कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने से क्या हासिल होगा?

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: March 11, 2021 01:45 PM2021-03-11T13:45:56+5:302021-03-11T13:46:50+5:30

भाजपा में इस तरह कार्यकाल के बीच हटाये जाने वाले त्रिवेंद्र दूसरे मुख्यमंत्री हैं. इससे पहले 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के क्रम में गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ा तो 22 मई, 2014 को उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाई गई आनंदी बेन पटेल को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपना कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया गया था.

Krishna Pratap Singh's Blog: What will be achieved by changing Chief Minister in Uttarakhand? | कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने से क्या हासिल होगा?

त्रिवेंद्र सिंह रावत (फाइल फोटो)

अपनी सरकार की चौथी वर्षगांठ मनाने की तैयारियों में व्यस्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को भान भी नहीं रहा होगा कि उन्हें अचानक इस तरह दिल्ली बुलाया और इस्तीफे के लिए मजबूर कर दिया जाएगा.

इतना भी मौका दिये बगैर कि वे नौ दिन और अपनी कुर्सी पर बने रहकर वर्षगांठ का जश्न मनाकर सम्मानपूर्वक विदा हो सकें. यह कम-से- कम इस लिहाज से बहुत अजीब है कि कहा जा रहा है कि पार्टी ने उन्हीं के सुझाव पर पौड़ी गढ़वाल के सांसद तीरथ सिंह रावत को नया मुख्यमंत्री बनाया है.  

भाजपा में इस तरह कार्यकाल के बीच हटाये जाने वाले त्रिवेंद्र दूसरे मुख्यमंत्री हैं. इससे पहले 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के क्रम में गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ा तो 22 मई, 2014 को उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाई गई आनंदी बेन पटेल को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपना कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया गया था.

अब उत्तराखंड में त्रिवेंद्र को हटाया गया है तो पार्टी में धान कूटने और कांख ढकने जैसी कोशिशों का माहौल है. एक ही सांस में दो परस्पर विरोधी बातें कही जा रही हैं. पहली यह कि पार्टी हाईकमान ने सिर्फ मुख्यमंत्री बदला है. सो भी इस आश्वस्ति के आलोक में कि सरकार पर किसी तरह का कोई संकट नहीं है.

इसलिए इसमें कोई रहस्य ढूंढना बेमतलब है. दूसरी यह कि पार्टी के कई विधायकों व नेताओं को शिकायत थी कि त्रिवेंद्र के राज में न अफसर उनकी बात सुनते थे, न वे खुद. इतना ही नहीं, कई विधायकों का साफ कहना था कि त्रिवेंद्र मुख्यमंत्री बने रहे तो अगले बरस के विधानसभा चुनाव में पार्टी की सत्ता में वापसी कठिन होगी.

अब यह तो सर्वविदित है कि इस तरह की शिकायतें हाईकमान तक पहुंचीं, तो पार्टी ने डॉ. रमन सिंह और दुष्यंत कुमार गौतम को पर्यवेक्षक बनाकर देहरादून भेजा, जिन्होंने विधायकों से बात कर हाईकमान को रिपोर्ट सौंपी. समझा जाता है कि उनकी रिपोर्ट में विधायकों की शिकायतों पर मुहर लगा दी गई, जिसके बाद पार्टी की चुनावी संभावनाएं उजली करने के लिए तुरत-फुरत नेतृत्व परिवर्तन कर दिया गया.

संवाददाता सम्मेलन में त्रिवेंद्र से पूछा गया कि उन्हें इस्तीफा क्यों देना पड़ा, तो उन्होंने पार्टी के ‘सामूहिक निर्णय’ के प्रति सम्मान जताते हुए भी यह संकेत देने से गुरेज नहीं किया कि इस ‘क्यों’ के उत्तर के लिए दिल्ली जाना और पार्टी हाईकमान से पूछना होगा.

हालांकि, इस सिलसिले में कई और सवाल हैं, जो जवाब की दरकार रखते हैं और उनकी अनसुनी भाजपा पर भारी पड़ सकती है. क्योंकि त्रिवेंद्र की असमय कहें या समयपूर्व विदाई ने कुछ और किया हो या नहीं, इतना तो साफ कर ही दिया है कि दूसरे दलों में सेंध लगाने वाली भाजपा के अपने घर में भी कुछ कमजोर कड़ियां हैं. उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में शह और मात का राजनीतिक खेल कहें या ऊठापटक शुरू होती है तो ये कमजोर कड़ियां किस तरह महत्वपूर्ण हो जाती हैं, उत्तराखंड का इतिहास भी इसकी कुछ कम गवाही नहीं देता. 

ऐसे में कोई यह पूछे कि यह नेतृत्व परिवर्तन भाजपा की कमजोर कड़ियों को मजबूत करके उसकी समस्याएं बढ़ायेगा या उसकी चुनावी संभावनाएं उजली करेगा, तो पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता. राज्य में इससे पहले भी चुनावी संभावनाओं के मद्देनजर मुख्यमंत्री पद को लेकर ऐसे प्रयोग किये जाते रहे हैं.

ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि भाजपा के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत भाजपा के हरीश रावत नहीं सिद्ध होंगे, जबकि यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है कि भाजपा हार के डर से ही नए असंतुलन का कोई ‘खतरा’ उठाये बिना एक रावत की जगह दूसरे रावत को ले आई है.

उसे किसी विधायक के बजाय एक सांसद को इसलिए मुख्यमंत्री बनाना पड़ा है कि पार्टी में मुख्यमंत्री पद को लेकर एक अनार और सौ बीमार की स्थिति है. राज्य में पार्टी के तौर पर उसकी राह भले ही पहाड़ों जैसी पथरीली रही हो, उसमें मुख्यमंत्री पद का अनार पाने के इच्छुक बीमारों की संख्या कम नहीं रही है.  

दूसरे पहलू पर जाएं और भाजपा हाईकमान के नजरिये से देखें तो त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने का एक अर्थ यह भी है कि कम-से-कम राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों के संदर्भ में उसने मान लिया है कि पार्टी हमेशा के लिए मोदी के ‘महानायकत्व’ पर ही निर्भर नहीं रह सकती. हाईकमान का जो मतलब है, वह तेजी से बदलने लगेगा और उसकी कमजोर कड़ियां पहले से ज्यादा कलहकारी होकर ज्यादा सताने लगेंगी. 

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