विजय दर्डा का ब्लॉग: राज्यसभा में गुलाम नबी आजाद और पीएम मोदी का संबोधन संसदीय परिपक्वता की बड़ी नजीर
By विजय दर्डा | Published: February 15, 2021 09:55 AM2021-02-15T09:55:49+5:302021-02-15T09:55:49+5:30
गुलाम नबी आजाद ऐसे नेता हैं जिन्हें पूरे देश के लोग आदर और सम्मान के साथ देखते हैं. उनकी शख्सियत है ही ऐसी कि राज्य सभा से उन्हें विदाई देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भावुक हो गए.
राज्यसभा से विदा होते हुए गुलाम नबी आजाद का संबोधन दलगत राजनीति से बिल्कुल अलग था. इसमें कोई संदेह नहीं कि वह संबोधन गर्व से भरे एक हिंदुस्तानी का था.
उनकी शख्सियत है ही ऐसी कि उन्हें विदाई देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भावुक हो गए. उनकी आंखें छलक आईं. मौजूदा राजनीति को स्नेह की ऐसी डोर की बहुत जरूरत है.
गुलाम नबी आजाद से मेरी निकटता कोई तीन दशक पुरानी है और इस निकटता का सबसे बड़ा कारण उनकी शख्सियत तो है ही, देश के प्रति उनके मन में विकास की जो धारा बहती है, वह भी एक बड़ा कारण है.
गुलाम नबी आजाद का स्वर हमेशा आजाद रहा
जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य से राजनीति का ककहरा पढ़ने वाले गुलाम नबी आजाद एकमात्र ऐसे नेता हैं जिन्हें पूरे देश के लोग आदर और सम्मान के साथ देखते हैं. यही कारण है कि वे देश के विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं.
उन्होंने यवतमाल-वाशिम संसदीय क्षेत्र का भी प्रतिनिधित्व किया है. दरअसल इंदिरा जी ने उन्हें मेरे बाबूजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहरलाल जी दर्डा को सौंपा था कि इन्हें संसद में लाना है. बाबूजी ने इंदिरा जी की उम्मीदों को पूरा भी किया. यही हिंदुस्तान की खूबसूरती है कि भाषा, धर्म या कोई और भिन्नता यहां मायने नहीं रखती.
कश्मीर में राजनीति करने वाले ज्यादातर नेताओं के स्वर डगमगाते रहते हैं लेकिन आजाद का स्वर हमेशा ही आजाद रहा. उन्होंने हर मौके पर आतंकवादियों का विरोध किया और कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा पर उनके आंसू कभी रुके नहीं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सही कहा कि उनकी जगह जो व्यक्ति नेता प्रतिपक्ष का पद संभालेगा, उसे गुलाम नबी जी से मैच करने में बहुत दिक्कत होगी. मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि गुलाम नबी आजाद जैसा कोई और हो ही नहीं सकता!
राज्यसभा में उनके साथ मेरा लंबा कार्यकाल रहा है. उन्हें बड़ी गहराई से मैं समझता हूं. उनके दिल में कश्मीर के साथ पूरा हिंदुस्तान बसता है. दिल्ली में उनका सरकारी आवास विभिन्न तरह के फूलों की खुशबू से महकता रहा है. उसमें कश्मीर का ट्यूलिप भी है और पूरे देश से जुटाए गए रंग-बिरंगे पौधे भी हैं.
गुलाम नबी ने राजनीति के लिए कभी धर्म का इस्तेमाल नहीं किया
बागवानी के नजरिये से देखें तो उनका बंगला पूरे हिंदुस्तान की तस्वीर पेश करता है. जब भी उनसे बातचीत का मौका मिला तो मैंने महसूस किया कि उनका दिल केवल इस देश की बेहतरी के लिए धड़कता है. अपने संबोधन में उन्होंने बड़े गर्व के साथ कहा भी कि वे खुद को खुशकिस्मत समझते हैं कि वे कभी पाकिस्तान नहीं गए. उन्हें भारतीय मुसलमान होने पर गर्व है.
दरअसल गुलाम नबी आजाद उन गिने-चुने नेताओं में से हैं जिन्होंने राजनीति के लिए कभी धर्म का इस्तेमाल नहीं किया. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के अलावा वे पांच बार राज्यसभा और दो बार लोकसभा के लिए चुने गए. हर जगह उनका कार्यकाल बेहतरीन रहा.
वे दूसरे राजनीतिक दलों के नेताओं के हमेशा पसंदीदा रहे. लेकिन कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा पर कभी कोई परछाईं नहीं पड़ी. उन्होंने हर उस व्यक्ति को सराहा जिसने भारतीय राजनीति और संसदीय परंपरा को सुदृढ़ करने का प्रयास किया.
