अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: पार्टी, विधायक और जनता के संबंधों का सवाल
By अभय कुमार दुबे | Published: July 23, 2020 01:34 PM2020-07-23T13:34:50+5:302020-07-23T13:34:50+5:30
वस्तुस्थिति यह है कि हमारा जनप्रतिनिधि कानून और दल-बदल विरोधी कानून, दोनों एक बड़ी हद तक लोकतांत्रिक नैतिकताओं की रक्षा करने में नाकाम हो चुके हैं.
अगर राजस्थान के मुख्यमंत्री के पास सरकार बचाने और अपने विधायकों को एकताबद्ध रखने का हुनर न होता तो अभी तक उनकी सरकार गिर चुकी होती. या तो भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता मुख्यमंत्री पद पर बैठा होता या फिर कांग्रेस के असंतुष्ट खेमे को सत्ता मिल गई होती.
अगर ऐसा हो जाता तो वह निश्चित रूप से जनादेश का अपमान होता, लोकतंत्र का मखौल होता और आज हम सब अफसोस कर रहे होते. दुख की बात यह है कि इसके बावजूद प्रदेश की संसदीय स्थिति के हर पहलू पर सवालिया निशान लगा हुआ है.
क्या विधानसभा अध्यक्ष का फैसला सही है? क्या विधायक दल की बैठक में हाजिरी का सवाल भी मुख्य सचेतक के आदेश (व्हिप) से तय होगा? क्या असंतुष्ट विधायकों को अपनी ही पार्टी की सरकार का विरोध करने का हक नहीं है? अगर विरोध करने का हक उन्हें है तो उसकी सीमा क्या है?
जिस पार्टी के टिकट पर विधायक चुन कर आए हैं, उस पार्टी का विधायकों पर कितना अधिकार है? क्या वे उस दल के बंधुआ मजदूर की तरह हैं? अगर नहीं तो फिर क्या उन विधायकों को पार्टी की सरकार तबाह करने तक का अधिकार है?
जाहिर है कि इन सवालों के केंद्र में जनप्रतिनिधित्व की प्रकृति है, और साथ में यह भी कि जनता, उसके प्रतिनिधि और उस प्रतिनिधि की पार्टी का आपसी रिश्ता क्या होना चाहिए. संविधान को अगर देखें तो साफ हो जाता है कि उसमें सरकार किसी पार्टी द्वारा नहीं बनाई जाती. सरकार तो जनप्रतिनिधियों का समूह बनाता है.
इस दृष्टि से पार्टी अपने आप में कोई संवैधानिक कृति नहीं है. लेकिन पार्टियों का चुनाव आयोग के पास रजिस्ट्रेशन होता है, वे चुनाव लड़ती हैं, उन्हें चुनाव चिह्न आवंटित किया जाता है. और जब से दल-बदल विरोधी कानून बना है, तब से पार्टी का दर्जा पहले से कहीं ज्यादा कानूनी हो गया है, हालांकि इससे सांविधिक स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है.
वस्तुस्थिति यह है कि हमारा जनप्रतिनिधि कानून और दल-बदल विरोधी कानून, दोनों एक बड़ी हद तक लोकतांत्रिक नैतिकताओं की रक्षा करने में नाकाम हो चुके हैं.
अगर किसी पार्टी का विधायक दल संख्या में बड़ा है, और उसमें विभाजन करने लायक विधायकों को पटाना मुश्किल हो रहा है तो असंतुष्ट विधायकों से इस्तीफा दिला कर पहले सरकार अस्थिर करवा दी जाती है, और फिर उपचुनावों में उन्हीं विधायकों को नई सत्तासीन पार्टी अपना टिकट देकर दोबारा चुनवा देती है. इस प्रकार लोकतंत्र रहते हुए भी नहीं रहता.
चूंकि यह चर्चा राजस्थान के घटनाक्रम के आलोक में हो रही है, इसलिए उसकी राजनीति की पेचीदगियों पर गौर करना भी जरूरी है. कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद जिस समय विधायक दल के नेता का चुनाव हो रहा था, उस क्षण की याद करके हमें राजस्थान में कांग्रेस के भीतर के शक्ति-संतुलन का कुछ पता लग सकता है.
चुनाव-स्थल के बाहर सचिन पायलट के समर्थक नारेबाजी करते हुए उन्हें मुख्यमंत्री पद देने की मांग कर रहे थे और मीडिया के अधिकतर हिस्से का रुख भी सचिन के पक्ष में झुका हुआ था.
कुल मिलाकर माहौल ऐसा बनाया जा रहा था कि चुनाव तो सचिन के सांगठनिक कामकाज की वजह से जीता गया है, पर दो बार मुख्यमंत्री रह चुके अशोक गहलोत अपनी ‘राजनीतिक कुुटिलता’ के चलते प्रदेश के एक नए उभरते हुए नेतृत्व के हाथ से गद्दी छीन लेना चाहते हैं. लेकिन असलियत यह थी कि हॉल के भीतर कांग्रेस के 99 विधायकों में से अस्सी से ज्यादा गहलोत के पक्ष में लिखित रूप से समर्थन व्यक्त कर चुके थे.
जाहिर है कि नवनिर्वाचित विधायक वरिष्ठ नेता के पक्ष में थे, न कि नए नेता के. विधायकों के समर्थन का यह रुख आज तक वैसा का वैसा ही कायम है. वर्तमान संकट के समय भी जब विधायक दल की पहली बैठक बुलाई गई तो गहलोत के पक्ष में 107 विधायक पहुंच गए.
जाहिर है कि सचिन पायलट मीडिया में अपनी छवि प्रोजेक्ट करना तो जानते हैं, लेकिन विधायकों में उनके प्रति विश्वास नहीं है. गहलोत के खिलाफ उनकी शिकायतें जायज हो सकती हैं, लेकिन सत्ता छीनने के लिए जो कौशल चाहिए, वह उनके पास नहीं दिख रहा है.
इस राजनीति का एक दूसरा पक्ष कांग्रेस आलाकमान की मौजूदा स्थिति से जुड़ा है. गहलोत आलाकमान से पिछले छह महीने से कह रहे थे कि सचिन का खेमा भाजपा के साथ साजबाज कर रहा है.
दूसरी तरफ सचिन ने सोनिया गांधी के खासमखास अहमद पटेल से पंद्रह दिन पहले ही लंबी बैठक करके अपने और मुख्यमंत्री के बीच के मतभेदों का खुलासा किया था. यानी गेंद पूरी तरह से आलाकमान के पाले में थी. स्पष्ट था कि राजस्थान के बंटवारे का समीकरण बिगड़ चुका है.
आलाकमान को अपना प्रतिनिधि भेजकर या दोनों पक्षों को दिल्ली तलब करके इस समीकरण को दुरुस्त करना चाहिए था, पर वह ऐसा करने में नाकाम रहा. एक तरह से कांग्रेस की भीतरी आग में हाथ सेंकने का मौका भाजपा को कांग्रेस की इसी निष्क्रियता ने ही दिया.
जब से राहुल गांधी ने कांग्रेस के संगठन से अपना हाथ खींचा है, उसकी रफ्तार बहुत सुस्त हो गई है. अगर कांग्रेस राजस्थान जैसी स्थितियों के दोहराव से बचना चाहती है तो उसके आलाकमान को अपना कील-कांटा दुरुस्त करना होगा.