रहीस सिंह का ब्लॉग: चीन-अमेरिका टकराव की चपेट में द. एशियाई देश

By रहीस सिंह | Published: January 15, 2022 08:09 AM2022-01-15T08:09:10+5:302022-01-15T08:16:03+5:30

चीन यह जानता है कि भारत अमेरिका स्ट्रेटेजिक पार्टनर हैं। इसलिए वह अमेरिका का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनने और उसके बढ़ रहे प्रभाव क्षेत्र को रोकने की कोशिश कर रहा है।

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रहीस सिंह का ब्लॉग: चीन-अमेरिका टकराव की चपेट में द. एशियाई देश

Highlightsअमेरिका और चीन की महत्वाकांक्षाएं टकराने से इसका असर बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों पर भी पड़ रहा है। फिलहाल चीन अपनी छद्म नीति चेकबुक डिप्लोमेसी के जरिये नेपाल, श्रीलंका जैसे देशों पर सेंध लगाने की रणनीति पर काम कर रहा है।इसके तहत चीन अन्य दक्षिण एशियाई व पूर्व एशियाई देशों के साथ ‘वोल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी’ का भी प्रयोग कर रहा है।

महाशक्तियों की महत्वाकांक्षाएं असीमित होती हैं. स्वाभाविक है कि वे आपस में टकराएंगी. ऐसे टकराव कभी कम तीव्रता के होते हैं तो कभी बहुत अधिक. विश्वयुद्ध और शीतयुद्ध इसका उदाहरण हैं. लेकिन अखरने वाली बात यह है कि इन टकरावों में छोटे देश बेवजह पिस जाते हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि छोटे देशों को ये महाशक्तियां अपने-अपने खेमे में लाने के लिए दबाव बनाती हैं. ये दबाव में आएं या न आएं लेकिन वे इसका मूल्य अवश्य चुकाते हैं. बोलीविया, अबीसीनिया, सुडेटेनलैंड या वियतनाम और क्यूबा जैसे देश ऐसे ही उदाहरणों के रूप में देखे जा सकते हैं. 

वर्तमान समय में अमेरिका और चीन की महत्वाकांक्षाएं टकरा रही हैं जिसे कुछ विेषक शीतयुद्ध के रूप में भी देखने की कोशिश करते हैं. इस टकराव का असर अब दक्षिण एशिया के देशों विशेषकर बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल आदि देशों पर या तो पड़ रहा है अथवा पड़ने की संभावना है. चूंकि दक्षिण एशिया का लीडिंग राष्ट्र भारत है और भारत-चीन भी सीमाओं पर तनाव से गुजर रहे हैं इसलिए इसका असर भी इन पर पड़ रहा है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका भी शायद इन्हें नए नजरिये से देख रहा है जो नए किस्म के दबावों से संपन्न है.

हाल ही में अमेरिका ने बांग्लादेश रैपिड एक्शन बटालियन तथा कई अन्य अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दिया. इससे पहले उसने 2021 के ‘लोकतंत्र सम्मेलन’ से भी बांग्लादेश को दूर रखा था. यही नहीं लगभग छह वर्ष पूर्व बांग्लादेश के लेखक अभिजीत रॉय के हत्यारे को पकड़ने हेतु सूचना देने वाले को भी 50 लाख डॉलर का इनाम देने की घोषणा की. पहले की तरह ही अमेरिका इसे लोकतंत्र और मानवाधिकारवादी मूल्यों के प्रति अपनी चिंता बताएगा. अब सवाल यह उठता हे कि क्या ये अमेरिकी कदम वास्तव में लोकतंत्र तथा मानवाधिकारीवादी मूल्यों के प्रति अमेरिकी चिंता का परिणाम हैं? या फिर इनके भू-राजनीतिक निहितार्थ हैं? क्या इन निहितार्थो में सिर्फ अमेरिका और चीन हैं अथवा भारत भी है? एक सवाल यह भी है कि अमेरिका लोकतंत्र, मानवाधिकार और कानून का शासन जैसे मुद्दों को लेकर बांग्लादेश को लेकर गंभीर है तो फिर पाकिस्तान जैसे देश के प्रति क्यों नहीं? 