अपने विदाई संबोधन में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी का जिक्र किया कि कांग्रेस की अल्पमत सरकार में सदन चलाने में उन्होंने किस तरह सहयोग किया था. उन्होंने कहा- ‘कई मसलों का समाधान करना कैसे आसान होता है, ये अटल जी से सीखा था.’
यह स्वाभाविक था कि ऐसे गुलजार व्यक्तित्व वाले शख्स की विदाई के मौके पर हर कोई भावुक था. वैसे भी यह मौका होता ही ऐसा है. किसी भी सदस्य की विदाई का अवसर ऐसा होता है जैसे बेटी की विदाई हो रही हो.
पीएम मोदी और गुलाम नबी ने संसदीय परिपक्वता की नजीर पेश की
18 साल के संसदीय कार्यकाल के बाद विदाई के मौके पर मैंने इसे महसूस भी किया था. तब मुझे यह गम नहीं था कि फिर यहां आ पाऊंगा या नहीं! गम वहां के माहौल को मिस करने का था. एक परिवार की तरह माहौल होता है. संसद के भीतर भले ही नोक झोंक हो, होना भी चाहिए, लेकिन सेंट्रल हॉल में सब समरस रहते हैं.
गुलाम नबी आजाद की विदाई के मौके पर प्रधानमंत्री तो इतने भावुक हो गए कि उनके आंसू छलक आए. उन्होंने कुछ प्रसंग सुनाए और प्रतिउत्तर में गुलाम नबी आजाद ने आभार स्वरूप दोनों हाथ जोड़ लिए तो लगा कि स्नेह की एक डोर से दोनों बंधे हुए हैं.
सारे राजनीतिक मतभेद कहीं किनारे रह गए और संसदीय परिपक्वता की नजीर दोनों ने पेश कर दी. दिल में यही खयाल आया कि पूरी राजनीति में ऐसा ही प्रेम घुल जाए तो भारत को शिखर पर पहुंचने से कौन रोक सकता है?
मगर दुर्भाग्य यह है कि इन दिनों राजनीति को काली छाया ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है. एक-दूसरे की प्रशंसा तो कहीं सुनाई ही नहीं देती बल्कि एक-दूसरे को कीचड़ में लपेट देने की हरसंभव कोशिश की जाती है.
अब ताजा उदाहरण ही देखिए न! प्रधानमंत्री ने आजाद की तारीफ क्या की, यह सुरसुरी हवा में तैरने लगी कि गुलाम नबी आजाद कहीं भाजपा में तो नहीं जा रहे हैं? मैं जानता हूं कि यह सुरसुरी पूरी तरह बेबुनियाद है.
कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा पर कभी सवाल किए ही नहीं जा सकते हैं लेकिन आजकल की राजनीति है ही ऐसी जो सहजता से कोई भी सवाल खड़ा कर देती है. हम शायद उन पुराने दिनों को भूल गए जब हमारे देश की राजनीति दलगत भावनाओं से बहुत ऊपर हुआ करती थी.
युवा अटल बिहार वाजपेयी और जवाहरलाल नेहरू का प्रसंग याद करना जरूरी
लोग आज भी इस बात को याद करते हैं कि जब युवा अटल बिहारी वाजपेयी सदन में पहुंचे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा बोलने के लिए प्रेरित करने लगे. अब तो विपक्ष को कैसे चुप कराना है, इस बात पर व्यूह रचना होती है.
लोहिया जी और उन जैसे बहुत से लोग नेहरू के कट्टर आलोचक थे लेकिन नेहरूजी उनकी बात सुनते थे. वक्त के साथ वे सारी परंपराएं धूमिल होती चली गई हैं.
अब जरूरत इस बात की है कि राजनीति की शुचिता को फिर से स्थापित किया जाए. आखिर हर राजनीतिक दल का मुख्य एजेंडा आम आदमी की जिंदगी को सुगम बनाते हुए देश का विकास ही तो होता है. जब सबका एजेंडा एक है तो फिर एक-दूसरे के खिलाफ दुश्मनों जैसा व्यवहार क्यों?
इस देश का वोटर तो ऐसी किसी राजनीति को पसंद भी नहीं करता. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि राजनीतिक दल एक-दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार करें, भले ही उनकी विचारधारा अलग ही क्यों न हों. देश में प्रेम की रसधारा बहेगी तो दुनिया की कोई ताकत हमें नीचा नहीं दिखा सकती. हम सबका नारा एक ही है..जय हिंद!