पानी के निर्यात से जुड़ी अर्थव्यवस्था का संकट, प्रमोद भार्गव का ब्लॉग
By प्रमोद भार्गव | Published: November 17, 2020 12:43 PM2020-11-17T12:43:09+5:302020-11-17T12:44:47+5:30
भारतीय शहरों में दिल्ली, कोलकाता, बेंगलुरु, मुंबई जैसे महानगरों समेत अनेक राज्यों की राजधानियां और औद्योगिक व व्यावसायिक इकाइयां इस सूची में शामिल हैं. ये शहर भविष्य में पानी की बड़ी किल्लत का सामना कर सकते हैं.
विश्व वन्य-जीव कोष ने ऐसे 100 शहरों को चिह्नित किया है जो राष्ट्रीय व वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. इनमें फिलहाल 35 करोड़ लोग निवास करते हैं, लेकिन 2050 तक इनकी आबादी 51 प्रतिशत तक बढ़ सकती है.
भारतीय शहरों में दिल्ली, कोलकाता, बेंगलुरु, मुंबई जैसे महानगरों समेत अनेक राज्यों की राजधानियां और औद्योगिक व व्यावसायिक इकाइयां इस सूची में शामिल हैं. ये शहर भविष्य में पानी की बड़ी किल्लत का सामना कर सकते हैं. दूसरी तरफ इसका विरोधाभासी पहलू है कि इन शहरों को बारिश में बाढ़ जैसे हालात से भी दो-चार होते रहना पड़ेगा. करीब दो दशकों से पर्यावरणविद लगातार इशारा कर रहे हैं कि शहरों में भूजल का बेतहाशा दोहन तो रोका ही जाए, साथ ही तालाबों, नदियों, कुओं और बावड़ियों का भी संरक्षण किया जाए.
जल संकट के सिलसिले में एक नया तथ्य यह भी आया है कि उन फसलों की पैदावार कम की जाए, जिनके फलने-फूलने में पानी ज्यादा लगता है. यही वे फसलें हैं, जिनका सबसे ज्यादा निर्यात किया जाता है, यानी बड़ी मात्ना में हम अप्रत्यक्ष रूप से पानी का निर्यात कर रहे हैं. धरती के तापमान में वृद्धि ने भी जलवायु परिवर्तन में बदलाव लाकर इस संकट को और गहरा दिया है. इससे पानी की खपत बढ़ी है और बाढ़ व सूखे जैसी आपदाओं में भी निरंतरता बनी हुई है.
खेती और कृषिजन्य औद्योगिक उत्पादों से जुड़ा यह ऐसा मुद्दा है, जिसकी अनदेखी के चलते पानी का बड़ी मात्ना में निर्यात हो रहा है. इस पानी को ‘वर्चुअल वाटर’ भी कह सकते हैं. दरअसल भारत से बड़ी मात्ना में चावल, चीनी, वस्त्न, जूते-चप्पल और फल व सब्जियां निर्यात होते हैं. इन्हें तैयार करने में बड़ी मात्ना में पानी खर्च होता है. अब तो जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारे यहां बोतलबंद पानी के संयंत्न लगाए हुए हैं, वे भी इस पानी को बड़ी मात्ना में अरब देशों को निर्यात कर रही हैं. इस तरह से निर्यात किए जा रहे पानी पर कालांतर में लगाम नहीं लगाई गई तो पानी का संकट और बढ़ेगा ही. जबकि देश के तीन चौथाई घरेलू रोजगार पानी पर निर्भर हैं.
आमतौर से यह भुला दिया जाता है कि ताजा व शुद्ध पानी तेल और लोहे जैसे खनिजों की तुलना में कहीं अधिक मूल्यवान है, क्योंकि पानी पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में 20 हजार डॉलर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक योगदान करता है. इस दृष्टि से भारत से कृषि और कृषि उत्पादों के जरिये पानी का जो अप्रत्यक्ष निर्यात हो रहा है, वह हमारे भूतलीय और भूगर्भीय दोनों ही प्रकार के जल भंडारों के दोहन का बड़ा सबब बन रहा है. दरअसल एक टन अनाज उत्पादन में 1000 टन पानी की जरूरत होती है.
चावल, गेहूं, कपास और गन्ने की खेती में सबसे ज्यादा पानी खर्च होता है. इन्हीं का हम सबसे ज्यादा निर्यात करते हैं. सबसे ज्यादा पानी धान पैदा करने में खर्च होता है. पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में 5389 लीटर पानी लगता है, जबकि इतना ही धान पैदा करने में पश्चिम बंगाल में करीब 2713 लीटर पानी खर्च होता है.
पानी की इस खपत में इतना बड़ा अंतर इसलिए है, क्योंकि पूर्वी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत में तापमान अधिक रहता है. इस कारण बड़ी मात्ना में पानी का वाष्पीकरण हो जाता है. खेत की मिट्टी और स्थानीय जलवायु भी पानी की कम-ज्यादा खपत से जुड़े अहम पहलू हैं. इसी तरह चीनी के लिए गन्ना उत्पादन में बड़ी मात्ना में पानी लगता है. गेहूं की अच्छी फसल के लिए भी तीन से चार मर्तबा सिंचाई करनी होती है.
इतनी तादाद में पानी खर्च होने के बावजूद चावल, गेहूं और गन्ने की बड़ी मात्ना में खेती इसलिए की जाती है, जिससे फसल का निर्यात करके मुनाफा कमाया जा सके. हमारे यहां यदि पानी का दुरुपयोग न हो तो उपलब्धता कम नहीं है. भूतलीय जलाशय, नदियों और भूगर्भीय भंडारों में अभी भी पानी है. इन्हीं स्रोतों से पेयजल, सिंचाई और पन-बिजली परियोजनाएं व उद्योगों के लिए जल की आपूर्ति हो रही है.
सबसे ज्यादा 70 प्रतिशत जल सिंचाई में खर्च होता है. उद्योगों में 22 फीसदी और पीने से लेकर अन्य घरेलू कार्यों में 8 फीसदी जल खर्च होता है. लेकिन नदियों व तालाबों की जल संग्रहण क्षमता लगातार घटने और सिंचाई व उद्योगों के लिए दोहन से सतह के ऊपर और नीचे जल की मात्ना लगातार छीज रही है. ऐसे में फसलों के रूप में जल का हो रहा अदृश्य निर्यात समस्या को और विकराल बना रहा है.