भीड़तंत्र की बढ़ती बर्बरता खतरे की घंटी

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 19, 2018 03:28 AM2018-08-19T03:28:03+5:302018-08-19T03:28:03+5:30

जैसे किसानों की आत्महत्याएं अब कुल मिलाकर संख्या बनकर रह गई हैं, वैसे ही कभी गौरक्षा के नाम पर या फिर बच्चे उठा लिए जाने के अंदेशे में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार देने की घटनाएं भी अब हमें चौंकाती नहीं।

Rising boredom of the crowd | भीड़तंत्र की बढ़ती बर्बरता खतरे की घंटी

भीड़तंत्र की बढ़ती बर्बरता खतरे की घंटी

(लेखक-विश्वनाथ सचदेव)
 जैसे किसानों की आत्महत्याएं अब कुल मिलाकर संख्या बनकर रह गई हैं, वैसे ही कभी गौरक्षा के नाम पर या फिर बच्चे उठा लिए जाने के अंदेशे में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार देने की घटनाएं भी अब हमें चौंकाती नहीं। मीडिया में भी ऐसी घटनाओं को अब वह प्राथमिकता नहीं मिलती, जो कुछ अर्सा पहले तक मिलती थी। ऐसा क्यों होता है कि हम स्थिति की गंभीरता को हल्के में लेने लग जाते हैं? इस प्रश्न का एक जवाब उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक निर्णय सुनाते हुए दिया है।

भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार देने संबंधी एक याचिका पर दिए एक निर्णय में न्यायालय ने कहा है कि लगातार होती ‘हिंसा की घटनाओं में देश के कानून को डुबोने नहीं दिया जा सकता’। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात जो इस निर्णय में कही गई, वह यह है कि इस हिंसा को ‘नई सामान्य स्थिति’ नहीं बनने दिया जाएगा। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि आज देश में ऐसा बहुत कुछ लगातार घट रहा है जो पहले कभी कभार ही घटा करता था। जहां एक ओर यह स्थिति की भयावहता को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर किसी बात का ‘लगातार घटना’ उसे एक सामान्य स्थिति में बदल देता है। यह गंभीर स्थिति है। खतरनाक भी।

किसानों की आत्महत्या अथवा भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार दिए जाने जैसी घटनाएं जब ‘सामान्य बात’  लगने लगें तो इसका एक ही अर्थ निकलता है - जनता की संवेदनशीलता कम होती जा रही है और शासन अपने दायित्वों के प्रति उदासीन होता जा रहा है। संवेदनहीनता और जड़ता की यह स्थिति एक बड़े खतरे की घंटी है। इस घंटी की आवाज यदि हम आज नहीं सुनेंगे तो कल बहुत देर हो जाएगी। 

यह जो ‘नया सामान्य’ घटित हो रहा है, वह डरावना है। और हकीकत यह भी है कि देश की जनता का बड़ा हिस्सा इस डर का शिकार हो रहा है। इस बड़े हिस्से में दलित हैं, आदिवासी हैं, अल्पसंख्यक हैं, जो आज अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। सवाल किसी पहलू खान, रकबर खान का नहीं है, सवाल देश में पनपती उस प्रवृत्ति का है जिसके चलते कानून का शासन कमजोर पड़ता दिखने लगा है।

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जो यह बताते हैं कि देश की जनता का एक वर्ग अपने आप को कानून से ऊपर समझने लगा है। वह आश्वस्त है कि उसे शासन और व्यवस्था का संरक्षण मिलेगा। देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘मॉब लिंचिंग’ के आरोपियों का सजा से बच जाना और उन्हें संरक्षण देने में मंत्रियों तक का शामिल होना उस ‘असामान्य’ की ओर ही इशारा करता है, जो अब हमें ‘सामान्य’ लगने लगा है, नया सामान्य। 

ऐसा नहीं है कि भीड़-तंत्न की बर्बरता वाली घटनाएं पहले नहीं घटती थीं। पर अब, यानी पिछले कुछ वर्षो में, ऐसी घटनाएं ज्यादा घट रही हैं। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले आठ वर्षो में कुल मिलाकर 87 घटनाएं घटीं, जिनमें 97 प्रतिशत पिछले चार साल में घटी हैं। कारण कुछ भी रहे हों, लेकिन हकीकत यह है कि इस तरह की घटनाओं से पीड़ितों (पढ़िए अल्पसंख्यकों) में असंतोष से अधिक भय का वातावरण बन रहा है। जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष भारत में इस तरह का वातावरण बनना एक असामान्य स्थिति है, लेकिन दुर्भाग्य से, सामान्य लगने लगी है। इस स्थिति के लिए हमारी आज की राजनीति को भी कठघरे में खड़ा करना जरूरी है। सत्ता की राजनीति का जो दौर इस समय चल रहा है, वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में पहले सिद्धांतों की राजनीति होती थी, और अब नहीं होती। पहले भी हमारी राजनीति मुख्यत: सिद्धांतहीन ही होती थी, पर सिद्धांतहीनता का स्तर अब जितना नीचा पहले नहीं था। और भी बहुत कुछ बदल रहा है हमारी राजनीति में। मसलन, बौद्धिक समाज पहले भी राजनीति से कुछ दूर ही दिखता था, पर अब इस समाज को राजनीति से खारिज किया जा रहा है। स्थापित सत्ता का विरोध करने वाला हर व्यक्ति अब वामपंथी करार दिया जाता है और वाम की ओर झुकाव वाला हर व्यक्ति ‘छद्म बुद्धिजीवी’। कुछ अर्सा पहले जब कलबुर्गी और पानसरे और दाभोलकर जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या हुई थी, या फिर जब गौरी लंकेश जैसी पत्नकार को सत्ता का विरोध करने की ‘सजा’ दी गई थी, देश के कुछ बुद्धिजीवियों ने देश की साहित्य अकादमी जैसी संस्था की ‘निष्क्रियता’ के खिलाफ आवाज उठाई थी। साहित्य अकादमी द्वारा दिए गए सम्मान लौटाकर उन्होंने अपना क्षोभ व्यक्त किया था। दायित्व निभाने की बौद्धिकों की इस कार्रवाई को तब सरकार-विरोधी षड्यंत्न माना गया। ऐसे सब बुद्धिजीवियों को छद्म घोषित कर दिया गया जो साहित्य की मशाल वाली भूमिका में विश्वास करते हैं। निश्चित रूप से यह असामान्य स्थिति है, पर सामान्य लगने लगी है अब। राजनीति को अबौद्धिक बनाने-बताने का ऐसा माहौल शायद पहले कभी नहीं था। 

जनतंत्न हमारे लिए एक शासन-प्रणाली नहीं, हमारी आस्था है। जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि हम तर्क और विवेक के आधार पर अपने आप को संचालित करें। हमने अपने संविधान में लिखा है, ‘हम भारत के लोग’, लेकिन जिस तरह की प्रवृत्तियां आज समाज में पनप रही हैं, उन्हें देखते हुए हमारी यह मानसिकता अब ‘मैं भारत (कुछ) लोगों का’ में बदलती जा रही है। इसीलिए असामान्य सामान्य लगने लगा है। उच्चतम न्यायालय ने हिंसा के पनपते वातावरण के खिलाफ जो चेतावनी दी है, उसे सही और व्यापक अर्थो में समझने की आवश्यकता है। नए भारत में इस हिंसा और अविवेकी आचरण के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
 

Web Title: Rising boredom of the crowd

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