चित्तरंजन मिश्र का ब्लॉग: विद्यानिवास मिश्र- इतिहास की भारतीय दृष्टि के साधक
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: January 14, 2021 12:37 PM2021-01-14T12:37:42+5:302021-01-14T13:32:25+5:30
"पंडितजी इतिहास की भारतीय दृष्टि को भी स्पष्ट करते हैं. उनका मानना है कि इतिहास शब्द हिस्ट्री के अर्थ से विशिष्ट और अलग अर्थ रखता है."
औपनिवेशिक काल में अनेक आग्रहों दुराग्रहों एवं कुटिल साजिशों से निर्मित ‘ज्ञानकांड’ के समानांतर समग्र भारतीय दृष्टि के विकास के लिए जिन साधकों ने अनवरत सोचा, लिखा, पढ़ा और अथक उद्यम किया उनमें विद्यानिवास मिश्र का नाम आदर से लिया जाता है. इस आदर के मूल में उनकी वह विराट सृजनशीलता और वैचारिकता है जो लोक और शास्त्र को, देश और काल को, ज्ञान और कर्म को, तत्समता और तद्भवता को, रीति और रस को, सहृदयता और विेषणात्मकता को एक दूसरे के विरुद्ध नहीं खड़ी करती है, बल्कि एक दूसरे के लिए कभी आश्रयधर्म बनती है तो कभी आलंबनत्व के निर्वाह के लिए आकुल-व्याकुल रहती है. आज वैश्वीकरण के हड़बोंग में फंसे समाज के बीच यह कहना भी आवश्यक है कि यही भारतीय दृष्टि सच्ची वैश्विकता को समझती समझाती है, क्योंकि इसमें मनुष्य मात्र की नहीं, प्राणि मात्र की बल्कि इससे भी आगे बढ़कर समूची सृष्टि की रक्षा की चिंता है.
मनुष्य, मनुष्यता और सृष्टि की वह सृजनशीलता जो आत्म का विस्तार करती है सबमें अपने को, अपने में सबको देखती है वह भारतीयता की वैश्विकता है जिसके व्याख्याता और पुरस्कर्ता पं. विद्यानिवास मिश्र हैं, अपने लेखन में भी और अपने समूचे व्यवहार में भी. व्यवहार वह नहीं होता जिसे हम अपनों से बरतते हैं, वह होता है, जो हम दूसरों से बरतते हैं. भारत में इसकी ऋषि परंपरा शताब्दियों से है, इसके आधुनिक रूप हैं-स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया और विद्यानिवास मिश्र जिन्हें अपनी परंपरा पर गर्व है पर वे उससे आक्रांत नहीं हैं, जो अपने समय तक की दुनिया की गति प्रगति को पहचानते हैं, पर उसे अपनी धरती और संस्कृति के संदर्भ में परखे बिना उसमें अपने को विलीन नहीं कर लेते हैं न एकमात्र उसे ही आत्मोद्धार का रास्ता मानते हैं.
पंडितजी इतिहास की भारतीय दृष्टि को भी स्पष्ट करते हैं. उनका मानना है कि इतिहास शब्द हिस्ट्री के अर्थ से विशिष्ट और अलग अर्थ रखता है. व्यास ने महाभारत को इतिहास कहा है-वह हिस्ट्री नहीं है-व्यास का इतिहास ‘ऐसा रहा है’ का अर्थ देने वाला है, ‘ऐसा था’ के अर्थ से सर्वथा भिन्न. इसलिए वे महाभारत को भूतकाल की घटना का विवरण मात्र नहीं मानते हैं उनका मानना है कि वह घटना के विवरण के बहाने मानव धर्म की शाश्वत अभिव्यंजना है. अपनी बात की प्रामाणिकता के लिए वे इतिहास शब्द के मूल धातु रूप तक जाते हैं और एक चिंतक मनीषी वैयाकरण के रूप में इस व्याख्या को भारतीय चिंतन परंपरा से भी जोड़ते हैं.
एक विश्वदृष्टिसंपन्न विचारक की निगाह मात्र आंतरिक समस्याओं पर ही नहीं होती है, वह दुनिया के देशों द्वारा अपने देश के साथ बरते जाने वाले आचरण को भी गंभीर विेषण का विषय बनाता है. विद्यानिवास मिश्र में अपने समकालीन जीवन संदर्भो में कराहते हांफते आदमी की पीड़ा और उसकी भावी नियति को पहचानने का विवेक भी है और उससे उबरने का यह दृढ़ विश्वास भी है कि हम अपनी परंपरा के सच्चे (कच्चे नहीं) उत्तराधिकारी और वाहक बनकर ही देश और मनुष्य जाति के भावी जीवन-मार्ग को सहज सुखद बना सकते हैं. वे मात्र यथार्थ के अरण्य-रोदन के रचनाकार नहीं बल्कि उसके कारणों को समझने का विवेक विकसित करनेवाले चिंतक भी हैं.