हरीश गुप्ता का ब्लॉग: अयोध्या आंदोलन ने बदली मोदी की किस्मत
By हरीश गुप्ता | Published: August 5, 2020 02:28 PM2020-08-05T14:28:35+5:302020-08-05T14:28:35+5:30
लालकृष्ण आडवाणी की 1990 की ऐतिहासिक अयोध्या गाथा की एक दिलचस्प कहानी है. आरएसएस अटलबिहारी वाजपेयी, आडवाणी, डॉ. एम. एम. जोशी जो पार्टी अध्यक्ष थे और विजयाराजे सिंधिया के नेतृत्व में चार स्थानों से चार राम रथ यात्र निकालने की योजना बना रहा था, जिसका समापन अयोध्या में होना था. लेकिन कई कारणों से, आरएसएस ने सोमनाथ मंदिर से रथ यात्रा निकालने के लिए आडवाणी को चुना. व्यापक खोजबीन के बाद, नरेंद्र मोदी सोमनाथ आयोजन के मुख्य आयोजक के रूप में एकमात्र विकल्प बनकर उभरे. क्यों?
मोदी ने 1987 में दंगा पीड़ितों के मामले में चिमनभाई पटेल के कुशासन के खिलाफ अपनी दो न्याय यात्रओं और 1989 में राज्य में शराब माफिया के खिलाफ लोक शक्ति यात्र के माध्यम से अपना कौशल दिखा दिया था. इससे वे गुजरात भाजपा के उभरते सितारे बन गए जो जनता दल और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर थी. इस सफलता के माध्यम से मोदी ने आलाकमान को आश्वस्त किया कि भाजपा को 1990 के विधानसभा चुनावों में जनता दल के साथ गठबंधन न करते हुए अकेले चुनाव लड़ना चाहिए. मोदी ने अपने करियर का बड़ा जोखिम उठाया और यह बेहद फायदेमंद रहा.
मोदी की उपलब्धियों की वजह से डॉ. जोशी ने 25 सितंबर 1990 को आडवाणी यात्रा के लिए उनको सारथी के रूप में चुना. आडवाणी का तब तक मोदी के साथ शायद ही कोई व्यक्तिगत संपर्क था और डॉ. जोशी उन उतार-चढ़ाव भरे वर्षो के दौरान पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे. आडवाणी को इस तरह पहले प्रयास के प्रति सार्वजनिक प्रतिक्रिया के बारे में संदेह था और साथ ही गुजरात के लिए भी वह नये थे. लेकिन 600 गांवों से गुजरने वाली यात्रा के दौरान लोगों की जबरदस्त प्रतिक्रिया को देखते हुए मोदी के संगठनात्मक कौशल से वे बहुत प्रभावित हुए. कुछ लोगों ने खून के साथ आडवाणी के माथे पर तिलक भी लगाया और राजकोट के पास जेतपुर में अयोध्या ले जाने के लिए खून से भरा घड़ा भी प्रदान किया गया.
आडवाणी मोदी के कौशल से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें मुंबई तक साथ देने के लिए कहा, जबकि मोदी को गुजरात-महाराष्ट्र सीमा पर ही कमान सौंपनी थी. इस यात्रा के दौरान मोदी ने सुझाव दिया कि आडवाणी को गांधीनगर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहिए और दिल्ली के बजाय गुजरात को अपना राजनीतिक आधार बनाना चाहिए. आडवाणी ने आखिरकार एक साल बाद 1991 में गांधीनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और वे रिकॉर्ड अंतर से जीते. यह मोदी की एक और उपलब्धि थी. बेशक, इससे उनके खिलाफ पार्टी में बहुत से लोगों के मन में जलन पैदा हुई और शंकरसिंह वाघेला उनके खिलाफ हो गए. लेकिन मोदी के लिए पीछे हटने का सवाल ही नहीं था. यात्रा ने आडवाणी और मोदी दोनों की किस्मत बदल दी.
मोदी को नवंबर 1991 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल किया गया और 1993 में संगठन के महासचिव प्रभारी के रूप में पदोन्नत किया गया. इतने कम समय में यह एक दुर्लभ पदोन्नति थी. डॉ. जोशी, जो अयोध्या यात्रा से चूक गए थे, मोदी के कौशल से प्रभावित थे. उन्होंने 1992 में ‘कन्याकुमारी से कश्मीर’ तक एकता यात्र निकालने का फैसला किया. मोदी यात्र के मुख्य आयोजक और सारथी थे. यह पहली बार था कि बड़े पैमाने पर आतंकवादी खतरों का सामना करते हुए और सभी बाधाओं के बावजूद 26 जनवरी 1992 को लाल चौक पर तिरंगा फहराया गया था. भाजपा में कई लोगों का मानना था कि मोदी आडवाणी की तुलना में डॉ. जोशी के ज्यादा करीब थे. आडवाणी ने खुद एक बार हल्के-फुल्के ढंग से कहा, ‘‘मैं जेटली या सुषमा की तरह उनका गुरु नहीं था.’’
जाहिर है, मोदी कई अन्य लोगों की तरह आडवाणी के शिष्य नहीं थे. मोदी ने अपने उत्थान का सारा श्रेय आरएसएस और कड़ी मेहनत को दिया. उन्होंने कहा था, ‘‘कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है.’’ इसलिए अगर मोदी आज अयोध्या भूमि पूजन समारोह में मुख्य अतिथि हैं, तो वे एक से अधिक कारणों से इसके सही दावेदार हैं. बेशक, अयोध्या आंदोलन के पीछे आरएसएस का दिमाग था, जिसका प्रतिनिधित्व उसके वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत कर रहे हैं. मोदी एक धर्मनिष्ठ हिंदू हैं और नीति व कार्यक्रमों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनुसरण करते हैं.