नरेंद्र कौर छाबड़ा का ब्लॉग: धर्म-संस्कृति का मेल है बैसाखी पर्व
By नरेंद्र कौर छाबड़ा | Published: April 13, 2020 12:14 PM2020-04-13T12:14:29+5:302020-04-13T12:14:29+5:30
इसी दिन सिखों के दसवें गुरुगुरुगोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. प्रकृति का नियम है जब किसी जुल्म, अत्याचार, अन्याय की पराकाष्ठा होती है तो उसे हल करने के लिए कोई कारण भी बन जाता है. जब मुगल शासक औरंगजेब द्वारा अत्याचार, अन्याय की हर सीमा लांघ श्री गुरु तेगबहादुर जी को दिल्ली में चांदनी चौक पर शहीद कर दिया गया, तब गुरुगोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को संगठित कर खालसा पंथ की स्थापना की.
बैसाखी नाम वैशाख से बना है. पंजाब और हरियाणा में किसान रबी की फसल काट लेने के बाद नए साल की खुशियां मनाते हैं. इसलिए पंजाब और आसपास के प्रदेशों का यह सबसे बड़ा त्यौहार है. इस दिन शाम के वक्त आग के आसपास इकट्ठे होकर लोग नई फसल की खुशियां मनाते हैं. युवक-युवतियां भांगड़ा व गिद्दा के पारंपरिक लोकनृत्य द्वारा अपनी खुशी, हर्ष, आनंद का इजहार करते हैं. प्रकृति का, प्रभु का धन्यवाद करते हुए नाचते हैं. साथ ही अनाज की पूजा करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि उनके घरों में धन-धान्य की कभी भी किसी तरह की कोई कमी न हो. प्रकृति को धन्यवाद देने वाला यह इकलौता पर्व अक्सर 13 अप्रैल को आता है. 5-7 वर्षो में कभी 14 अप्रैल को आता है.
इसी दिन सिखों के दसवें गुरुगुरुगोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. प्रकृति का नियम है जब किसी जुल्म, अत्याचार, अन्याय की पराकाष्ठा होती है तो उसे हल करने के लिए कोई कारण भी बन जाता है. जब मुगल शासक औरंगजेब द्वारा अत्याचार, अन्याय की हर सीमा लांघ श्री गुरु तेगबहादुर जी को दिल्ली में चांदनी चौक पर शहीद कर दिया गया, तब गुरुगोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को संगठित कर खालसा पंथ की स्थापना की. पुराने रीति-रिवाजों से ग्रसित कमजोर, साहसहीन, निर्बल हो चुके लोग मानसिक गुलामी के कारण कायर हो चुके थे. निम्न जाति के लोग जिन्हें समाज में तुच्छ समझा जाता था, उन्हें गुरुजी ने अमृतपान कराकर सिंह बना दिया.
सन् 1699 बैसाखी के दिन गुरुजी ने प्रात: शब्द कीर्तन के पश्चात दरबार में तलवार लेकर संगत को संबोधित करते हुए कहा- ‘कोई है सिख बेटा जो करे सीस भेटा’. पंडाल में सन्नाटा छा गया, तब भाई दयाराम (लाहौर निवासी खत्री) ने खड़े होकर गुरुजी से कहा- ‘मेरा मुझमें किछ नहीं जो किछ है सो तेरा, तेरा तुझको सौंपते क्या लागे मेरा’. इसके पश्चात भाई धर्मचंद (दिल्ली का जाट), मोहकमचंद (द्वारका का धोबी), हिम्मतराव (जगन्नाथपुरी का कहार) तथा साहबचंद (नाई) आगे आए.
गुरुजी उन सबको पंडाल के भीतर ले गए. कुछ देर बाद जब वे बाहर आए तो उनके साथ पांच सिख थे, जिन्होंने अपने शीश दिये अर्थात स्वयं को गुरु चरणों में अर्पण कर दिया था. सबने एक जैसी वर्दी पहनी हुई थी. प्रत्येक की कमर में तलवार थी. गुरुजी ने उन्हें पंज प्यारे की उपाधि दी. फिर उन्होंने लोहे का बाटा (बड़ा प्याला) मंगवाया. उसमें स्वच्छ जल व कुछ बताशे डाले. इसके पश्चात पांच वाणियों के पाठ करके अमृत तैयार किया. पहले पांचों सिखों को अमृतपान कराया, फिर स्वयं उनसे अमृतपान किया. इस प्रकार गुरु होकर भी शिष्य बनने का नया उदाहरण पेश किया. प्रत्येक सिख के नाम के साथ सिंह तथा महिलाओं के नाम के साथ कौर का उच्चरण अनिवार्य कर दिया.
बैसाखी के अवसर पर कई हिस्सों में मेले आयोजित किए जाते हैं. केरल में यह त्यौहार विशु कहलाता है, वहीं असम में बोहाग बिहू, बंगाल में पाहेला बैसाख तथा उत्तराखंड में बिखोती महोत्सव के रूप में मनाया जाता है.