एन.के.सिंह का ब्लॉग: दोष केवल राजनीतिक वर्ग का ही नहीं है!
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 4, 2018 07:11 PM2018-11-04T19:11:18+5:302018-11-04T19:11:18+5:30
शहाबुद्दीन कैसे चार बार प्रजातंत्न के सबसे ‘पवित्न मंदिर’ लोकसभा में चुन कर आता है और क्यों किसी लालू यादव को यह संदेश नहीं जाता कि भ्रष्टाचार और अपराध की प्रजातंत्न में जगह नहीं? कैसे किसी राजनीतिक दल का नेता जनमंच से चेतावनी दे सकता है कि आस्था के मुद्दे से छेड़खानी से सुप्रीम कोर्ट बाज आए?
(एन.के.सिंह)
दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्नी और नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘द आइडिया ऑफ जस्टिस’ में एक अध्ययन का जिक्र किया है। केरल स्वास्थ्य मानदंडों में भारत के अन्य राज्य तो छोड़िए, चीन से भी आगे और लगभग यूरोप के समकक्ष है। इसका कारण स्वास्थ्य और शिक्षा पर वहां की सरकारों द्वारा पिछले तमाम वर्षो में किया गया प्रयास और खर्च है। इसके ठीक विपरीत सरकारी भ्रष्टाचार और उदासीनता के कारण बिहार और उत्तर प्रदेश इन स्वास्थ्य मानदंडों पर रसातल में लगातार बने हुए हैं। असामान्य रूप से जीवन प्रत्याशा और खासकर वृद्धावस्था की मृत्यु-दर बढ़ी हुई है। लेकिन जब बीमारी को लेकर व्यक्तिगत-संतुष्टि का आकलन किया गया तो केरल में लोग सबसे ज्यादा असंतुष्ट पाए गए और बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग सबसे कम असंतुष्ट।
इसके पीछे के कारण को खोजने पर सेन को पता चला कि ‘अभाव में भी संतुष्टि’ का यह भाव बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों में इसलिए है कि उन्हें कभी भी सरकारों से अपेक्षा नहीं रही। क्योंकि वे जानते भी नहीं कि सरकार की भूमिका जनजीवन को उठाने में क्या और कहां तक है। सेन की धारणा का मतलब यह है कि अशिक्षा, अज्ञानता और सत्ता, सरकार और राज्य अभिकरणों के प्रति ‘जाही विधि रखे राम, ताहि विधि रहिए’ का दासत्व भाव आज भी उत्तर भारत के इन दो राज्यों में ही नहीं बल्किहिंदी पट्टी में भयंकर रूप से व्याप्त है। इसके ठीक विपरीत केरल में एक जमाने से शिक्षा अव्वल रही है और सामूहिक चेतना विकास के तमाम पैरामीटर्स को लेकर तार्किक और सत्ता पर दबाव बनाने वाली रही है। एक कुंठित और तार्किक रूप से अवैज्ञानिक समझ वाले समाज को सरकारों के लिए ‘मैनेज’ करना ज्यादा आसान होता है क्योंकि भ्रष्टाचार करते हुए भी राजनीतिक दल उन्हें भावनात्मक आधार पर सहज ही अपने पक्ष में कर लेते हैं।
अब यहां सवाल हम विश्लेषकों से पूछा जाना चाहिए कि अगर समाज की समझ ही पिछले 70 वर्षो में ऊपर नहीं बढ़ पा रही है तो दोष महज राजनीतिक वर्ग का ही क्यों? अगर केरल जैसे शिक्षित और तार्किक सामूहिक सोच वाले राज्य में भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए पुरुष समाज महिलाओं को प्रवेश नहीं दे रहा है ‘आस्था’ के नाम पर तो राजनीतिक दल क्यों नहीं पक्ष और विपक्ष में खड़े होंगे। यहां सवाल यह भी है कि अगर यह समझते हुए भी कि हर चुनाव के पहले आरक्षण, धार्मिक प्रतीकों और जातिवाद का मुद्दा ‘बोतल में बंद जिन्न’ की तरह बाहर निकल आता है तो समाज की आंखों पर पर्दा क्यों पड़ा रहता है और वह चुनाव-दर-चुनाव धोखा खाते हुए भी यह संदेश क्यों नहीं दे पाता कि खूंखार अपराधी शहाबुद्दीन की जगह संसद नहीं सलाखों के पीछे है।
शहाबुद्दीन कैसे चार बार प्रजातंत्न के सबसे ‘पवित्न मंदिर’ लोकसभा में चुन कर आता है और क्यों किसी लालू यादव को यह संदेश नहीं जाता कि भ्रष्टाचार और अपराध की प्रजातंत्न में जगह नहीं? कैसे किसी राजनीतिक दल का नेता जनमंच से चेतावनी दे सकता है कि आस्था के मुद्दे से छेड़खानी से सुप्रीम कोर्ट बाज आए?
दरअसल समाज का एक तबका जिनमें कुछ शिक्षित शहरी लोगों के साथ ही राजनीतिक वर्ग भी शामिल है, जन-मंचों पर, जैसे टीवी चैनलों पर चीख-चीख कर विकास की बात करते हैं और इसे सिद्ध करने के लिए ‘अपने पक्ष के चुनिंदा आंकड़े’ भी पेश करते हैं लेकिन वापस लौट कर वह दल जाति और संप्रदाय के आधार पर टिकट दे देते हैं और यह तथाकथित शिक्षित शहरी वर्ग अपनी जाति के नेता के घर अपने बेटे की नौकरी लगवाने या अपना तबादला रुकवाने या मलाईदार जगह करवाने के लिए पहुंच जाता है।
हम कैसा भारत अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए बनाने जा रहे हैं। अमर्त्य सेन ने इसका कारण बताया। उनके अनुसार हमारे तार्किक फैसले और किसी फैसले का चुनाव करते समय असली इच्छा में एक बड़ा अंतर रहता है। इसे ‘इच्छा की कमजोरी’ (वीकनेस ऑफ द विल) कहते हैं। ग्रीक दर्शन में इसे ‘अक्रासिया’ कहते हैं। भारत के समाज दर्शन में इसे ‘अपूर्ण आत्म-नियंत्नण’ भी माना गया है।
कितना साम्य है केरल के उस शिक्षित व तार्किक समाज में जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ महिलाओं को पुरुषसत्ता की जकड़न से निकलने नहीं देना चाहता और इसमें दोनों पक्षों की तरफ से या खिलाफ राजनीतिक वर्ग रोटियां सेंकने खड़े हैं। और उत्तर प्रदेश और बिहार का बीमार समाज जो शिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव में तिल-तिल कर मर रहा है लेकिन ‘आस्था’ और ‘भावनात्मक’ मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय से भी दो-दो हाथ करने को उद्धत है। तभी उत्तर प्रदेश के गेरुआधारी योगी मुख्यमंत्नी आदित्यनाथ ‘अन्य’ विकल्पों की बात कह रहे हैं तो बिहार से आने वाले केंद्रीय मंत्नी गिरिराज किशोर ने इस अदालत से जनवरी में पीठ बनाए जाने के फैसले के अगले दिन कहा, ‘मुङो डर है कि कहीं हिंदुओं के सब्र का बांध न टूट जाए’। जाहिर है आस्था वालों को यह बात अच्छी लगेगी और अगली बार फिर कोई गिरिराज, लालू, शहाबुद्दीन या कोई ओवैसी संसद की शोभा बनेंगे।