हरीश गुप्ता का ब्लॉग: योगी को चकित करने वाला मोदी का उपहार!
By हरीश गुप्ता | Published: January 21, 2021 12:51 PM2021-01-21T12:51:51+5:302021-01-21T12:51:51+5:30
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विश्वसनीय माने जाने वाले ए.के. शर्मा को यूपी क्यों भेजा गया, ये रहस्य बना हुआ है। सवाल ये भी है कि अगर वे सबसे विश्वासपात्र थे तो उन्हें पीएमओ से क्यों हटाया गया था?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वासपात्र नौकरशाह ए.के. शर्मा का उत्तर प्रदेश के विधान परिषद चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के रूप में नामांकन राजनीतिक वर्ग के लिए पहेली बना हुआ है. शर्मा उस समय से मोदी के विश्वस्त कर्मचारी वर्ग में शामिल रहे हैं, जब वे 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
चाहे वे पी.के. मिश्र हों, के. कैलाशनाथन, जे.सी. मुमरू, आर.के. अस्थाना या ए.के. शर्मा - सब मोदी के सीएमओ का हिस्सा थे. जब मोदी 2014 में दिल्ली पहुंचे तो करीब 12 अफसरों की टीम उनके साथ गई. लेकिन मोदी ने के. कैलाशनाथन को अहमदाबाद में आनंदीबेन पटेल के सीएमओ में रखना ही तय किया.
केके - जिस नाम से कैलाशनाथन को नौकरशाही में जाना जाता था - का रुतबा विजय रूपानी के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कम नहीं हुआ. केके 2013 में मोदी के मुख्य प्रधान सचिव थे और 2021 तक भी वहीं बने हुए हैं, मुख्यमंत्री चाहे जो रहा हो. वे ‘साहब के प्रतिनिधि’ समझे जाते हैं, क्योंकि मोदी सिर्फ केके से बात करते हैं और प्रशासन का पहिया उसी हिसाब से घूमता है.
पीएमओ में पी.के. मिश्र ने प्रधान सचिव के रूप में नृपेंद्र मिश्र का स्थान लिया और आर.के. अस्थाना लगातार मजबूत आईपीएस अधिकारी बने हुए हैं. जे.सी. मुमरू श्रीनगर में मोदी के आंख-कान के रूप में जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल बनाकर भेजे गए थे. लेकिन कहीं न कहीं वे अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे और दिल्ली में सीएजी के रूप में उनकी वापसी हो गई.
इसलिए, मोदी के काम करने की शैली को देखते हुए, ए.के. शर्मा को यूपी में राजनीतिक पारी खेलने के लिए भेजा जाना पहेली बना हुआ है.
भाजपा में, यूपी के मामलों को देखने वाला कोई भी नेता इस बारे में कुछ बताने को तैयार नहीं था कि शर्मा को एमएलसी के लिए कैसे चुना गया? किसने उनका नाम प्रस्तावित किया? और क्यों मोदी अपने सबसे विश्वासपात्र अधिकारी को यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उधार देने को तैयार हो गए? अगर वे सबसे विश्वासपात्र थे तो उन्हें पीएमओ से क्यों हटाया गया?
लखनऊ में दूसरा केके?
यह कोई रहस्य नहीं है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ अपने ही तरीके से चलते हैं और अन्य भाजपाई मुख्यमंत्रियों की भांति राजनीतिक आकाओं के प्रति श्रद्धा भाव नहीं रखते हैं.
भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा पार्टी हाईकमान का एक अन्य सिरदर्द हैं. योगी बहुत से वरिष्ठ नेताओं का फोन तक नहीं उठाते. केंद्रीय आलाकमान इस बात से भी खफा हुआ था जब योगी आदित्यनाथ ने लखनऊ के बेताज बादशाह सुनील बंसल के पर कतरे थे.
बाद में राज्य में अपराधों से निपटने के तरीके और कानून व्यवस्था के प्रश्न भी उठे, जिसमें हालिया हाथरस मामला भी है. ऐसी बहुत सी शिकायतें हैं कि योगी अविवाहित और ईमानदार होने के बावजूद जाति की राजनीति से उबर नहीं पाए हैं.
विचारकों के एक वर्ग का मानना है कि योगी ने ही आलाकमान से आग्रह किया था कि उन्हें एक सक्षम व्यक्ति दिया जाए, क्योंकि वे अपने दो उपमुख्यमंत्रियों का विश्वास नहीं करते.
ए.के. शर्मा उत्तर प्रदेश के ही निवासी हैं और कुछ खास भूमिका निभा सकते हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि शर्मा को यूपी भेजने के पीछे कहीं गडकरी का हाथ तो नहीं है, क्योंकि वे उन्हीं के अधीन एमएसएमई में सचिव के रूप में काम कर रहे थे. इस बारे में अभी तक कुछ नहीं कहा गया है कि भविष्य में एमएलसी ए.के. शर्मा की क्या भूमिका रहेगी. क्या वे लखनऊ के दूसरे केके बन जाएंगे?
जे.पी. नड्डा का बढ़ता कद
भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा एक बार फिर सक्रिय हो गए हैं और प.बंगाल चुनाव में अग्रिम मोर्चे पर हैं. उन्होंने सात केंद्रीय मंत्रियों के चुनाव में मुख्य भूमिका निभाई जिन्हें विधानसभा चुनाव के लिए सात क्षेत्रों का प्रभारी बनाया गया था.
जाहिर है कि बिहार में भारी जीत के बाद नड्डा का कद बढ़ा है. हाल ही में भाजपा शासित दो राज्यों के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री से बात करना चाहते थे. लेकिन मोदी ने विनम्रता से उनसे कह दिया कि वे पहले संबंधित मुद्दों पर ‘नड्डा जी’ से बात कर लें.
पार्टी को एक अन्य बड़े बदलाव ने तब हिला दिया जब संयुक्त महासचिव (संगठन) के तीन पदों को समाप्त कर दिया गया. क्या आरएसएस नड्डा और महासचिव (संगठन) बी.एल. संतोष को खुली छूट देगा? यह देखना होगा.
सरकार क्यों नहीं करती संवाद?
चाहे वह कृषि कानून हों या अन्य मुद्दे, मोदी सरकार की दिक्कत यह है कि वह फैसले लेने में जल्दबाजी करती है लेकिन संवाद के लिए इच्छुक नहीं दिखती.
इसका एक बड़ा उदाहरण भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को तीसरे चरण के ट्रायल डाटा के बिना ही आपातकालीन उपयोग की अनुमति देने का है. आरोप लगाया गया कि सरकार ने ऐसा करके नियमों का उल्लंघन करते हुए लोगों की जिंदगी को खतरे में डाला है. लेकिन किसी ने भी, यहां तक कि आईएमसीआर, ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया या स्वास्थ्य मंत्रलय ने भी यह नहीं बताया कि आपातकालीन उपयोग की मंजूरी के नियमों में मार्च 2019 अर्थात कोविड फैलने के एक साल पहले ही संशोधन किया गया था.
तीसरे चरण के परीक्षण के परिणामों के बिना ही नियामकों द्वारा आपातकालीन उपयोग को अनुमति देने के लिए नीति में बदलाव किया गया था. वास्तव में कोवैक्सीन के साथ कोई पक्षपात नहीं किया गया. जब वैज्ञानिक समुदाय विवादों के बीच घिरा तो नियमों को खोजकर बाहर निकाला गया.