Bangladesh Protest: बांग्लादेश में तख्तापलट की जड़ें विदेशी तो नहीं!
By राजेश बादल | Published: August 6, 2024 10:04 AM2024-08-06T10:04:19+5:302024-08-06T10:05:09+5:30
कल ही पूर्व सेना प्रमुख जनरल इकबाल भुइयां ने सार्वजनिक रूप से सेना से अपील की थी कि सेना को इस राजनीतिक संकट में नहीं पड़ना चाहिए. यह कोई सामान्य सी अपील नहीं थी. अशांति के ताजे घटनाक्रम के पीछे की आरक्षण कथा पर एक नजर डालते हैं.
भारत के इस पड़ोसी देश में आए इस सियासी तूफान की वजह आंतरिक नहीं है. बेशक कुछ स्थानीय कारण हैं, लेकिन वे इतने गंभीर नहीं हैं कि उनकी लपटों से साढ़े सत्रह करोड़ लोग झुलसने लग जाएं. बांग्लादेश से आ रही खबरें लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं. प्रधानमंत्री आवास पर प्रदर्शनकारियों ने कब्जा कर लिया है.
शेख हसीना इस्तीफा देने के बाद भले ही किसी सुरक्षित स्थान पर हों मगर हकीकत तो यही है कि वे बांग्लादेश का अतीत बन चुकी हैं. सेनाध्यक्ष वकार उज जमान ने ऐलान किया है कि देश में अब अंतरिम सरकार बनाई जाएगी. उन्होंने साफ-साफ कहा है कि वे जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं और जल्द ही सामान्य स्थिति बहाल हो जाएगी. जनरल ने अब शांति की अपील की है.
लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह लोकतांत्रिक ढंग से काम करती रहेगी या फिर सेना की संगीनों के साये में मुल्क को रहना होगा. यदि ऐसा होता है तो बांग्लादेश पाकिस्तान की राह पर चल पड़ेगा. भारत के नजरिये से यह यकीनन अच्छी खबर नहीं कही जा सकती.
जिस अवामी लीग ने पाकिस्तान के अत्याचारों से मुल्क को निजात दिलाई और समूचे संसार को एक लोकतांत्रिक देश का उपहार सौंपा, उसी अवामी लीग को अब आतंकवादी ठहराया जा रहा है. जब सारी दुनिया मंदी और आर्थिक चुनौतियों से थर-थर कांप रही थी, तो बांग्लादेश ने अपनी आर्थिक प्रगति से सबको चौंकाया था.
अब उसी राष्ट्र में आंतरिक अशांति, हिंसा और तोड़फोड़ इतने भयानक रूप में आ पहुंची कि समूचे देश में कर्फ्यू लगाना पड़ा और फौज को आगे आना पड़ा. मैं भरोसे से कह सकता हूं कि भारत के इस पड़ोसी देश में आए इस सियासी तूफान की वजह आंतरिक नहीं है. बेशक कुछ स्थानीय कारण हैं, लेकिन वे इतने गंभीर नहीं हैं कि उनकी लपटों से साढ़े सत्रह करोड़ लोग झुलसने लग जाएं.
जब पूर्व सेनाध्यक्ष फौज से अपील करने लगें कि वह सरकार का हुक्म नहीं मानते हुए अपनी बैरकों में लौट जाए तो अंदाज लगाया जा सकता है कि इसके पीछे किसी न किसी बड़ी ताकत का हाथ हो सकता है. खास तौर पर अतीत के उस अध्याय को ध्यान में रखते हुए कि बांग्लादेश और वहां लोकतंत्र को स्थापित करने वाले बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान फौजी तानाशाही का क्रूर शिकार बन चुके हैं.
अब उनकी पुत्री शेख हसीना वाजेद इन्हीं फौजी कट्टरपंथियों से किला लड़ा रही हैं. यह तर्क गले उतरता है कि उनकी सरकार ने प्रतिपक्ष का सख्ती से दमन किया है, इसलिए आरक्षण आंदोलन के बहाने असहमति के सुर को कुचलने की सजा प्रधानमंत्री को अवाम देना चाहती है. पर इतनी व्यापक हिंसा और सुनियोजित वारदातें बाहरी ताकत का समर्थन लिए बिना नहीं हो सकतीं, यह पक्का है.
