प्रमोद भार्गव का ब्लॉगः जलवायु संकट को सुनहरा अवसर मानता अमेरिका
By प्रमोद भार्गव | Published: May 15, 2019 07:24 AM2019-05-15T07:24:14+5:302019-05-15T07:24:14+5:30
समुद्री व हिमालयी बर्फ के पिघलने से जलस्तर बढ़ रहा है जिसके नतीजे दिखने लगे हैं. इंडोनेशिया ने अपनी राजधानी जकार्ता बदलने का प्रस्ताव संसद से पारित करा लिया है. जकार्ता दुनिया में तेजी से डूबने वाले शहरों में से एक है. समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण जकार्ता का बड़ा हिस्सा 2050 तक डूब सकता है.
समूची दुनिया में जहां धरती को बचाने की चिंता की जा रही है, वहीं पेरिस समझौते से पीछे हटने वाले अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन के संकट को व्यापार का सुनहरा अवसर मान लिया है. अमेरिका के इस कुतर्क से दुनिया के पर्यावरणविद हैरान हैं. क्योंकि आर्कटिक में पिघलती बर्फ का सीधा संबंध सूखे, बाढ़ और लू के साथ माना जा रहा है. समुद्री व हिमालयी बर्फ के पिघलने से जलस्तर बढ़ रहा है जिसके नतीजे दिखने लगे हैं. इंडोनेशिया ने अपनी राजधानी जकार्ता बदलने का प्रस्ताव संसद से पारित करा लिया है. जकार्ता दुनिया में तेजी से डूबने वाले शहरों में से एक है. समुद्र के बढ़ते जलस्तर के कारण जकार्ता का बड़ा हिस्सा 2050 तक डूब सकता है.
इसी माह फिनलैंड में जलवायु परिवर्तन को लेकर आर्कटिक सम्मेलन हुआ, जिसमें आठ आर्कटिक देशों कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नार्वे, रूस, स्वीडन और अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपियो हिस्सा लेने पहुंचे थे. पोंपियो ने चिंता व्यक्त करने की बजाय जलवायु संकट को ठीक ठहराया. कहा कि समुद्र में जमी बर्फ के पिघलने से व्यापार के नए रास्ते खुलेंगे, जिससे अमेरिकी व्यापार में वृद्घि होगी.
बीते साल पोलैंड के कातोवित्स शहर में 2015 के पेरिस समझौते के बाद जलवायु परिवर्तन की बैठक में 200 देशों के प्रतिनिधि गंभीर पर्यावरणीय चेतावनियों और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों पर सहमत दिखे थे. इन प्रतिनिधियों ने 133 पन्नों की एक नियमावली को अंतिम रूप दिया था, जिसमें वैश्विक तापमान वृद्घि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने की मांग पर सहमति बन गई थी. यह समझौता 2020 से प्रभावी होना है. हालांकि इस पर अमल करना आसान नहीं है. शायद इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने कहा है कि ‘इसे पूरी तरह लागू करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी होगी.’
जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में वृद्घि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे क्योंकि इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है. धरती की नमी घट रही है और शुष्कता बढ़ रही है. भविष्य में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है.
इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एशिया के किसानों को कृषि को अनुकूल बनाने के लिए प्रतिवर्ष करीब पांच अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा. अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के अनुसार, अगर यही स्थिति बनी रही तो एशिया में 1 करोड़ 10 लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और शेष दुनिया में 40 लाख बच्चों को भूखा रहना होगा. ऐसे में अमेरिका द्वारा जलवायु परिवर्तन की खिल्ली उड़ाना भविष्य में दुनिया के लिए संकट का कारण बन सकता है.