राजेश बादल का ब्लॉग: भारत से जुगलबंदी क्या 'खराब' हुई...उठने लगे अमेरिका की चौधराहट पर सवाल

By राजेश बादल | Published: June 14, 2022 11:36 AM2022-06-14T11:36:24+5:302022-06-14T11:37:52+5:30

रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने जिस तरह स्वतंत्र विदेश नीति को आगे रखा, उससे अमेरिका परेशान है. अमेरिका हमेशा से अपने हितों को ऊपर रखता आया है. अमेरिका किसी भी कीमत पर भारत और चीन के रिश्ते भी सामान्य होते नहीं देखना चाहता.

America position in world down as relation with India also gets hamper amid Russua Ukriane war | राजेश बादल का ब्लॉग: भारत से जुगलबंदी क्या 'खराब' हुई...उठने लगे अमेरिका की चौधराहट पर सवाल

भारत से खराब हुए संबंध से अमेरिका असहज (फाइल फोटो)

अमेरिका इन दिनों परेशान है. उसकी चौधराहट पर अब सीधे-सीधे सवाल उठने लगे हैं. मुल्क के भीतर राष्ट्रपति जो बाइडेन की लोकप्रियता में कमी का एक कारण यह भी है. उनकी अपनी पार्टी में ही अप्रूवल रेटिंग में नौ फीसदी गिरावट ने उनके नेतृत्व पर सवालिया निशान लगा दिए हैं. 

कोरोना काल के दौरान चीन से दूरी और बढ़ी. रूस-यूक्रेन जंग के दौरान रूस से संबंध बेहद खराब हुए और उसके बाद भारत के रूस का साथ देने के कारण भारत से उसने दूरी बना ली. एशिया के तीन बड़े देशों भारत, चीन और रूस (रूस यूरोप और एशिया में बंटा हुआ है) में से भारत के साथ उसके संबंध मधुर थे. लेकिन उसे एक संप्रभु मित्र नहीं, बल्कि एक पिछलग्गू देश की जरूरत थी. 

भारत की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति के चलते ऐसा होना संभव नहीं था. जब भारत के रिश्ते अच्छे माने जा रहे थे, तब भी वह एकपक्षीय यातायात जैसा था. अब एक बार फिर वह कोशिश में है कि भारत के साथ सामान्य संबंध बहाल हों. यद्यपि भारत ने अपनी ओर से अमेरिका के साथ किसी अनुबंध, संधि या गठबंधन से बाहर आने का ऐलान नहीं किया है. पर, संबंधों में आई खटास के कारण भी किसी तिलिस्मी पर्दे में नहीं छिपे हैं. 

अब अमेरिका किसी भी कीमत पर भारत और चीन के रिश्ते सामान्य होते नहीं देखना चाहता. वह अपनी ओर से इस बारे में सारे प्रयास कर चुका है. उसके एक उप सुरक्षा सलाहकार तो भारत यात्रा के दौरान एक तरह से धमका कर गए थे. उन्होंने कहा था कि भारत पर जब चीन का हमला होगा तो रूस नहीं बल्कि अमेरिका ही मदद के लिए सामने आएगा. 

इसके बाद भारतीय विदेश मंत्रालय को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा था. दशकों तक अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान के बीच निरंतर आग में घी डालने का काम किया है. अफगानिस्तान में तालिबान के साथ बातचीत में भी उसने भारत को भरोसे में नहीं लिया था. हालिया घटनाक्रम एक बार फिर इस बात की पुष्टि करता है.

हाल ही में अमेरिकी फौज के एक कमांडर जनरल चार्ल्स एफ्लिन दिल्ली आए थे. उन्होंने बाकायदा पत्रकारों से बात की और भारत को आगाह किया कि उसे चीन से लद्दाख क्षेत्र में सावधान रहने की जरूरत है. चीन वहां सामरिक नजरिये से महत्वपूर्ण ढांचे बना रहा है. किसी तीसरे देश के जनरल की ऐसी टिप्पणी तनिक अटपटी थी. भारत आकर उसका कोई आला फौजी अधिकारी चीन के लिए इस आक्रामक भाषा का इस्तेमाल करे, यह अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार के अनुकूल नहीं है. 

