अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: मंदिर पर निर्भर नहीं है मोदी की राजनीति
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 13, 2020 02:16 PM2020-08-13T14:16:23+5:302020-08-13T14:16:23+5:30
नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर मुद्दे की चुनावी सक्षमता का आकलन कर लिया था. वे जानते थे कि यह मुद्दा उन्हें पूर्ण-बहुमत तो नहीं ही दिला पाएगा, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर अनदेखी समस्याएं अवश्य पैदा कर देगा.
हाल ही में एक सुविज्ञ टिप्पणीकार ने स्वीकार किया है कि जब 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी तो उनके मन में जो अंदेशे थे, वह किस तरह से आधारहीन साबित हुए. सेक्युलर, तर्कपरक, बाजारवादी और उदार भारत की रचना को श्रेयस्कर मानने वाले अंग्रेजी के इस पत्रकार का विचार था कि अब भाजपा सारे देश में जगह-जगह मस्जिदों को ढहाने और उनकी जगह मंदिरों की रचना की मुहिम पर निकल पड़ेगी. वह स्वयं को प्राचीन हिंदू गौरव के प्रतिनिधि की तरह पेश करते हुए उत्तरोत्तर राजनीतिक लाभ उठाने पर आमादा हो जाएगी.
मस्जिद नष्ट होने के बाद उसकी प्रतिक्रिया में जैसे ही मुंबई में मुसलमान विरोधी हिंसा का तांडव शुरू हुआ और फिर मुस्लिम अंडरवल्र्ड की तरफ से बमों के धमाके हुए, तो इस पत्रकार को अपनी आशंकाएं सही होती प्रतीत हुईं. फिर सिमी जैसे संगठन बन गए, सावरकर के जमाने का अभिनव भारत दोबारा खड़ा करने की कोशिशें होने लगीं. यह नजारा स्पष्ट रूप से बताता था कि अब हिंदू और मुसलमानों की तरफ से दोतरफा आतंकवादी कार्रवाइयों का तांता लग जाएगा.
नतीजतन, भारत की स्थिति मध्य-पूर्व के किसी हिंसाग्रस्त देश जैसी हो जाएगी. शायद इन्हीं अंदेशों के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने एक कानून पारित करवाया था, जिसके चलते भविष्य में किसी अन्य धार्मिक स्थल के चरित्र को बदलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.
लेकिन, इस तरह कानूनों को खारिज करने के लिए सिर्फ संसदीय बहुमत की जरूरत होती है, और भाजपा के पास पिछले छह साल से पूर्ण बहुमत है. अगर भाजपा चाहती तो कम से कम इस कानून को बदलने की पहल ले सकती थी. भले ही कुछ तकनीकी अड़चनों के कारण कानून खारिज न हो पाता, लेकिन संघ परिवार इससे पैदा हुए विवाद का लाभ उठा कर नए सिरे से हिंदू-गोलबंदी करने के रास्ते पर चल सकता था.
हमें सोचना यह चाहिए कि भाजपा ने ऐसा क्यों नहीं किया? हमें यह भी सोचना चाहिए कि अगर संघ की तरफ से भाजपा पर ऐसा करने का दबाव पड़ता, तो क्या उसकी सरकार (चाहे वह अटल बिहारी वाजपेयी की हो या नरेंद्र मोदी की) यह कदम उठाने के लिए तैयार हो जाती?
इस प्रश्न के एक अनुमानित उत्तर के लिए हमें 31 दिसंबर, 2018 को दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस इंटरव्यू पर समीक्षात्मक निगाह डालनी चाहिए जिसमें उन्होंने संघ परिवार द्वारा मुखर रूप से की जा रही उस मांग को साफ तौर पर नकार दिया था कि अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के लिए सरकार को संसद के जरिये कानून बनवाना चाहिए.
इस इंटरव्यू से संबंधित घटनाक्रम को याद करना यहां जरूरी है. संघ परिवार न केवल सार्वजनिक मंच से इस तरह की मांग कर रहा था, बल्कि उसने रामलीला मैदान को अपने समर्थकों से भर भी दिया था. ये समर्थक सुप्रीम कोर्ट विरोधी झंडों और नारों का इस्तेमाल कर रहे थे. यह मोदी सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति थी. जाहिर है कि मोदी सरकार संघ की बात मानने से हिचक रही थी.
इस पूरे उथल-पुथल भरे घटनाक्रम के दौरान नरेंद्र मोदी लगातार चुप्पी साधे रहे और 2019 का चुनावी साल शुरू होने से एक दिन पहले उन्होंने संघ का यह प्रस्ताव मानने से इंकार कर दिया. उनका कहना यह था कि देर से करें या जल्दी, इस मसले के अदालती हल का सभी को इंतजार करना चाहिए. इसके पीछे कई राजनीतिक पहलू थे. संघ चुनावी साल में मंदिर मुद्दे को राजनीतिक रूप देकर पहलकदमी अपने हाथ में लेना चाहता था. संघ के स्वयंसेवक होने के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर संघ का प्यादा बनने के लिए तैयार नहीं थे.
इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर मुद्दे की चुनावी सक्षमता का आकलन कर लिया था. वे जानते थे कि यह मुद्दा उन्हें पूर्ण-बहुमत तो नहीं ही दिला पाएगा, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर अनदेखी समस्याएं अवश्य पैदा कर देगा. शायद उन्हें याद होगा कि 1992 में बाबरी-ध्वंस के बाद हुए चार राज्यों के (उत्तरप्रदेश, हिमाचल, मध्यप्रदेश और राजस्थान) चुनावों में भाजपा प्रचंड हिंदुत्ववादी जीत की कल्पनाओं के बावजूद हार गई थी.
राजस्थान में उसने निर्दलीयों की मदद से सरकार जरूर बना ली थी, लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठजोड़ के हाथों उसकी पराजय से इस सबसे बड़े प्रदेश में उसके पराभव के पच्चीस सालों की शुरुआत हो गई थी. मोदी 2014 में अपनी जीत और 2017 में उप्र विधानसभा चुनावों में हुई पार्टी की असाधारण जीत में राम मंदिर मुद्दे का कोई हाथ देखने के लिए तैयार नहीं थे.
इस हालिया इतिहास की रोशनी में गौर करने से संकेत मिलता है कि भाजपा की मौजूदा राजनीति हिंदू समाज में आए बहुसंख्यकवादी आवेग का लाभ तो उठाना चाहती है, और राज्य स्तर पर वह चुनाव के दौरान सांप्रदायिक कार्ड भी खेलती है (जैसे दिल्ली का चुनाव), लेकिन उसकी प्राथमिकता नब्बे के दशक की अयोध्या केंद्रित रणनीति से परहेज करने की है. जहां तक हिंदुत्ववादी राजनीति का सवाल है, वह जारी रहेगी, लेकिन उसके मुकाम मंदिर-मस्जिद केंद्रित न होकर अलग तरह के होंगे.