शरद जोशी का रचना: दार्शनिक के तीन बेटे और तीन आदर्श बंदर

By लोकमत न्यूज़ ब्यूरो | Published: October 27, 2018 12:32 PM2018-10-27T12:32:45+5:302018-10-27T12:34:43+5:30

दिवंगत लेखक शरद जोशी की हर हफ्ते छपने वाली रचनाओं की शृंखला में इस हफ्ते कहानी एक दार्शनिक और उसके तीन बेटों की।

Sharad Joshi Blogs: don't forget three ideals | शरद जोशी का रचना: दार्शनिक के तीन बेटे और तीन आदर्श बंदर

शरद जोशी का रचना: दार्शनिक के तीन बेटे और तीन आदर्श बंदर

एक वृद्ध दार्शनिक के तीन पुत्र थे। तीनों बड़े शैतान, बड़े चंचल, हैं मस्त। दार्शनिक की गंभीरता उन्हें निकट से भी छूकर  नहीं निकली थी। दार्शनिक को यह देख बड़ा क्रोध होता है कि उसके बेटे बुरी बातों में रुचि लेते हैं, बुरी बातें मुंह से करते हैं। उसने एक दिन तीनों को बुलाया। कहा, ‘तुम लोग इतने चंचल हो, जैसे बंदर होते हैं। पर क्या ही अच्छा होता यदि तुम तीनों आदर्श बंदरों की तरह होते और आदर्श बन जाते।’

तीनों बेटों को कुछ समझ में नहीं आया। उन्हें कभी समझ में आता ही नहीं था। पर जिज्ञासावश सबसे छोटे बेटे ने पूछा, ‘ये तीन आदर्श बंदर कौन से हैं, हमें भी बताइए?’

पिता ने वही तीन आदर्श बंदर बताए जिसमें एक ने बुराई न देखने के लिए आंखें बंद कर रखी हैं, दूसरे ने बुराई न सुनने के लिए कान बंद कर रखे हैं, तीसरे ने मुंह बंद कर रखा है कि वह किसी की बुराई न करे। पिता ने बताया कि इन बंदरों की तरह यदि तुम रहो तो कितना अच्छा हो। मेरी आत्मा प्रसन्न रहे।

तीनों बेटे सिर झुकाए रवाना हो गए। बड़ी देर तक कोई भी किसी से कुछ नहीं बोला। नदी किनारे बैठ काफी देर वे लहरों में पत्थर फेंकते रहे, फिर छोटे बेटे ने कहा कि अब मेरी इच्छा है कि पिताजी की आज्ञा मानूं और जीवनभर मुंह से कोई विचार प्रकट नहीं करूं। चाहे सच हो, पर बुराई नहीं करूं। दूसरे बेटे ने कहा कि मैं भी कान से किसी की बात नहीं सुनूंगा। तीसरे ने अपनी आंखों का उपयोग नहीं करना तय किया।

तीन बंदरों का आदर्श

तीनों आदर्श बंदर होने का तय करके नदी किनारे से उठे और पिताजी के पास खबर कहलवा दी कि आपके बेटे तीन आदर्श बंदरों की तरह रहने का निश्चय करके नौकरी की खोज में रवाना हो गए हैं।

 दार्शनिक पिता ने बड़े समय तक अपने बेटों की प्रतीक्षा की, पर वे नहीं आए। वह दुखी रहने लगा। पुस्तकों में उसका दिल नहीं लग पाया। एक दिन क्रोध में आकर उसने तीनों बंदरों की मूर्ति हटा दी। इन्हीं के कारण अपने बेटों से वह बिछुड़ गया था। फिर वह सोचने लगा कि अपने पिता के वचनों को इतनी निष्ठा से माननेवाले मेरे बेटे इतने बुरे नहीं थे, जितना कि उनका प्रचार था। यह दोष समाज का है। तब वह दार्शनिक पिता सबकी बुराई करने लगा। सबमें दोष देखने लगा। सबकी बुराइयों पर रुचि से कान देने लगा। दार्शनिक ने अनुभव किया कि इन दिनों उसका मनुष्य और समाज के संबंध में ज्ञान बढ़ रहा है। मेरे बेटों को भी ऐसा ज्ञान था। वे बुरे नहीं थे।

कुछ साल बाद तीनों आदर्श बेटे घर आए। उनके रूप-नक्श में फर्क आ गया था। वे पहचान में नहीं आते थे। पिता की आंखों में आंसू आ गए। पिता ने पूछा, ‘तुम लोग आजकल क्या कर रहे हो? कहां हो?’

सबसे बड़े बेटे ने कहा, ‘मैंने अपनी आंखों से कोई बुराई न देखने की प्रतिज्ञा की थी, मैं उसका पालन कर रहा हूं। मैं सरकारी प्रचारक हो गया हूं। आंख से कुछ नहीं देखता। सिर्फ जो कान से आज्ञा सुनता हूं, मुंह से प्रचार करता हूं।’ दूसरे बेटे ने कहा, ‘मैं नेता हो गया हूं। कान से किसी की प्रार्थना या बुराई नहीं सुनता। देश में घूमता हूं और मुंह से बोलता रहता हूं।’ तीसरे छोटे बेटे ने कहा, ‘तुम दोनों तो फिर भी ठीक हो। मैंने मुंह से कुछ बुराई नहीं बोलने का निर्णय कर लिया था। मैं अब सरकारी विभाग में क्लर्क हूं। बुराई कानों से सुनता हूं, आंखों से देखता हूं, पर मुंह से कुछ नहीं बोलता।’

(इस लेख का शीर्षक लोकमत न्यूज़ ने दिया है। कहानी का मूल शीर्षक 'तीन भूलें' है।)

Web Title: Sharad Joshi Blogs: don't forget three ideals

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