राजेश बादल का ब्लॉगः संक्रमण काल का सामना करती प्रादेशिक पार्टियां  

By राजेश बादल | Published: November 20, 2018 07:07 AM2018-11-20T07:07:46+5:302018-11-20T07:07:46+5:30

हर क्षेत्नीय दल अपने ही घर में संग्राम का शिकार है. कार्यकर्ता भ्रम में है. आम अवाम का नुकसान हो रहा है. किसी भी सभ्य प्रजातांत्रिक समाज के लिए यह अच्छा नहीं है.

Rajesh Badal's Blog: Regional parties facing the transition period | राजेश बादल का ब्लॉगः संक्रमण काल का सामना करती प्रादेशिक पार्टियां  

राजेश बादल का ब्लॉगः संक्रमण काल का सामना करती प्रादेशिक पार्टियां  

यह दिलचस्प किंतु दुखद है. हर साल कुछ विधानसभाओं के चुनाव होते हैं. राजनीतिक दल काम से ज्यादा चुनाव पर ध्यान दे रहे हैं. ऐसे में प्रादेशिक दलों के हाल बेहाल हैं. उन्हें नीतियों और काम के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए था, मगर उल्टा हो रहा है. हर क्षेत्नीय दल अपने ही घर में संग्राम का शिकार है. कार्यकर्ता भ्रम में है. आम अवाम का नुकसान हो रहा है. किसी भी सभ्य प्रजातांत्रिक समाज के लिए यह अच्छा नहीं है.

किसी जमाने में चौधरी चरण सिंह जैसे खांटी राजनेता के कारण लोकदल राष्ट्रीय पहचान के साथ उभरा था. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार और हरियाणा में इसकी धाक थी. आपातकाल के दौरान जनता पार्टी में विलय हुआ. जब जनता पार्टी टूटी तो लोकदल फिर सामने था. चरण सिंह के मॉडर्न बेटे अजित सिंह ने कमान संभाली तो ग्राफ गिरता ही गया. कभी एनडीए तो कभी यूपीए के साथ. इससे पहचान खो बैठा. 

उधर हरियाणा में भी देवीलाल ने लोकदल की मशाल जलाई. उनके वारिस ओम प्रकाश चौटाला ने भी पार्टी की चमक बरकरार रखी लेकिन उसूलों को खूंटी पर टांग दिया. यह अलग बात है कि चौटाला धमाकेदार बहुमत के साथ अपनी सरकार लेकर नई सदी में दाखिल हुए थे. लेकिन भ्रष्टाचार के चलते बेटे के साथ जेल गए. विडंबना है कि जिस बड़े बेटे अजय सिंह के साथ वे जेल में हैं, उसी को पार्टी से बाहर कर दिया. छोटे बेटे अभय सिंह के मोह ने ऐसे दिन दिखाए कि पार्टी के दो टुकड़े हो गए. अजय सिंह अब नौ दिसंबर को नई पार्टी का ऐलान करेंगे, जिसमें उनकी विधायक पत्नी नैनादेवी, सांसद बेटा दुष्यंत और छोटा बेटा दिग्विजय भी रहेंगे. 

कभी उत्तर भारत के किसानों की आवाज रही पार्टी आज अपनी आवाज घुटते देख रही है. लोकदल आज चार छोटे उप दलों में है. हरियाणा में तीन बार मुख्यमंत्नी रहे भजनलाल आयाराम गयाराम की राजनीति के सूत्नधार थे. वे जनता पार्टी तो कभी कांग्रेस में राहें बदलते रहे. कांग्रेस से खफा हुए तो हरियाणा जनहित कांग्रेस बनाई. उनके बाद बेटे कुलदीप विश्नोई ने कमान संभाली. पत्नी को उन्होंने विधायक तो बना दिया लेकिन पार्टी को आकार नहीं दे पाए. कभी भाजपा को समर्थन दिया तो कभी हरियाणा जनचेतना जैसी पार्टी से समझौता किया. इसके बाद भी नहीं संभली तो कांग्रेस में विलय कर दिया.

