राजेश बादल का ब्लॉग: अंधी सुरंग में भटक रहे राजनीतिक दल
By राजेश बादल | Published: January 22, 2019 10:48 AM2019-01-22T10:48:35+5:302019-01-22T10:48:35+5:30
पार्टी के सत्ता में होने का फायदा अक्सर ऐसे आयोजनों को मिलता है. सत्ताधारी गठबंधन भी इस लिहाज से कुछ स्वाभाविक प्रश्न खड़े करता है.
घनघोर कुहासा छाया है. स्वतंत्न होने के बाद भारत का राजनीतिक परिदृश्य कभी इतना मटमैला नहीं हुआ. राजनीति के स्तर में इतनी गिरावट शायद ही आजादी के बाद कभी देखी गई. राजनीतिक पार्टियों की विचारधारा का आधार खिसक गया है. गठबंधनों का नैतिक धर्म नहीं बचा. सियासत सेवा का जरिया नहीं रही. विपक्षी गठबंधन में शामिल पार्टियां देशद्रोही और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी बताई जाती हैं. जब उनमें से कोई पार्टी छिटककर सत्ता गठबंधन में शामिल होती है तो जैसे गंगा नहाकर पवित्न हो जाती है. दूसरी तरफ कोई दल सत्ता गठबंधन छोड़ता है तो वह ब्रrांड की सबसे निकृष्ट पार्टी बताई जाने लगती है.
लोकसभा चुनाव से पहले दोनों गठबंधनों की शक्लें कुछ ऐसी ही हैं. कोलकाता की महापंचायत में ममता की हुंकार का असर तो भरपूर हुआ मगर कुछ सवाल भी अपने पीछे छोड़ गया.
पार्टी के सत्ता में होने का फायदा अक्सर ऐसे आयोजनों को मिलता है. सत्ताधारी गठबंधन भी इस लिहाज से कुछ स्वाभाविक प्रश्न खड़े करता है. दो हजार चौदह के बाद से उसके गठबंधन में शामिल मित्न दलों की संख्या सिकुड़ने की आखिर क्या वजह है ?
दरअसल इन क्षेत्नीय पार्टियों के स्वयंभू राजाओं ने अपने दलों में बैठकर प्रजातांत्रिक तरीके से विचारधारा पर चर्चा करना और गठबंधन में शामिल होने से पूर्व चर्चा की परंपरा का गला ही घोंट दिया है.
यह पार्टियां राष्ट्रीय दलों पर निरंकुशता और असहिष्णुता को बढ़ावा देने का आरोप लगाती हैं, मगर उनके अपने भीतर भी तो वही सब चल रहा है. नीतीश कुमार समाज के जिस वर्ग के समर्थन से बिहार की गद्दी पर बैठे थे, उन्होंने पाला बदलने से पहले क्या अपने कार्यकर्ताओं को भरोसे में लिया था? यही हाल चंद्रबाबू नायडू ने किया. एकदम बारीक और महीन राजनीतिक दल सीटों के बंटवारे को लेकर बड़े दलों को आंखें दिखा रहे हैं यह एक तरह से नकारात्मक राजनीति है. इन दलों को अपने बूते पर जीतने का भरोसा नहीं है. इन दलों को राष्ट्रीय आकार का पजामा पहनने से किसने रोका था ? क्या कोई बता सकता है कि आज राजनीतिक दलों में कितना आंतरिक लोकतंत्न बचा है?
राष्ट्रीय और प्रादेशिक दलों में अध्यक्ष पद के लिए कितनी बार चुनाव होते हैं. प्रादेशिक और जिला इकाइयों को स्थानीय स्तर पर कितनी आजादी है. बात बात में फैसले को आलाकमान के हाथों छोड़ दिया जाता है. चुनाव आते हैं तो उम्मीदवार चुनने के लिए अंतिम निर्णय का हक केंद्र के हवाले कर दिया जाता है. जीतने के बाद मुख्यमंत्नी भी वही तय करता है और अब तो नेता प्रतिपक्ष चुनने के लिए भी केंद्र की चलती है. ऐसे में प्रादेशिक इकाइयों की भूमिका अलंकारिक ही रह जाती है. एक जमाने में कांग्रेस के अंदर प्रादेशिक स्तर पर भी ऐसा नेतृत्व होता था जिसका आभामंडल राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से कम नहीं होता था.
भाजपा बनी तो उस समय राज्यों में ऐसे नेता थे, जो अटल-आडवाणी की आंखों में आंखें डालकर बात करते थे और अपनी बात मनवाते थे. भले ही उनकी चमक का दायरा सीमित था, लेकिन वह उपयोगी था. वे केंद्र के अनेक नेताओं जैसे सूरज और चांद की तरह नहीं चमकते थे मगर उनकी जुगनू वाली चमक और मंद प्रकाश भी स्थानीय स्तर पर आलोकित करने के लिए काफी होता था. क्या आज हमारी राजनीतिक पार्टियों के शिखर पुरुष इस सच्चाई को कभी समझने का प्रयास करेंगे?
ऐसा नहीं है कि 1947 के बाद कभी घटाटोप अंधेरे की स्थिति नहीं बनी. ऐसा हुआ. अनेक बार हुआ. हर बार ऐसा भी लगता रहा कि अभी रौशनी की किरण बाकी है. एक बार अंधियारे के ऐसे ही माहौल में तो यहां तक लगने लगा था कि उन सिरफिरे अंग्रेजों ने क्या सच बोला था कि हिंदुस्तान में लोकतंत्न कामयाब नहीं होगा. याद कीजिए-विंस्टन चर्चिल ने दंभ भरे स्वर में कहा था कि हम इन नेताओं को भारत की सत्ता सौंपते हुए जानते हैं कि ये तिनकों के पुतले हैं. कुछ वर्षो में इनका नामोनिशान तक नहीं रहेगा. जाने माने अमेरिकी पत्नकार सेलिग हैरिसन ने लिखा था कि देखने वाली बात यह है कि आजाद भारत जिंदा भी रह पाएगा या नहीं?
मैक्सवेल ने घमंडी टिप्पणी की थी कि भारत को लोकतांत्रिक ढांचे के रूप में विकसित करने का प्रयोग नाकाम हो गया है और जॉन स्ट्रेच ने तो भारत की अवधारणा पर ही सवाल खड़ा कर दिया था. उसने कहा था कि भारत नाम का कोई देश न पहले कभी था और न कभी भविष्य में होगा.
गणतंत्न के पैरोकारों को अब मुल्क की जनता के सामने यह उत्तर देना ही होगा कि वे कब जिम्मेदार होंगे और अपनी झोली भरने से पहले एक एक नागरिक की झोली भरने की चिंता कब करेंगे. यदि उन्होंने अपने आपको नहीं बदला तो मतदाता के हाथ वह रिमोट आ गया है,जब उसे अपना फैसला बदलने में एक सेकेंड से भी कम समय लगेगा. उनके लिए इस चेतावनी भरे संदेश में खतरे की घंटी भी छिपी है.