एन के सिंह का ब्लॉगः जातिवादी राजनीति के अंत की शुरुआत?

By एनके सिंह | Published: June 8, 2019 05:30 AM2019-06-08T05:30:35+5:302019-06-08T05:30:35+5:30

चुनाव विश्लेषकों से लेकर इन सभी क्षेत्नीय नेताओं ने वे सत्य नहीं समझे जो इन नतीजों से दिखने लगे हैं.  

NK Singh's blog: The beginning of the end of caste politics? | एन के सिंह का ब्लॉगः जातिवादी राजनीति के अंत की शुरुआत?

एन के सिंह का ब्लॉगः जातिवादी राजनीति के अंत की शुरुआत?

उत्तर भारत में चुनाव परिणाम के बाद एक-दूसरे को कोसने का सिलसिला शुरू हो गया है. बसपा सुप्रीमो मायावती अब सपा के नेता अखिलेश यादव को बुरा-भला कह रही हैं और अखिलेश गठबंधन को ‘असफल प्रयोग’ की संज्ञा देकर अपना मुंह छिपा रहे हैं, अपने पिता, परिवार और यादव समाज से. बिहार में युवा तेजस्वी यादव ‘छुईमुई’ के भाव में अपनी गैरत बचाने के लिए राबड़ी देवी द्वारा दी गई इफ्तार पार्टी में भी नहीं आए, उनकी पार्टी के सबसे प्रबुद्ध और वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद ने हार का ठीकरा तेजस्वी के सिर पर फोड़ दिया है और नतीजे के बाद लालू यादव ने जेल में कुछ समय के लिए खाना-पीना छोड़ दिया. प. बंगाल की मुख्यमंत्नी ममता बनर्जी खराब रिजल्ट के बाद पार्टी में टूट का आसन्न संकट देखते हुए खुद ही नारे लगाने लगीं और सड़क-छाप लड़ाई का मुजाहरा करने लगीं. चुनाव विश्लेषकों से लेकर इन सभी क्षेत्नीय नेताओं ने वे सत्य नहीं समझे जो इन नतीजों से दिखने लगे हैं.  

अगर देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश और सबसे पिछड़े बिहार में क्रमश: तीन और छह दलों के विपक्षी गठबंधन के बाद भी भाजपा और उसके नेतृत्व वाले गठबंधन को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले (पूरे देश में इस गठबंधन को 44.4 प्रतिशत वोट मिले) तो यह राजनीति -शास्त्न से ज्यादा समाजशास्त्न का विषय बन जाता है. इसका मुख्य कारण है इन सभी दलों का क्षेत्नीय-जातिवादी स्वरूप और सशक्तिकरण की खोखली चेतना पर लगातार चलने वाली राजनीति. अगर सुदूर पूर्व प. बंगाल में भी भाजपा का वोट 17 प्रतिशत से कूद कर 40 प्रतिशत पर पहुंच जाता है तो यह अल्पसंख्यक राजनीति के खिलाफ नाराजगी है जो एकजुटता में प्रतिबिंबित होती है.   

अनगिनत और पारस्परिक द्वेष वाले पहचान समूहों में बंटे भारत में अगर किसी दल को पांच साल के कार्य के बाद भी 50 से 60 प्रतिशत वोट मिले जो पिछले आंकड़े के मुकाबले आठ से 15 प्रतिशत ज्यादा हो और वह भी विपक्ष की तमाम जातिवादी पार्टियों और अल्पसंख्यक -पोषण करने वाले दल के एक साथ जुड़ने के बावजूद, तो यह कुछ और संकेत हैं और गहरे हैं.  

इन पांच सालों में कैसे बदली वंचितों की समझ, इसे समझना मुश्किल नहीं है अगर हम ‘सशक्तिकरण की झूठी चेतना पैदा कर राजनीतिक लाभ’ लेने की तीन से साढ़े तीन दशक पुरानी राजनीति को समझ सकें. लालू यादव मुख्यमंत्नी बनते ही शपथ ग्रहण से पहले 35 साल की वरिष्ठता वाले उच्च जाति के आईएएस चीफ सेक्रेटरी से बोले, ‘बड़े बाबू, तनी खैनी बनाइये ना’. यादव समाज जो बिहार में 16 प्रतिशत है, यह सुन कर सशक्तिकरण के अहसास से नशे में आ गया. मायावती ने भी मुख्यमंत्नी के रूप में जब किसी जिले में हेलीकॉप्टर से उतर कर किसी ब्राह्मण चाटुकार कलेक्टर से पैर छुवाया और उसका फोटो अखबारों में छापा तो सदियों से ब्राrाणवादी व्यवस्था से पीड़ित दलित को भी दशकों तक इसी सशक्तिकरण के झूठे अहसास का नशा रहा. 

लेकिन हर नशे की मियाद होती है, इसकी भी. नशा तब और उतर गया जब प्रधानमंत्नी मोदी सीन में दाखिल हुए और गैस का चूल्हा, घर के सामने शौचालय और मदद के पैसे सीधे खाते में बगैर किसी ‘ब्लाक के बाबू’ की हथेली गर्म किए आने लगे. सोच बदली, सशक्तिकरण उसे सड़क बनने और गेहूं के समर्थन मूल्य बढ़ने में नजर आने लगा.        
  
मायावती ने कितने दलित कप्तान जिलों में रखे और लालू ने कितने यादवों को अपराध के आरोप से ‘मुक्त’ कराया, यह अब नहीं भाता दलितों और आम यादवों को. भाजपा को इन दो राज्यों में ही नहीं उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलना सोच के इसी परिवर्तन का द्योतक है. प. बंगाल में भी ममता बनर्जी का उदय सत्ताधारी माकपा द्वारा राजनीति के लम्पटीकरण के खिलाफ हुआ था. ममता ने भी सत्ता के लम्पटवादी तत्वों की त्वरित काट अपने लम्पट पैदा कर या मार्क्‍सवादियों के लम्पटों को अपने साथ मिलाकर की. साथ में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण जारी रखा. इस तरह के तुष्टिकरण को अल्पसंख्यक भी ज्यादा दिन नहीं ङोल पाता. मुस्लिम महिलाओं को ‘तीन तलाक’ के खिलाफ कानून बनाए जाने के प्रयास में प्रधानमंत्नी मोदी की सांप्रदायिकता नहीं, अपने हजारों साल पुराने पुरुष-समाज की जकड़ से बाहर आने का मार्ग दिखा. 

परिपक्व प्रजातंत्न में किसी एक नेता या दल को इतनी जन-स्वीकार्यता न तो संविधान निर्माताओं की अर्ध-संघीय व्यवस्था के अनुरूप है न ही स्वस्थ प्रजातंत्न के लिए दीर्घकाल में उपयोगी. पर क्या कांग्रेस, मुलायम-अखिलेश-मायावती-लालू ब्रांड राजनीति यह सत्य समङोगी और दबे-कुचलों को ‘सशक्तिकरण की झूठी चेतना’ देने की राजनीति की जगह विकास की असली राजनीति शुरू कर सकेगी? उधर क्या मोदी यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि सत्ता मद में ‘जय श्रीराम और वंदे मातरम्’ के लिए उठने वाले हाथ किसी पहलू खान को मारने या किसी दलित के बारात में घोड़ी पर चढ़ने पर बंदूक निकालने की जगह उन्हें खाद गोदाम से सही दाम पर यूरिया दिलाने को आगे आएं. 

Web Title: NK Singh's blog: The beginning of the end of caste politics?