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चुनावी विश्लेषण 3: राजस्थान में जीत और हार के टर्निंग प्वाइंट्स, बीजेपी से कहां हुई चूक?

By बद्री नाथ | Updated: January 2, 2019 07:46 IST

विधानसभा चुनाव विश्लेषण 2018: कैसे लड़ा गया चुनाव, कैसे रहे नतीजे, कैसी हो रही हैं चर्चाएं, आगे आम चुनावों में क्या होंगी राजनीतिक संभावनाएं?

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राजस्थान की राजनीति के सन्दर्भ में 1993 से ही यह बात प्रचलित हो चली  है कि तवे की रोटी को पलटते रहना चाहिए नहीं तो जलने या कच्चा रहने का डर रहता है इसलिए हमेशा बदल देती है यह परमपरा 25 सालो से चल रही थी इस बार भी कायम रही। लेकिन कांग्रेस की सत्ता में पुनर्वापसी इतनी आशन नहीं थी। सचिन पायलट पिछले पांच सालो से कैडर मजबूत कर रहे थे। राजस्थान में चुनाव हारने के बाद से ही कांग्रेस पूरी तरह से सक्रिय हो गई। लोक सभा हारने के बाद सचिन पायलट ने भी अपने आप को पूरी तरह से राजस्थान के लिए समर्पित कर दिया । हर एक मुद्दे को उन्होंने जोर शोर से उठाया था राजस्थान के हर जिले का दौरा किया मृत पड़ी कांग्रेस की कमेटियों में जान डाली बूथ को मजबूत करने के लिए कांग्रेस पार्टी ने मेरा बूथ मेरा गौरव अभियान चलाया कांग्रेस ने वसुंधरा को घेरने के हर एक मौकों को अच्छे से भुनाया। यहाँ पर गो हत्या और मोब लिंचिंग का मुद्दा, लकित गेट केस, आनंद पाल एम् काउंटर, किसान आत्महत्या  गरमाया रहा । 

राजस्थान में किसानों को बिजली, कर्ज, खाद की उपलब्धता और फसल की अच्छी कीमत नहीं मिलना लंबे समय से मुद्दा बना हुआ है। यहाँ तक कि कांग्रेस ने  राजस्थान में होने वाले हर एक उपचुनावों में जोर शोर से लड़ाई लड़ी अजमेर, अलवर लोकसभा के उपचुनाव हों या मांडलगढ़ के विधान सभा के उपचुनाव हों एक-एक उपचुनाव में बीजेपी को करारी शिकस्त दी। फिर भी गुर्जर नेता के पावरफुल होने की वजह से राजपूत (राजपूत वोटों को आकर्षित करने के लिए मानवेन्द्र सिंह को पार्टी में ज्वाइन कराया गया ), जाट (11%) और मीणा (7%) जातियों के डिफेंसिव होने (गौरतलब है कि जाट और मीणा जातियों की गुर्जरों से नहीं बनती हैं। अशोक गहलोत की अनुपस्थिति में बीजेपी ने इसे भुनाने की रणनीति तो बनाई थी ) से इस वोट बैंक पर पूरी तरह से खतरे के मडराने की संभावना को समाप्त करने के लिए कांग्रेस ने सर्व समाज के लिए स्वीकार्य अशोक गहलोत को चुनाव मैदान चुनाव से कुछ  महीने पहले में उतारा चुनाव की फिजा ही बदल दी। 

