विजय दर्डा का ब्लॉग: डरें नहीं, मदद करें और जीवनरक्षक बनें
By विजय दर्डा | Published: February 11, 2019 03:06 PM2019-02-11T15:06:42+5:302019-02-11T15:06:42+5:30
एक स्वयंसेवी संस्था सेव लाइफ फाउंडेशन ने हाल ही में एक सव्रेक्षण किया। सव्रेक्षण देश के 11 बड़े शहरों में किया गया। इससे पता चला कि 84 प्रतिशत लोगों को पता ही नहीं कि सड़क दुर्घटना में घायल हुए लोगों की मदद करने पर हमें कानूनन कैसा संरक्षण एवं सुविधा मिली हुई है।
हमारे देश में अक्सर यह नजारा देखने को मिल जाएगा कि सड़क दुर्घटना के बाद कोई व्यक्ति सड़क पर तड़पता पड़ा है। लोग उसे तड़पता हुआ देखते रहेंगे मगर उसे तुरंत अस्पताल पहुंचाने के लिए कोई आगे नहीं आएगा। घायल व्यक्ति देखते-देखते दम तोड़ देता है। उसकी जान जाने के बाद लोग आगे बढ़ते हैं। शायद इसीलिए जोश मलीहाबादी ने कहा है-
जंगलों में सर पटकता
जो मुसाफिर मर गया
अब उसे आवाज देता
कारवां आया तो क्या
मैं और मेरा परिवार खुद ऐसे हादसे के वक्त सहायता का हाथ बढ़ाने के प्रति नागरिकों की उदासीनता के भुक्तभोगी रहे हैं। हाल ही में मेरी बहू रचना 6 लेन वाले मथुरा-दिल्ली हाईवे पर कार से जा रही थी। मेरे दिल्ली के कार चालक गजेंद्र सिंह कार चला रहे थे। अचानक उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ और साथ ही दिल का दौरा भी पड़ा। ऐसी हालत में भी वह 100 से 120 कि।मी। की रफ्तार से दौड़ रही कार को पहली लेन पर लाए। उन्होंने गाड़ी खड़ी की और स्टेयरिंग पर सिर रखकर बेहोश हो गए। अगर तीसरे या चौथे लेन पर ही वह बेहोश हो जाते तो भयावह हादसा हो सकता था। मगर उन्होंने वाहन को सुरक्षित जगह ले जाकर रोका। उनके बेहोश होते ही रचना गाड़ी से तुरंत नीचे उतरी। करीब पंद्रह मिनट तक वहां से गुजरने वाले वाहनों को हाथ देकर सहायता की गुहार करती रही मगर कोई नहीं रुका। इसी बीच दो लोग रुके। तब तक मैं भी अपने सुपुत्र देवेंद्र के साथ वहां पहुंच गया था। हम गजेंद्र को अस्पताल ले गए। मगर तब तक उनकी सांसें थम गई थीं। वो पंद्रह मिनट गजेंद्र की जिंदगी बचा सकते थे। बशर्ते रचना की पुकार सुनकर कोई गाड़ी रोक देता और मरीज को अस्पताल पहुंचा देता।
एक स्वयंसेवी संस्था सेव लाइफ फाउंडेशन ने हाल ही में एक सव्रेक्षण किया। सव्रेक्षण देश के 11 बड़े शहरों में किया गया। इससे पता चला कि 84 प्रतिशत लोगों को पता ही नहीं कि सड़क दुर्घटना में घायल हुए लोगों की मदद करने पर हमें कानूनन कैसा संरक्षण एवं सुविधा मिली हुई है। यहां तक कि पुलिस कर्मचारी। डॉक्टरों। वकीलों तथा अस्पताल के कर्मचारियों तक को इस बारे में जानकारी नहीं है।
मैं इस सव्रेक्षण से पूरी तरह सहमत हूं। यह सव्रेक्षण स्पष्ट कर देता है कि सड़क दुर्घटना में घायलों की मदद करने के लिए लोग हिचकिचाते या डरते क्यों हैं? लोगों के मन में पुलिस का खौफ रहता है। हर आदमी सोचता है कि उसके साथ ‘आ बैल मुङो मार’ की कहावत चरितार्थ होगी। पुलिस दुर्घटना के बारे में उससे बार-बार पूछताछ करेगी। थाने के चक्कर कटवाएगी। सहायता कर किसी की जान बचाने के बदले उसके साथ अपराधियों जैसा बर्ताव करेगी। अगर किसी ने घायल को पास के अस्पताल पहुंचा भी दिया तो वहां के डॉक्टरों तथा कर्मचारियों का रवैया यही रहता है कि यह तो पुलिस केस है। झंझट में कौन पड़े। एक जिंदगी को बचाने का एहसास ही अद्भुत होता है मगर फिर भी हम संवेदनशून्य हैं। मदद के प्रति उदासीन हैं। इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारें दोषी हैं। सड़क दुर्घटना में घायल होने वाले व्यक्ति की प्राणरक्षा के लिए आगे बढ़ने वालों को नियम-कायदों के जरिये पर्याप्त संरक्षण मिला हुआ है। सहायता करने वाले से पुलिस निजी जानकारी नहीं मांग सकती। उसे बयान देने या पूछताछ के नाम पर बार-बार थाने नहीं बुला सकती। निजी या सरकारी अस्पतालों को भी छूट है कि वह पुलिस के मामला दर्ज करने का इंतजार न करें और तत्काल घायल का इलाज शुरू कर दें। मैं इस मामले में दिल्ली पुलिस तथा दिल्ली सरकार को बधाई देना चाहूंगा। वहां की सरकार तथा पुलिस मीडिया का भरपूर उपयोग कर सड़क दुर्घटनाओं से बचने के उपाय एवं घायलों को मदद करने पर प्राप्त कानूनी संरक्षण पर लगातार जनजागृति करती रहती हैं। केंद्र तथा अन्य किसी भी राज्य सरकार को मैंने इस मामले में संवेदनशील नहीं देखा। मुंबई पुलिस ने तो दो-चार होर्डिग लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली।
सड़क दुर्घटनाओं में घायल होने वालों की लोग मदद तो करना चाहते हैं मगर उन्हें अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी ही नहीं है। वे आज भी यही समझते हैं कि सहायता करने पर पुलिस उन्हें ही फंसा देगी। अशिक्षित ही नहीं उच्च शिक्षित वर्ग तक इसी अज्ञानता के कारण चाहते हुए भी घायलों की मदद नहीं कर पाते। इसके कारण हर साल हजारों घायलों की जीवनयात्र बीच में ही खत्म हो जाती है। घायलों की मदद करने पर आपको किस तरह कानूनी संरक्षण मिला हुआ है। इसका व्यापक प्रचार-प्रसार केंद्र एवं राज्य सरकारों को युद्धस्तर पर करना चाहिए। सामाजिक एवं शैक्षणिक संगठनों को शिक्षा संस्थाओं एवं बस्तियों में जा-जाकर इस कार्य में सहयोग देना होगा। बहरहाल मेरी आप सबसे अपील है। बाधाएं जो भी हों। मदद के लिए आगे आएं और जान बचाएं ताकि इंसानियत के इस दम तोड़ते दौर में लोग कह सकें-
चंद हाथों में ही सही महफूज है
शुक्र है इंसानियत का भी वजूद है।