डॉ. एसएस मंठा का ब्लॉगः सोशल मीडिया के खतरों की न करें उपेक्षा
By डॉ एसएस मंठा | Published: February 16, 2019 09:18 AM2019-02-16T09:18:45+5:302019-02-16T09:18:45+5:30
इसमें कोई दो राय नहीं कि मोबाइल हमारे जीवन में बहुत बदलाव लाया है. लेकिन इससे वास्तविक दुनिया में जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई जल्दी नहीं हो सकती.
वर्तमान समय में सोशल मीडिया ने हमारे जीवन को गहराई से प्रभावित किया है, चाहे वह इंस्टाग्राम के रूप में हो, ट्विटर, लिंक्डइन या फिर सर्वव्यापी फेसबुक या किसी अन्य रूप में. वास्तव में वे हमारे जीवन को इस तरह से बदल रहे हैं जैसा पहले कभी नहीं हुआ था. वे हमारे अतीत को याद रख सकते हैं, हम पर निगरानी रख सकते हैं.
सोशल मीडिया ने हमारे जीवन पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाला है, जिससे हमारे कौशलहीन और निर्णयहीन बनने का खतरा पैदा हो गया है. हमारा मोबाइल अगर गुम हो जाए तो हमें शायद ही इतने नंबर याद रहते हैं कि हम पत्नी या बच्चों तक से किसी दूसरे फोन से बात कर सकें. निरंतर इस्तेमाल करने वाले अपने विभिन्न खातों के पिन तक हम कई बार भूल जाते हैं. कहीं यह भविष्य में हमारे मानसिक रूप से दुर्बल होते जाने का सूचक तो नहीं!
क्या हम अपने फोन का इस्तेमाल सिर्फ जरूरी कामों के लिए ही करते हैं? जो निजी बातें हम कभी किसी के सामने साझा नहीं करते, उन्हें भी फेसबुक में बिना कुछ सोचे डाल देते हैं. इसकी तुलना में क्या हम ऑनलाइन किताबें पढ़ने और अपने जीवन को सुगम बनाने वाले तकनीकी ज्ञान को सीखने के लिए भी समय खर्च करते हैं?
जब हम फोन पर किसी से बात करते हैं तो क्या अपने साथ मौजूद व्यक्ति को नजरंदाज नहीं कर देते हैं? मोबाइल मानो दूसरों की उपेक्षा का साधन बन गया है. इससे संबंध टूटते हैं. किसी से बात करते समय मोबाइल की घंटी बजी नहीं कि हम बात अधूरी छोड़कर फोन उठा लेते हैं. कम्प्यूटर पर वीडियो गेम खेलते वक्त हमें समय का भान नहीं रहता. घर में परिवार के साथ खाना खाते समय भी हम मोबाइल में आने वाले मैसेज देखने में व्यस्त रहते हैं. ‘समय बदल गया है’ कहकर क्या हमें इन बातों की उपेक्षा कर देनी चाहिए?
इसमें कोई दो राय नहीं कि मोबाइल हमारे जीवन में बहुत बदलाव लाया है. लेकिन इससे वास्तविक दुनिया में जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई जल्दी नहीं हो सकती. सामाजिक संबंध निर्मित करने में समय लगता है. आज हम मिलकर एक जगह बैठते भी हैं तो अलग-अलग अपने फोन में व्यस्त रहते हैं. ऐसे में परस्पर भावनात्मक संबंधों का निर्माण कैसे होगा? प्रोफेसर मेरेडिथ डेविड और प्रोफेसर जेम्स रॉबर्ट्स ने इस बारे में अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला है कि ‘‘सेलफोन ने हमें जीवंतता से वंचित कर दिया है!’’
वैज्ञानिक पत्रकार कैथरीन प्राइस ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल करते समय हमारा मन सतत विचलित अवस्था में रहता है और उसका दीर्घकालिक असर होता है. ऐसी परिस्थिति में क्या हम सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर अंकुश लगा सकते हैं? या इसके इस्तेमाल का समय सीमित कर सकते हैं? भावी पीढ़ी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपने लिए ऐसा नियम बनाना हमारा कर्तव्य है.