विदेश नीति के मामले में चीन कैसे सफल हो रहा है, इसका ताजा उदाहरण हमारे सामने आया है। हम चीन को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रतिद्वंद्वी समझते हैं लेकिन ईरान और सऊदी अरब के बीच जो समझौता हुआ है, उसका सारा श्रेय चीन लूटे चले जा रहा है। पिछले सात साल से ईरान और सऊदी अरब के बीच राजनयिक संबंध भंग थे, क्योंकि सऊदी अरब में एक शिया मौलवी की हत्या कर दी गई थी। ईरान एक शिया राष्ट्र है। तेहरान स्थित सऊदी राजदूतावास पर ईरानी शियाओं ने जबर्दस्त हमला बोल दिया था। सऊदी सरकार ने कूटनीतिक रिश्ता तोड़ दिया।
इस बीच सऊदी अरब और ईरान पश्चिम एशियाई देशों के आंतरिक मामलों में एक-दूसरे के विरुद्ध हस्तक्षेप भी करते रहे। यमन, सीरिया, इराक और लेबनान जैसे देशों में एक-दूसरे के समर्थकों को सैन्य-सहायता भी देते रहे। सऊदी अरब ने ईरान पर ये आरोप भी लगाए कि यमन के हाउथी बागियों से उसने सऊदी अरब में सीमा-पार से प्रक्षेपास्त्र और ड्रोन आक्रमण भी करवाए तथा उसके तेल के कुओं को उड़ाने की भी कोशिशें कीं। दोनों देशों के संबंध बहुत कटु हो गए थे। सऊदी अरब लंबे समय से अमेरिका के नजदीक रहा है। इजराइल के साथ उसके संबंधों को सहज बनाने में अमेरिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। लेकिन अमेरिका-ईरान संबंधों में पिछले 40-42 साल से गहरा तनाव है। दोनों राष्ट्रों के बीच व्यापार, आवागमन, कूटनीतिक संबंध तथा अन्य क्षेत्रों में दुश्मनों के जैसा व्यवहार रहा है लेकिन इन दोनों मुस्लिम राष्ट्रों से भारत के संबंध सहज और उत्तम रहे हैं।
यह हमारी कूटनीतिक चतुराई है लेकिन क्या यह काफी है? चीन के राजनयिक वांग यी ने इन दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारियों को बुलाकर बीजिंग में बिठाया और उनके बीच समझौता करा दिया। अब दो माह में ईरान और सऊदी अरब कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लेंगे और दोनों ने एक-दूसरे की संप्रभुता के सम्मान की घोषणा भी की है। यह चीनी पहल उसे विश्व राजनीति में विशेष स्थान दिलाने में मदद करेगी।