24 घंटे में 100 मौतें, साढ़े तीन हजार से अधिक छोटे-बड़े कारखानों का बंद होना, सुप्रीम कोर्ट समेत सारी अदालतों पर ताला पड़ जाना, देश भर में रेल संचालन ठप किया जाना, इंटरनेट और संचार सुविधाएं बंद होना कोई साधारण बात नहीं है और अचानक सेना के आला अफसरों का कूद पड़ना कहीं न कहीं संदेह की सुई को सीमाओं के पार ले जाता है.
कल ही पूर्व सेना प्रमुख जनरल इकबाल भुइयां ने सार्वजनिक रूप से सेना से अपील की थी कि सेना को इस राजनीतिक संकट में नहीं पड़ना चाहिए. यह कोई सामान्य सी अपील नहीं थी. अशांति के ताजे घटनाक्रम के पीछे की आरक्षण कथा पर एक नजर डालते हैं. बता दूं कि जब 1971 में बांग्लादेश अस्तित्व में आया तो वहां 80 फीसदी आरक्षण था. बार-बार बदलावों के चलते 2012 में कुल 56 फीसदी आरक्षण था.
इनमें स्वतंत्रता आंदोलन ( 1971 ) के सेनानियों के बच्चों को 30 फीसदी, पिछड़े वर्गों के लिए 10 फीसदी, अल्पसंख्यकों को 5 फीसदी और विकलांगों को 1 फीसदी आरक्षण दिया गया था. शेख हसीना सरकार ने 2018 में चार महीने तक छात्रों के आंदोलन के बाद आरक्षण समाप्त कर दिया था.
इसके बाद उच्च न्यायालय में इस फैसले को चुनौती दी गई. इस बरस जून में हाईकोर्ट ने सरकार को आरक्षण बहाल करने का फिर आदेश दिया. सरकार उच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए आरक्षण 7 प्रतिशत कर दिया.
इसमें 5 फीसदी स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों और 2 फीसदी अन्य वर्गों को आरक्षण देने का आदेश दिया था. जाहिर है सरकार को तो यह फैसला रास आया लेकिन आम अवाम को नहीं. विरोध में छात्र सड़कों पर आए और परिणाम की शक्ल शेख हसीना के तख्तापलट के रूप में सामने आई.
अब इस सारे घटनाक्रम से जोड़कर हालिया दौर में श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, म्यांमार और पाकिस्तान के घटनाक्रम को देखिए.
श्रीलंका में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति आवास में घुसकर बांग्लादेश जैसा ही काम किया था. म्यांमार में आंग सान सू ची को जेल में डालकर सेना ने सत्ता हथियाई. नेपाल में प्रचंड सरकार को गिरवा कर के. पी. ओली की सरकार बनाई गई. मालदीव में भी सरकार बदली गई. पाकिस्तान में भी सेना ने सरकार बदल दी. म्यांमार में आंग सान सू ची भारत समर्थक थीं और उनकी सेना चीन के साथ पींगें बढ़ा रही थी.
नेपाल में प्रचंड के स्थान पर आए के. पी. ओली कट्टर चीन समर्थक हैं, मालदीव में नए राष्ट्रपति कट्टर चीन समर्थक हैं और पाकिस्तान में इमरान खान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को फूटी आंखों नहीं सुहाते. किसी जमाने में इमरान खान शी जिनपिंग की पाकिस्तान यात्रा के विरोध में धरने पर बैठे थे. इसके बाद चीनी राष्ट्रपति को पाकिस्तान की यात्रा स्थगित करनी पड़ी थी.
इसलिए इमरान खान को जेल से छोड़कर सेना चीन की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती. श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति उसे तनिक भारत के पक्ष में लाती है अन्यथा वह चीन की गोद में तो बैठा ही हुआ था.