राजेश बादल का ब्लॉग: विराट चुनौतियां और दिग्गज प्रतीक की विदाई

By राजेश बादल | Published: November 12, 2019 08:17 AM2019-11-12T08:17:24+5:302019-11-12T08:17:24+5:30

याद करें कि बरसों से चुनाव सुधारों पर बांझ बहस चल रही है. इस बहस से चुनाव आयोग पूरी तरह अनुपस्थित है. ऐसे में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन का हमारे बीच से जाना एक शोक का नहीं, बल्कि प्रसंग का अवसर हो सकता है.

Political parties not thinking of Welfare society are similarly protecting world's largest democracy | राजेश बादल का ब्लॉग: विराट चुनौतियां और दिग्गज प्रतीक की विदाई

राजेश बादल का ब्लॉग: विराट चुनौतियां और दिग्गज प्रतीक की विदाई

महाराष्ट्र में कांटा फंस गया. न सिद्धांत न विचार, न किसान, न महंगाई की मार, न कारोबार और न सरोकार. राजनीतिक दल इसी तरह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्न की हिफाजत कर रहे हैं. सियासत में सिद्धांतों की बलि चढ़ते भारत का मतदाता देख रहा है और चुनाव आयोग किसी इवेंट एजेंसी की तरह संस्कारपूर्वक झारखंड में विधि-विधान से विधानसभा चुनाव कराने के लिए पुरोहिताई कर रहा है. ब्याह संपन्न कराने के बाद पंडितजी को इस बात से मतलब नहीं होता कि सात फेरों का गठबंधन कितना कामयाब रहा. चुनाव आयोग भी संभवत: ऐसे ही संवैधानिक मंत्नों से बंधा है.

याद करें कि बरसों से चुनाव सुधारों पर बांझ बहस चल रही है. इस बहस से चुनाव आयोग पूरी तरह अनुपस्थित है. ऐसे में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन का हमारे बीच से जाना एक शोक का नहीं, बल्कि प्रसंग का अवसर हो सकता है. जिस तरह गांधी के जाने के बाद कहा गया था कि आने वाली नस्लें यकीन नहीं करेंगी कि संसार में हाड़-मांस का एक आदमी आया था, जिसने अपने दम पर उस दौर के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य की चूलें हिला दी थीं. इसी तरह स्वतंत्न भारत में  किसी पॉलिटिकल पार्टी  को सत्ता की चाबी सौंपने वाले चुनाव आयोग में शेषन नाम का कोई ऐसा चौधरी भी आया था, जिसने लोकतंत्न की गाड़ी के चालकों को पटरी से नहीं उतरने देने के लिए उनके अवचेतन में खौफ पैदा किया था.

 मेरी स्मृति में 29 साल पहले का एक वाकया जागता है. मैंने प्रेस क्लब की ओर से शेषन को पत्नकारों के साथ अनौपचारिक संवाद के लिए आमंत्रित किया था. हम सब दहशत में थे क्योंकि तब तक उन्होंने इतना डर बना दिया था कि राजनेता तो दूर, पत्नकार भी उनसे बात करने में डरते थे. कार्यक्र म शुरू हुआ तो दस-पंद्रह मिनट तक उस हॉल की हवा में थरथराहट महसूस की जा रही थी. शेषन को चतुर नौकरशाह की तरह उसका अहसास हो गया और उन्होंने बीच में कहा कि आप लोग क्यों डर रहे हैं. राजनेताओं के लिए मैं इस देश का मुख्य चुनाव आयुक्त हूं. उन्हें पता होना चाहिए कि मेरे होने का मतलब क्या है. आप अपने सवाल करें. संदर्भ के तौर पर बता दूं कि उन दिनों शेषन का यह कथन बड़ा चर्चित हुआ था कि मैं राजनेताओं का नाश्ता करता हूं. इस विराट शख्सियत के जमाने में चुनाव में दीवारों पर नारे, लाउड स्पीकर का दमघोंटू शोर, पैसे का अंधाधुंध इस्तेमाल, शराब, नकद, उपहार, पैसा बांटना और बाहुबल का प्रदर्शन इस तरह गायब हुए थे, जैसे गधे के सिर से सींग.

एक शेषन ने सारे राजनीतिक दलों के भीतर ऐसा सद्भाव पैदा कर दिया कि बाद में बहुसदस्यीय आयोग को जन्म दे दिया. अर्थात सारे दल ऐसा मुख्य निर्वाचन आयुक्त नहीं चाहते थे जो उनकी नहीं, अपने फर्ज की बात सुने. चुनाव सुधारों के नाम पर एक निर्णय तो यही हुआ और दूसरा प्रत्याशियों के लिए खर्च की सीमा बढ़ती रही. अब इन्हें कौन सुधार कहेगा?

इस कठोर प्रतीक की विदाई के बाद किसी न किसी को शेषन को श्रद्धांजलि देने के लिए बीड़ा उठाना ही पड़ेगा. बेहिसाब पैसे का फूंका जाना, आचार संहिता का मखौल उड़ाया जाना, लालच, उपहार, मतदान कर्मचारियों का दुरुपयोग, पार्टियों में अंदरूनी लोकतंत्न और माफियाओं की रोकथाम एक बार फिर मतदाता को परेशान कर रहे हैं. राममंदिर बेशक बने, लेकिन लोकतंत्न के इस मंदिर को भी सशक्त करने की आवश्यकता है. अगर  दरकन के इस रूप से अभी रूबरू  नहीं हुए तो भविष्य में हमें अब कोई दूसरा शेषन नहीं मिलने वाला है.

Web Title: Political parties not thinking of Welfare society are similarly protecting world's largest democracy

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