अफगानिस्तान में हिंसा से आखिर किसे फायदा? राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: November 4, 2020 01:13 PM2020-11-04T13:13:40+5:302020-11-04T13:15:09+5:30
अफगानिस्तान में आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रमों का विरोध खुद वहां के नागरिकों के लिए पहेली है. खास तौर पर उस हाल में जबकि तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच शांति चर्चाओं के दौर जारी हैं.
अफगानिस्तान में आतंकवादी वारदातें फिर तेज हो गई हैं. सोमवार को काबुल विश्वविद्यालय परिसर में आत्मघाती हमले में दो दर्जन से अधिक छात्न-छात्नाएं मारे गए. इस पखवाड़े एक कोचिंग संस्थान पर भी ऐसा ही हमला हुआ था. उसमें चालीस से अधिक नौजवानों ने अपनी जान गंवाई थी.
पिछले साल भी इस परिसर के द्वार पर धमाके में आठ लोग मारे गए थे और उसके एक साल पहले भी काबुल विश्वविद्यालय पर हुए हमले में तीस से अधिक लोग मारे गए थे. अफगानिस्तान में आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रमों का विरोध खुद वहां के नागरिकों के लिए पहेली है. खास तौर पर उस हाल में जबकि तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच शांति चर्चाओं के दौर जारी हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने दूसरे चुनाव से पहले अपने सैनिकों को वापस बुलाना चाहते हैं. यह उनका पिछला चुनावी वादा है. जैसे ही शांति-प्रक्रि या आगे बढ़ती है, कोई न कोई बड़ी वारदात हो जाती है. तालिबान काबुल यूनिवर्सिटी में इस खूनी खेल में अपना हाथ नहीं होने की सफाई दे चुके हैं.
सवाल यह उठता है कि कभी बौद्ध धर्म और अहिंसा को मानने वाले इस सुंदर पहाड़ी देश में आखिर कौन ऐसा है, जो वहां अमन-चैन स्थापित होते नहीं देखना चाहता. कौन सा उग्रवादी गुट ऐसा है, जो यह चाहता है कि अमेरिका वहां उलझा रहे. पिछली बार जब काबुल विश्वविद्यालय में हमला हुआ था तो आईएस ने जिम्मेदारी ली थी. इस बार वह भी खामोश है. उसकी ओर से अभी तक कोई बयान नहीं आया है. तो इस बार हिंसक वारदातों के पीछे किसका स्वार्थ है, इस पेंच को समझने के लिए तालिबान के अंदरूनी सियासी समीकरणों को समझना आवश्यक है.
दरअसल अमेरिका ने न्यूयॉर्क में भीषण आतंकवादी हमले के बाद अलकायदा के खिलाफ जंग का ऐलान किया था. इसके बाद पाकिस्तान में इस चरमपंथी संगठन का सरगना ओसामा बिन लादेन मारा गया. पाकिस्तान की फौज अरसे तक उसे अपना संरक्षण देती रही थी. पाकिस्तानी सेना और तालिबान का गठजोड़ छिपा नहीं है.
इस नाते लंबे समय तक तालिबान अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो सैनिकों से जंग छेड़े रहे हैं. ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद तालिबान के भीतर अलकायदा का भी एक बड़ा समूह मिल गया और अमेरिकी सेना से मोर्चा लेता रहा. इसी बीच अमेरिका ने अपनी नीति बदली और अफगानिस्तान की झंझट से अपने सैनिकों को बचाने के लिए तालिबान से सीधे बातचीत शुरू कर दी.
पाकिस्तान इसमें मध्यस्थ बना. पाकिस्तान एक तीर से दो निशाने साध रहा है. वह सोचता है कि एक तो अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता कायम हो जाएगी और वहां भारत की भूमिका कमजोर हो जाएगी. दूसरा यह कि भारत और अमेरिकी संबंधों में वह दरार डाल सकेगा. वर्तमान दौर भारत और अमेरिका के रिश्तों का श्रेष्ठतम रूप है. लेकिन अमेरिका तालिबान से संधि के लिए चुपचाप पाकिस्तान की सहायता ले रहा है. यह समझौता कामयाब होता है तो पाकिस्तान और अमेरिका के एक बार फिर निकट आने की संभावना बढ़ जाती है.
तालिबान और अमेरिका की चर्चाओं से उसके भीतर सक्रिय अलकायदा के लड़ाके प्रसन्न नहीं हैं. वे किसी भी कीमत पर अमेरिका से तालिबान का समझौता नहीं चाहते. उनके लिए अभी भी अमेरिका एक नंबर का दुश्मन है. आपको याद होगा कि बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी ने मीडिया से कहा था कि तालिबान के भीतर अभी भी एक गुट ताकतवर है. उसे तालिबान समझौते की टेबल पर नहीं ला सका है.
इसके बाद जब दोहा में तालिबान और अमेरिका की चर्चाएं प्रारंभ हुईं तो तालिबान ने वादा किया कि वह अलकायदा से सारे रिश्ते समाप्त कर लेगा और उसे कमजोर करने में अमेरिका की सहायता भी करेगा. तालिबान 19 साल पहले की स्थिति में लौटना चाहते हैं, जब उनके इशारे के बिना अफगानिस्तान में पत्ता भी नहीं खड़कता था.
अब अगर अलकायदा हथियार डालने के लिए तैयार नहीं होता तो उसके पीछे मंशा यही है कि वह चाहता है कि अमेरिका और तालिबान के बीच रिश्तों में तनाव बना रहे. इस कारण वह मुल्क में तेजी से आतंकवादी वारदातें कर रहा है, जिससे अमेरिका यह समझ ले कि केवल तालिबान से बात करके वह अफगानिस्तान में अमन-चैन कायम नहीं कर सकता. जानकारों के मुताबिक अलकायदा के ये लड़ाके एक अन्य खूंखार आतंकवादी समूह आईएस के संपर्क में हैं. अगर इन दोनों समूहों का आंतरिक गठजोड़ हो गया तो तालिबान के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है.
पाकिस्तान की फौज इस मामले में बंटी हुई है. आला अफसर तालिबान को समर्थन देते नजर आते हैं तो बीच की कमान और निचले स्तर से अलकायदा को भरपूर समर्थन मिल रहा है. यह लोग वर्तमान प्रधानमंत्नी इमरान खान को भी पसंद नहीं करते. इसलिए एक तरफअलकायदा अफगानिस्तान में हमले कर रहा है तो दूसरी ओर पाकिस्तान में चल रहे विपक्षी आंदोलन के प्रति भी सहानुभूति रखता है.
अफगानिस्तान का यह दुर्भाग्य है कि दशकों से वह परदेसी ताकतों के लिए खेल का मैदान बना हुआ है. उसकी प्रगति और विकास की रफ्तार जैसे ही गति पकड़ती है कि आतंकवाद सिर उठाने लगता है. वहां निर्वाचित सरकार और लोकतंत्न की मजबूती भारत के हित में है लेकिन पाकिस्तान और तालिबान जम्हूरियत के खिलाफ हैं. इन समीकरणों के चलते अफगानिस्तान में सामान्य स्थिति बहाल होने के फिलहाल कोई संकेत नहीं मिलते.