राजस्थान में किरोडीलाल मीणा पुराना नाम है. भाजपा से जुड़े थे. टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय लोकसभा में गए. बाद में फिर भाजपा में शामिल हो गए. इसके बाद 2013 में कांग्रेस से निकले पी.ए. संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी का दामन थाम लिया. पिछले चुनाव में वे चार सीटें जीतने में कामयाब रहे. इनमें दो सीटें उनकी और पत्नी गोलमादेवी की थीं. जब नेशनल पीपुल्स पार्टी जनाधार बढ़ाती दिख रही थी, तो किरोडीलाल फिर भाजपा में चले गए. इस दल ने जन्म लेते ही दम तोड़ दिया. राजस्थान में ही एक और क्षेत्नीय नेशनल यूनियनिस्ट जमींदारा पार्टी पिछले चुनाव में आई थी. गंगानगर से दो विधायक भी जीते, लेकिन इस बार यह लड़खड़ाई हुई है.  

मध्य प्रदेश में कभी दिग्गज अर्जुन सिंह ने नारायणदत्त तिवारी के साथ मिलकर अपनी पार्टी बनाई थी. उन्हीं दिनों माधवराव सिंधिया ने भी अपनी पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा था. इनका विस्तार होता, इससे पहले ही मूल पार्टी कांग्रेस में चली गई. आपको याद होगा तमिलनाडु में कांग्रेस के दिग्गज जी.के. मूपनार ने भी तमिल मनिला कांग्रेस बनाई थी. उसका विलय भी कांग्रेस में हो गया था. प्रदेश में ही भाजपा के कद्दावर नेता वीरेंद्र कुमार सखलेचा ने भी प्रादेशिक पार्टी बनाई थी. लेकिन यह कुछ न कर सकी. फायर ब्रांड नेता उमा भारती ने भाजपा से निष्कासन के बाद भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई थी. पहले ही चुनाव में 6 सीटें जीतकर धमाका किया था. 

अगर एक चुनाव और पार्टी लड़ जाती तो मध्य प्रदेश में तीसरी शक्ति बन सकती थी. लेकिन अपने हाथों ही उमा भारती ने दल दफन कर दिया. वर्तमान चुनाव में छत्तीसगढ़ में अजित जोगी की छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस किस्मत आजमा रही है. पहले पिता पुत्न ने ही इसे बनाया. पत्नी कांग्रेस की विधायक बनी रही. पुत्नवधू को बसपा से टिकट दिला दिया. जब पत्नी रेणु जोगी को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया तो अपने दल में भर्ती कर लिया. इसके बाद जोगी ने बीएसपी से हाथ मिला लिया. 

उनका यह दांव उल्टा भी पड़ सकता है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में परिवार की जंग ने पार्टी का बंटाढार किया. अब अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल ताल ठोंक कर भतीजे के सामने खड़े हैं. दो-तीन चुनाव से पार्टी उत्तर प्रदेश में आकार लेती दिखाई दे रही थी, लेकिन लड़ाई ने पार्टी और परिवार दोनों पर उल्टा असर डाला है. शिवपाल यादव ने समाजवादी सेक्युलर मोर्चा बनाने का ऐलान किया है. उन्होंने कहा है कि लोकसभा चुनाव में उनका मोर्चा 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगा. फिलहाल मोर्चा विस्तार करता तो नजर नहीं आ रहा मगर भाजपा के आला नेताओं से मुलाकातों ने सवाल खड़ा कर दिया है कि कहीं मोर्चे की भ्रूणहत्या न हो जाए. उपमुख्यमंत्नी केशव प्रसाद मौर्य ने शिवपाल को मोर्चे के भाजपा में विलय का प्रस्ताव दिया है.

दरअसल प्रादेशिक पार्टियां हताश और चुनाव से अलग कर दिए गए राजनेताओं के कारण लोकतंत्न की मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित हो जाती हैं. दोनों बड़े दलों का आकार इस विराट देश के अनुपात में छोटा है. भाजपा उतनी बड़ी नहीं हो पाई और कांग्रेस बौनी होती गई. ऐसे में तीसरी शक्ति के तौर पर प्रादेशिक दलों से ही आस है. अफसोस! ये दल भी भाजपा और कांग्रेस के राजरोगों का शिकार हो जाते हैं. लोकतंत्न के इन क्षेत्नीय शक्तिपुंजों को अपने अंधकार-युग से बाहर आना होगा. 

Web Title: Rajesh Badal's Blog: Regional parties facing the transition period

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