यहां पर दो चीजें काफी हद तक स्पष्ट हैं. पहली- बाइडेन प्रशासन ट्रम्प प्रशासन की नीतियों के विपरीत दिशा में चलने की कोशिश कर रहा है. जगजाहिर है कि ट्रम्प और मोदी की केमिस्ट्री बहुत अच्छी थी. भारत और अमेरिका की इस दोस्ती का अक्स तो भारत के अन्य देशों के साथ संबंधों पर भी दिखना स्वाभाविक था. चूंकि वह केमिस्ट्री अब नहीं है, इसलिए यह भी संभव है कि अमेरिका की बांग्लादेश के प्रति नाराजगी में भारत-बांग्लादेश मैत्री भी एक एंगल के रूप में हो.

दरअसल भू-राजनीतिक दृष्टि से बांग्लादेश एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक इकाई (देश) है. चूंकि बांग्लादेश की काफी हद तक निर्भरता भारत पर है और भारत की पड़ोसी प्रथम (नेबरहुड फस्र्ट) नीति में बांग्लादेश प्रमुख देशों में है, इसलिए दक्षिण एशिया और हिंद-महासागर में बांग्लादेश की जियो-स्ट्रेटेजी भारत के अनुकूल है. कुछ विेषक इसे बांग्लादेश के ‘भारत केंद्रित’ (इंडिया सेंटर्ड) होने के रूप में देखते हैं. 

हालांकि कुछ कम या ज्यादा के साथ यही स्थिति श्रीलंका, मालदीव और नेपाल की भी है इसलिए यह भी संभावना है कि अमेरिका बांग्लादेश तक ही सीमित न रहे, बल्कि इन देशों पर भी नए सिरे से विचार करे. हालांकि यदि अमेरिका ऐसा सोच कर चल रहा है तो वह पूरी तरह से गलत है क्योंकि भारत दक्षिण एशिया में प्रभुत्व की कूटनीति नहीं करता. वह शुरू से ही पड़ोसियों के साथ सहोदर संबंधों के आधार पर बढ़ने का हिमायती रहा है. 

वर्तमान समय में चीन अपनी छद्म नीति चेकबुक डिप्लोमेसी के जरिये नेपाल, श्रीलंका और मालदीव में ही नहीं बल्कि बांग्लादेश में भी सेंध लगाने की रणनीति पर काम कर रहा है. इससे वह कई निशाने लगा रहा है. एक- दक्षिण एशियाई देशों के संसाधनों पर नियंत्रण, द्वितीय-भारतीय हितों को काउंटर करना और तृतीय-भारत को घेरने की रणनीति को व्यावहारिक रूप देना.

इस समय बीजिंग और वाशिंगटन के बीच टकराव धीरे-धीरे शीतयुद्ध जैसी स्थिति की ओर बढ़ रहा है. इसका प्रभाव वहां-वहां दिख सकता है जहां चीन की सक्रियता अथवा घुसपैठ है. इसी कड़ी में बांग्लादेश आता है जो इस समय दोनों के निशाने पर है. दरअसल चीन न केवल बांग्लादेश के साथ बल्कि अन्य दक्षिण एशियाई व पूर्व एशियाई देशों के साथ भी ‘वोल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी’ का प्रयोग कर रहा है. 

अमेरिका भी कुछ इसी माइंडसेट से काम करता हुआ दिख रहा है. खास बात यह है कि ये दोनों ही देश यह नहीं चाहते कि भारत-बांग्लादेश संबंधों में जिस तरह का संवेदनशील रिश्ता बना हुआ है, वह जारी रहे. चीन ऐसा क्यों नहीं चाहता, यह तो जगजाहिर है लेकिन अमेरिका क्यों नहीं चाहता यह अवश्य अखरने वाली बात है, क्योंकि भारत अमेरिका स्ट्रेटेजिक पार्टनर हैं. इसमें कोई संशय नहीं कि अमेरिका चीन को प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनने और उसके बढ़ रहे प्रभाव क्षेत्र को रोकने की कोशिश कर रहा है. 

लेकिन अमेरिका को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह शीतयुद्ध अथवा ग्लोबलाइजेशन के पहले दो दशकों वाला समय नहीं है. 2008 के बाद विश्व व्यवस्था में जो बदलाव आने शुरू हुए थे, वे अब काफी हद तक स्पष्ट हो चुके हैं. ये बदलाव इस बात की पुष्टि नहीं करते कि अमेरिका अब एकमात्र विश्वशक्ति है और व्यवस्था एकध्रुवीय. इसलिए दबाव से नहीं, सहकार से शक्ति संतुलन साधने का उपाय खोजना होगा अन्यथा चीन की चेकबुक डिप्लोमेसी को काउंटर कर पाना मुश्किल होगा.

Web Title: news In the grip of China-US confrontation Asian countries suffer most due to china new policy

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