत क्यों दे? यूक्रेन कुछ वर्षों से यूरोपीय और पश्चिमी देशों का खिलौना बन गया है. ढाई साल से जारी जंग इसका प्रमाण है.
यूक्रेन यह सिद्धांत समझने के लिए तैयार नहीं है कि पड़ोसी से कितने ही शत्रुतापूर्ण संबंध हो, लेकिन जब घर में आग लगती है तो बचाता भी पड़ोसी ही है. इसके पीछे मंशा यह है कि पड़ोसी अपना घर भी तो बचाना चाहता है. लेकिन हास्य अभिनेता रहे राष्ट्रपति जेलेंस्की हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं. वे नहीं समझ रहे कि यूक्रेन अमेरिका और नाटो देशों की कठपुतली बन चुका है.
यूरोप के देश यूक्रेन को हथियार तो दे रहे हैं लेकिन न नाटो में शामिल कर रहे हैं और न सैनिक भेज रहे हैं. आम तौर पर नाटो में शामिल होने की प्रक्रिया एक बरस है. पर यूक्रेन युद्ध ढाई साल से जारी है और यूक्रेन नाटो सदस्य नहीं बना है. नाटो ने अगर यूक्रेन को सदस्य बना दिया तो नाटो सेनाओं को यूक्रेन के लिए लड़ना पड़ेगा, जो यूरोप के देश नहीं चाहते.
जेलेंस्की इतनी सी बात नहीं समझ रहे हैं. यूरोप के देश हथियार दे रहे हैं. इसकी पाई-पाई वे बाद में वसूल करेंगे. जाहिर है कि यूक्रेन बलि का बकरा बन रहा है. क्या जेलेंस्की नहीं जानते कि इसी साल स्वीडन को नाटो की सदस्यता दी गई है जबकि उनका आवेदन 2007 से लंबित है? लौटते हैं हिंदुस्तान और रूस के सालाना शिखर सम्मेलन पर. वैसे तो यह 24वां शिखर सम्मेलन होना चाहिए.
लेकिन कोविड और यूक्रेन युद्ध के चलते दो वार्षिक बैठकें नहीं हो सकीं. अन्यथा हर बार इन बैठकों के सार्थक परिणाम मिलते रहे हैं. यूक्रेन से युद्ध ने अगर अमेरिका और उसके दोस्तों की आर्थिक बंदिशों के कारण रूस को मुश्किल में डाला है तो भारत और चीन जैसे राष्ट्र उसके लिए संकटमोचक बने रहे हैं. यूरोप ने कच्चे तेल और ईंधन की रूस से खरीद न्यूनतम कर दी है.
लेकिन भारत तथा चीन की खरीद जारी है. भारत का रूस से तेल आयात 400 फीसदी बढ़ा है. इससे रूस को बड़ा संबल मिला है. हालांकि भारत को अमेरिकी और यूरोपीय देशों का गुस्सा भी झेलना पड़ा है. पर उस गुस्से की भारत क्यों न उपेक्षा करे, जो पाकिस्तान के साथ युद्ध में भारत का साथ नहीं देता, उल्टे पाकिस्तान को शह देता है.
यही अमेरिका 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के पक्ष में अपना परमाणु हथियारों से लैस जहाजी बेड़ा भेजता है. दूसरी तरफ रूस उस जहाजी बेड़े के मुकाबले के लिए भारत के पक्ष में अपना परमाणु जहाज भेजता है, कश्मीर के मसले पर कई बार भारत के हित में वीटो पावर का इस्तेमाल करता है, भारत के राकेश शर्मा को अंतरिक्ष यात्री बनाकर भेजता है, रक्षा और भारी उद्योग के समझौते करता है.
दूसरी तरफ भारत तमाम दबावों के बाद भी दोस्ती बरकरार रखता है और पड़ोसी धर्म का पालन करता है. भारतीय विदेश नीति की नींव नेहरू के जमाने में रखी गई थी. इतिहास गवाह है कि कई अवसर आए हैं जब भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जटिल स्थितियों का सामना करना पड़ा तो इसी नीति ने उबारा. यह भी प्रमाणित है कि इस नीति से आंशिक विचलन भी हिंदुस्तान के लिए मुश्किलें लेकर आता है.
हालिया दौर में कुछ बरस ऐसे थे जब भारत पश्चिम की ओर झुकता दिखा तो रूस ने भी दूरी बना ली थी. वह चीन और पाकिस्तान की ओर ध्यान देने लगा. राहत की बात यह कि भारत ने समय रहते अपनी नीति पर पुनर्विचार किया. आज के दौर में विचारधाराओं के आधार पर दुनिया की खेमेबाजी दम तोड़ चुकी है. सारा जोर आर्थिक हितों पर आधारित है.
जो अमेरिका आजादी के बाद पाकिस्तान के साथ पींगें बढ़ाता रहा,वह भारत के साथ संबंध सुधारने पर मजबूर हुआ क्योंकि आर्थिक मंदी के दौर में उसे भारत के बड़े बाजार की जरूरत थी. आज भी उसके लिए अपने वित्तीय हित सर्वोपरि हैं. रूस हो, ईरान हो या अफगानिस्तान हो, वह अपेक्षा करता है कि भारत अपने हितों की चिंता नहीं करते हुए अमेरिकी हित संरक्षित करे.
यह किसी भी बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए संभव नहीं है. अतीत में तो उसने भारत को प्रतिबंध की धमकी तक दे दी थी. एकाध बार भारत ने अमेरिकी लिहाज करते हुए निर्णय लिया तो खामियाजा भी उठाना पड़ा. अमेरिकी दांव में उलझने से तो भारत के लिए रूस की पारंपरिक दोस्ती ही बेहतर है. हमें याद है कि रूस के लिए चीन की तुलना में भारत की मित्रता अधिक उपयोगी है.
चीन को उसने 1938 में जापानी युद्ध के समय भरपूर मदद दी, चीन के कई शहरों को विनाश से बचाया, 25 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण दिया और उसी चीन ने 1960 में रूस से सीमा विवाद शुरू किया, 1969 में रूस के झेनबाओ पर हमला कर दिया. इसमें 58 रूसी सैनिक और 248 चीनी सैनिक मारे गए. इसके बाद दोनों मुल्कों ने जंग लड़ी.
भारी मात्रा में टैंक, गोला-बारूद और आधुनिक हथियार इस्तेमाल किए गए. युद्ध पश्चिमी सीमा तक फैल गया. वहां 2 रूसी और 28 चीनी सैनिक मरे. सात महीने जंग चलती रही. तब रूसी नेता कोसिगिन भारत आए और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ चीन के विरुद्ध सैनिक गठबंधन किया. आज भी दोनों देशों के रिश्तों में अविश्वास की अदृश्य दरार है, जो भारत के साथ नहीं है.