रामराज्य से अपनाए जा सकते हैं सुशासन के गुण, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग
By गिरीश्वर मिश्र | Published: April 21, 2021 01:38 PM2021-04-21T13:38:23+5:302021-04-21T13:39:34+5:30
समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च पदस्थ और संभ्रांत कहे जाने वाले लोगों का आचरण जिस तरह संदेह और विवाद के घेरे में आ रहा है, वह भारतीय समाज के लिए घातक साबित हो रहा है.
आज सामाजिक जीवन की बढ़ती जटिलता और चुनौती को देखते हुए श्रीराम बहुत याद आ रहे हैं जो प्रजा वत्सल तो थे ही, अपने निष्कपट आचरण द्वारा पग-पग पर नैतिकता के मानदंड स्थापित करते चलते थे और सत्य की स्थापना के लिए बड़ी से बड़ी परीक्षा के लिए तैयार रहते थे. लोक का आराधन तथा प्रजा का सुख उनके लिए सर्वोपरि था परंतु आज राजा और प्रजा दोनों संकट के दौर से गुजर रहे हैं.
आज के समाज में रिश्तों में दरार, कर्तव्य से स्खलन, मिथ्यावाद, अन्याय और भेदभाव के साथ नैतिक मानदंडों से विमुखता के मामले जिस तरह बढ़ रहे हैं, वह चिंताजनक स्तर पर पहुंच रहा है. विशेष रूप से समाज के विभिन्न क्षेत्नों में उच्च पदस्थ और संभ्रांत कहे जाने वाले लोगों का आचरण जिस तरह संदेह और विवाद के घेरे में आ रहा है, वह भारतीय समाज के लिए घातक साबित हो रहा है.
यह स्थिति इसलिए भी नाजुक हो रही है क्योंकि यहां ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’ का आदर्श मानते हुए सामान्य जनों द्वारा बड़े लोगों का अनुकरण बड़ा स्वाभाविक और उचित माना गया है क्योंकि वे आदर्श माने जाते हैं. यहां तो पढ़े-लिखे लोग भी देखी-देखा पाप-पुण्य करते हैं.
इसीलिए शायद उपनिषद् में गुरु शिष्य को ‘आचार्य देवो भव’ का उपदेश देते हुए यह हिदायत भी देता चलता था कि ‘सिर्फ हमारे अच्छे कार्यो को ही अपनाओ, बाकी को नहीं’. परंतु आज नैतिकता हाशिये पर धकेली जा रही है और माननीय लोगों के (सामाजिक!) जीवन की वरीयताएं भी निजी और क्षुद्र स्वार्थ के इर्द-गिर्द ही मंडराती दिखती हैं. न्याय की पेचीदा व्यवस्था में इतने पेंच होते हैं कि अपराधी को खूब अवसर मिलते हैं और न्याय होने में अधिक विलंब होता है. इसी तरह आपसी सौहार्द और सहिष्णुता की जगह अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी विकारग्रस्त मानसिकता को व्यक्त करती है.
धरती पर भगवान के अवतार का अवसर सृष्टि-क्रम में आई विसंगति और असंतुलन को दूर करने के लिए पैदा होता है. रामावतार भी इसी पृष्ठभूमि में ग्रहण किया जाता है जो अंतत: राक्षसराज रावण के विनाश और रामराज्य की स्थापना को रूपायित करता है. राम को अनेक तरह से देखा जाता है और बहस चलती रहती है कि वे इतिहास पुरुष हैं या ईश्वर हैं, सगुण हैं या निर्गुण हैं, पर जो राम सबके मन में बसे हैं और जिस राम नाम को भजना बहुतों के लिए श्वास-प्रश्वास तुल्य है, उनको प्रति वर्ष चैत महीने की नवमी को जीवन में उतार कर लोग कृत-कृत्य होते हैं.
राम का स्मरण भारतीय इतिहास, काव्य, कला, संगीत आदि में जीवित है और संस्कृति का अभिन्न अंग बन चुका है. राम का रस अनपढ़, गंवार, सुशिक्षित सभी को भिगोता रहता है. हमारे सामने राम को उत्कृष्ट जीवन में अपेक्षित सात्विक प्रवृत्तियों के पुंज के रूप में वाल्मीकि रामायण, गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस और देश की लगभग सभी भाषाओं में उपलब्ध विभिन्न राकथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है. इनका गायन और लीला का मंचन भी शहर, कस्बों और गांवों में होता रहता है. कई कथा वाचकों ने राम कथा के विशिष्ट रूप भी विकसित किए हैं जिनको सुन कर लोग भावविभोर हो जाते हैं.
प्रजा वत्सल राम सबको आश्वासन देते हैं और सबके लिए सुलभ हैं. राम कथा ने जन मानस में सुशासन की झांकी बैठा दी है जिसमें राजा के चरित्न और चर्या का एक आदर्श रूप गढ़ा गया है. श्रीराम का यह आदर्श राज्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी भा गया था. नैतिकता और धर्म की प्रधानता ने उनको बहुत प्रभावित किया था. रामराज्य का स्वप्न जिन मूल्यों पर टिका हुआ है उनमें सत्य, शील, विवेक, दया, समता, वैराग्य, संतोष, दान, अहिंसा, दम, विवेक, क्षमा, बल, बुद्धि, शौर्य और धैर्य के मूल्य प्रमुख हैं. इन्हीं से धर्म रथ बनता है.
तभी दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से छुटकारा मिलता है. राम राज्य में सभी परस्पर प्रेम भाव से रहते हैं और स्वधर्म का आचरण करते हैं. उल्लेखनीय है कि श्री राम इस सुशासन के लिए लंबी साधना और कठोर दीक्षा से गुजरे थे. वन में भटके थे, अति सामान्य कोल, किरात, निषाद, वानर आदि के सुख दु:ख के सहभागी हुए, और जाने कितनी तरह की पीड़ाओं को झेला.
वे प्रतापी परंतु अहंकारी और विवेकहीन रावण को परास्त करते हैं. राम देश, काल और समाज से जुड़ते चलते हैं और कर्म के जीवन को प्रतिष्ठापित करते हैं. मनुष्य का जन्म दुर्लभ है जो ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा’ है. उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने स्वराज, सर्वोदय, समता, समानता वाले जिस भारतीय समाज का स्वप्न देखा था, उसके लिए प्रेरणा ही नहीं, आधार रूप में उन्होंने सत्य रूपी ईश्वर को प्रतिष्ठित किया था और राम नाम उनके जीवन का अभिन्न अंग बना रहा. राम धुन उनकी दैनिक प्रार्थना में सम्मिलित था. अधर्म, पाप, अनीति के विरुद्ध वे सदैव खड़े रहे.
उनके राम परमेष्ठी थे, शाश्वत और सार्वभौम. राम सगुण-निर्गुण सभी रूपों में सबके लिए हैं, उपलब्ध हैं और सर्वव्यापी होने से उनकी उपस्थिति की अनुभूति के लिए आस्था चाहिए. करुणासागर और दीनबंधु श्रीराम का ध्यान और विचार का आशय है नैतिकता के बोध का विकास.आज के बेहद कठिन होते समय में राम का स्मरण निश्चय ही मंगलकारी होगा.