निश्चित रूप से इसके पीछे चीन को उकसाने की मंशा भी छिपी थी. लिहाजा अगले ही दिन चीन ने अमेरिका को आड़े हाथों लिया और उसके जनरल के बयान की निंदा की. चीनी प्रवक्ता झाओली झियन ने अमेरिकी फौजी के बयान को खारिज कर दिया और कहा कि वह भारत और चीन के बीच बेवजह तनाव बढ़ाने का प्रयास कर रहा है. दोनों देशों के बीच सीमा विवाद का मसला है. इसे आपसी बातचीत से निपटाने की कोशिशें जारी हैं. प्रवक्ता ने कहा कि ‘दोनों पक्ष विवाद को संवाद और विचार-विमर्श के जरिये सुलझाने के इच्छुक हैं. उनमें ऐसा करने की क्षमता भी है. कुछ अमेरिकी अधिकारियों ने तनाव बढ़ाने और दोनों देशों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की है. ये शर्मनाक है.’

इसके बाद भी बयान युद्ध जारी रहा. अमेरिका की ओर से उत्तेजक टिप्पणियां रुकी नहीं और उसके रक्षा मंत्री जेम्स ऑस्टिन ने सिंगापुर में चीन के आक्रामक रवैये पर गहरी चिंता जताई. दिलचस्प यह कि उन्होंने कहा कि अमेरिका अपने दोस्तों के साथ खड़ा रहेगा.

भारत खामोशी से दोनों महाशक्तियों के बीच इस अंताक्षरी को देख रहा है. कहा जाए तो इस मसले पर वह तनिक दुविधा में भी है. अमेरिका और भारत के बीच संबंधों में अनेक अवसर आए हैं, जब अमेरिका ने अपने राष्ट्रीय हितों के लिए भारत के हितों को नजरअंदाज किया है. भारत ने दुनिया के चौधरी की इस दबंगई को एक-दो मर्तबा सकुचाते-सकुचाते स्वीकार भी किया है. 

एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा. डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में जिस तरह परमाणु अप्रसार के मसले पर ईरान की घेराबंदी की गई थी, उससे अमेरिका के यूरोप के साथी ही संतुष्ट नहीं थे. इसके बावजूद भारत ने अपने अनेक आर्थिक, कारोबारी, सामरिक और सियासी हितों को छोड़ते हुए ईरान से कच्चे तेल का आयात एक तरह से रोक दिया. भारत को नुकसान तो हुआ ही, ईरान से सदियों पुराने संबंधों को भी झटका लगा था. ईरान के लिए भी हिंदुस्तान का यह रवैया अप्रत्याशित था. 

इससे अमेरिका को भ्रम हुआ कि वह जो भी चाहेगा हिंदुस्तान से करा लेगा. पर वह समझने को तैयार नहीं है कि उसके देश के हित हर लोकतांत्रिक देश के हित नहीं हो सकते. भारत और रूस के संबंध अपने विशिष्ट कारणों से हमेशा बने रहेंगे. वे एशिया में शक्ति संतुलन का काम भी करते हैं. क्या भारत एक साथ पाकिस्तान, चीन और रूस के साथ शत्रुतापूर्ण रिश्ते रख सकता है, खासतौर पर उन स्थितियों में जबकि रूस ने कई बार आड़े वक़्त पर भारत की मदद की है. 

कश्मीर के मसले पर संयुक्त राष्ट्र में उसने भारत के लिए अपने वीटो पावर का इस्तेमाल किया है. इसके अलावा सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के मामले में भी उसने खुलकर भारत का साथ
दिया है.

अमेरिका को यह हकीकत समझनी होगी. उसे ध्यान रखना चाहिए कि एक परखे हुए दोस्त को बार-बार धोखा देने वाला कभी भरोसेमंद नहीं हो सकता. भारत एक लोकतांत्रिक सहयोगी के रूप में उसका शुभचिंतक तो हो सकता है, मगर जब-जब परीक्षा की घड़ी आएगी, भारत को पहले अपने राष्ट्रीय हित देखने ही होंगे. 

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