यहाँ पर कांग्रेस ने एक बड़ी चालाकी दिखाई कि मुख्यमंत्री पद के चहरे के बिना चुनाव लड़ने का निर्णय लिया जिससे संगठन और अशोक गहलोत के लोगों के बीच टकराव की स्थिति से बचा जा सके। निश्चित तौर पर कांग्रेस इसमें सफल भी रही थी। दोनों लोकप्रिय नेताओं को विधान सभा चुनाव में उतार कर सुस्पेंस का माहौल बनाया गया और दोनों लोकप्रिय नेताओं की लोकप्रियता का पूरा फायदा उठाया गया और इस प्रकार कांग्रेस ने अपनी जबरदस्त रणनीति के बूते राजपूत की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन वसुंधरा राजे को हराने में कामयाबी हासिल की। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी का संगठन काफी कमजोर होता रहा। वसुन्धरा से संघ की नाराजगी अफसरशाही की शिकायतें खूब हुईं। जहाँ तक संगठन की बात है रानी के करीबी अशोक परनामी को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर अमित शाह के द्वारा अपने चहेते को बिठाने की पुरजोर कोशिश की गई ऐसा इसलिए किया जा रहा था कि वसुन्धरा को राज्य में कमजोर किया जा सके। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तमाम कोशिशों के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष के पद आर एस एस एस और अमित शाह के पसंद गजेन्द्र सिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष के नाम पर सहमति नहीं बन पायी। वसुंधरा के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा के 163 विधायकों में से 113 विधायक वसुंधरा के साथ आ गए और आतंरिक शक्ति संघर्ष में अमित शाह को वसुंधरा से हार माननी पड़ी। वसुंधरा ने बीजेपी के किसी राष्ट्रीय अध्यक्ष को कोई पहली बार अपनी शक्ति का अहसास नहीं कराया था नहीं जीता था इससे पहले भी अटल जी के ज़माने में जब राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष थे अपनी शक्ति के बूते राजनाथ सिंह को बैक फुट पर भेज दिया था। 

इस मामले में अमित शाह बैकफुट पर चले गए उन्हें पाने फैसले को वापस लेना पड़ा। शायद  सिंधिया राजघराने की बेटी और धौलपुर राजघराने की बहु की ताकत से टकराकर दूसरे राजनाथ सिंह नहीं बनना चाहते थे। अंततः वसुंधरा और अमित शाह के बीच सत्ता संघर्ष ख़बरों से गायब हो गया। वसुंधरा इस मामले में शिवराज सिंह चौहान से मजबूत नेता रहीं जो अपने चहेते को ही पार्टी के टॉप पर रखने के लिए विवश कर दिया। लेकिन लगातार कई महीने पर अध्यक्ष पद के खाली होने के कारण संगठन काफी कमजोर होता रहा। अंत में 30 जून 2018 को राज्यसभा सदस्य मदन लाल सैनी के नाम पर सहमति बनी अब काफी देर हो चूका था फिर वसुंधरा अपने योजनाओं के प्रचार के लिए राजस्थान गौरव यात्रा पर निकलीं अमित शाह ने इस यात्रा करके शुभारम्भ पर उपस्थित होकर कार्यकर्ताओं के बीच सब कुछ ठीक होने का मेसेज देने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन बीजेपी समर्थक लोग रानी से इस कदर नाराज हो गए थे कि बीजेपी समर्थक लोगों ने रानी को हराने के लिए लग गए थे। 

चुनाव के दरमियान  “मोदी तुझसे बैर नहीं पर रानी तेरा खैर नहीं नारा भी गूंजता रहा”। चुनाव में हार पर बहुत से बीजेपी कार्यकर्ताओं ने इस हार को वसुंधरा के ऊपर मढ़ने के लिए भी एक जुमला गढ़ा “बीजेपी हारी नहीं हारी महारानी है” ऐसा बताया जा रहा था कि चुनाव से 1 महीने पहले तक बीजेपी को अंडर 20 सीटें मिल रही थी लेकिन मोदी–शाह और योगी के तिकड़ी के चुनाव मैदान में उतरने के बाद चुनाव का माहौल बदला और पार्टी की आंतरिक गुटबाजी को समाप्त करने में मदद मिली  इसी का नतीजा रहा कि नाराज लोगों का बड़ा तबका बीजेपी की तरफ रुख किया 20 सीटों के अन्दर सिमटने वाली बीजेपी 73 सीटों की सम्मानजनक स्थिति तक पहुँच गई।

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