पद्मनारायण झा का ब्लॉगः आपातकाल के 45 साल, कुछ अंतर्कथाएं
By पद्मनारायण झा ‘विरंचि’ | Published: June 25, 2020 03:46 PM2020-06-25T15:46:50+5:302020-06-25T15:46:50+5:30
इस आंदोलन को कई नामों से पुकारा जाता है, जैसे बिहार आंदोलन, जेपी आंदोलन इत्यादि और माना जाता है कि इस आंदोलन की शुरुआत 18 मार्च 1974 को पटना में छात्रों के जुलूस द्वारा की गई थी। लेकिन समय को फैलाकर देखें तो इस आंदोलन की भूमिका जय प्रकाश नारायण ने काफी पहले से बांध रखी थी।
आज आपातकाल की पैंतालीसवी वर्षगांठ है। लोकतंत्र के इतिहास में इस दिन का एक विशेष महत्व है। मैं भी इसका कई रूपों में भुक्तभोगी रहा हूं। इसलिए स्मृति स्वरूप कुछ बातें बताना आवश्यक समझता हूं। मैं सोशलिस्ट पार्टी और उसके साप्ताहिक मुखपत्र ‘जनता’ से जुड़ा हुआ था, इसलिए मुझे भारत रक्षा कानून (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स या डीआईआर) के तहत गिरफ्तार किया गया था।
बिहार का प्राय: वह पहला प्रेस था, जिसे सरकार ने स्पेशल गजट के द्वारा अधिग्रहित किया था। पटना के नया टोला में उस प्रेस के नजदीक न केवल कई राजनीतिक दलों के कार्यलय थे, बल्कि पटना विश्वविद्यालय़ से निकट होने की वजह से वहां अक्सर राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आनाजाना लगा रहता था।
इस आंदोलन की भूमिका जय प्रकाश नारायण ने काफी पहले से बांध रखी थी
वैसे तो इस आंदोलन को कई नामों से पुकारा जाता है, जैसे बिहार आंदोलन, जेपी आंदोलन इत्यादि और माना जाता है कि इस आंदोलन की शुरुआत 18 मार्च 1974 को पटना में छात्रों के जुलूस द्वारा की गई थी। लेकिन समय को फैलाकर देखें तो इस आंदोलन की भूमिका जय प्रकाश नारायण ने काफी पहले से बांध रखी थी।
5 जून 1973 को गुरु गोलवलकर के निधन के तीसरे दिन यानी 7 जून 1973 को पटना के कदमकुआं स्थित हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में आरएसएस के दिवंगत सरसंघचालक को श्रद्धांजलि देने के लिए जय प्रकाश नारायण की अध्यक्षता में ही एक सभा हुई थी।
जेपी ने कुछ दिनों पहले हुई गोलवलकर से अपनी मुलाकात का जिक्र किया
उसमें जेपी ने कुछ दिनों पहले हुई गोलवलकर से अपनी मुलाकात का जिक्र किया और कहा कि उन्होंने उनसे ‘परिवर्तन व आंदोलन के मुद्दे पर’ उनसे मदद मांगी थी। गोलवलकर ने भी इस पर अपनी सहमति जताई थी, जैसा कि जेपी ने कहा। मैं स्वयं उस सभा में मौजूद था।
इसी तरह उन्हीं दिनों दिल्ली से इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप की ओर से इवरीमैन्स नामका एक साप्ताहिक अखबार निकाला गया, जिसके संपादकीय बोर्ड के अध्यक्ष खुद जय प्रकाश नारायण थे। उस अखबार का उद्देश्य भी आंदोलन और परिवर्तन लाना ही था।
इसी समाचार पत्र में जय प्रकाश नारायण का एक लेख ‘ए होपलेस सिचुएशन’ के नाम से छपा था, (अगस्त 1972 में) जिसका हिंदी अनुवाद ‘निराशा की घड़ी’ के नाम से मैंने किया था और जो बुकलेट के रूप में जनता प्रेस से छपा था।
पटना में एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस का आयोजन
उन्हीं दिनों पटना में उर्दू दैनिक संगम के संपादक गुलाम सरवर ने एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था, जिसमें उद्घाटन के लिए शेख अब्दुल्ला पटना आए थे, वहां जयप्रकाश नारायण और उनके बीच आंदोलन के मुद्दों पर कई बार चर्चा हुई।
इसीलिए आपातकाल लगने के बाद शेख अब्दुल्ला पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने आपातकाल का विरोध किया था और जयप्रकाश को कश्मीर भेज देने की मांग इदिरा गांधी से की थी। इसी तरह सर्व सेवा संघ में भी परिवर्तन और आंदोलन को लेकर फूट की स्थिति पैदा हो गई थी और विनोवा भावे के नेतृत्व से अलग होकर सिद्धराज ढड्ढा जैसे दिग्गज गांधीवादी पटना आकर रहने लगे और उन्होंने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी नामकी संस्था की नींव डाली।
उन्हीं दिनों अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ओर से राम बहादुर राय पटना पहुंचे। ये घटनाएं सन् 1973 की हैं। मेरी गिरफ्तारी पटना में आपातकाल लगने के कुछ दिनों बाद हुई और मैं फुलवारी जेल में बंद था। यह भी उल्लेखनीय है कि सिद्धराज ढड्ढा जो पटना में ही कई गुजराती- राजस्थानी नौजवान आन्दोलनकारियों के साथ गिरफ्तार थे।
गुप्त रूप से प्रकाशित दो बुलेटिन सिद्धराज ढड्ढा को जेल में कहीं से भिजवाए गए थे। बाद में धीरे-धीरे पता चला बुलेटिन भेजने का काम जो व्यक्ति कर रहा था उसका नाम नरेंद्र मोदी था, जो वर्तमान में हमारे प्रधानमंत्री हैं। इस तरह की घटनाएं हैं, जो याद आती हैं। कहने का एक मतलब ये भी है कि बिहार आंदोलन और आपातकाल जैसे विषयों पर इतिहासकारों को कई दृष्टियों से विचार करना चाहिए और किसी एक कसौटी पर कसकर इसका मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए।