पड़ोसियों के संरक्षक की भूमिका क्यों नहीं निभाते
By राजेश बादल | Published: October 8, 2019 08:00 AM2019-10-08T08:00:00+5:302019-10-08T08:00:00+5:30
पिता का संघर्ष नतीजे पर नहीं पहुंच सकता था बशर्ते भारतीय प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी ने समर्थन न दिया होता. शेख साहब और उनके समूचे परिवार को जिस तरह मार डाला गया,
हिंदुस्तान के इन दिनों सबसे भरोसेमंद माने जाने वाले मुल्क बांग्लादेश की प्रधानमंत्नी शेख हसीना चार दिन भारत में रहीं. यह देश उनके लिए अपने घर से भी बढ़कर है. इसी देश ने उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान के सपने को एक देश की शक्ल में उपहार के तौर पर 1971 में इस दुनिया को सौंपा था. पिता का संघर्ष नतीजे पर नहीं पहुंच सकता था बशर्ते भारतीय प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी ने समर्थन न दिया होता. शेख साहब और उनके समूचे परिवार को जिस तरह मार डाला गया, वह देश में एक बार फिर अस्थिरता का बीज बो गया. शेख हसीना उन दिनों यूरोप में थीं और फिर हिंदुस्तान आकर छह बरस रहीं. इंदिरा गांधी ने भरपूर सहायता की और जब वे वतन लौटीं तो उनकी ताजपोशी के साथ भी हिंदुस्तान का समर्थन था. शेख हसीना ने आज अपनी संकल्प शक्ति के बूते देश का कायापलट कर
दिया है.
सवाल यह है कि इतना करीबी रिश्ता होते हुए भी हम उसके साथ बेहतरी का ग्राफ स्थायी क्यों नहीं रख पाते. संबंधों की निरंतरता भंग क्यों हो जाती है- यह लगातार एक पहेली है. पिछले दो दशक से दोनों देशों के संबंधों में वह जोशीली गर्माहट नहीं दिखाई दे रही है. आम बांग्लादेशी भी भारत को लेकर बहुत सहज महसूस नहीं करता. उसके निवासियों से लेकर राजनयिकों तक में किसी किस्म का कृतज्ञ भाव क्यों नहीं है - यकीनन भारत को इसकी पड़ताल करने की जरूरत है. इस बार शेख हसीना की यात्ना में दोनों मुल्कों के बीच समझौतों की शतकीय साङोदारी हो चुकी है. यह तो बांग्लादेश के लोग भी समझते हैं कि वे भारत की कोख से ही निकले हैं और जिस शिखरपुरुष रवींद्रनाथ टैगोर ने हिंदुस्तान को राष्ट्रगान दिया है, उसी ने बांग्लादेश को भी राष्ट्रगान दिया है. लेकिन उनके मन में वह सहोदर भाव नहीं है? मैं 2006 में अमेरिका गया था. वहां बांग्लादेश के कुछ पत्नकार मित्नों के साथ लंबे समय तक रहना हुआ. मैंने पाया कि वे मिलते तो अच्छे ढंग से हैं मगर रवैया वैसा नहीं है, जैसा मैं सोचता था. चंद रोज बाद मुङो लगा कि
रिश्तों में अनौपचारिकता आ गई है और मैं उनसे कारण पूछ सकता हूं. एक शाम मैंने पूछा तो उन्होंने खुलकर जवाब दिया. अर्थ यह था कि हम अपने जन्म की दास्तान और उसमें हिंदुस्तान का एहसान कभी नहीं भूल सकते. पर यह भी सच है कि हम तो भारत के ही बच्चे थे. लेकिन भारत से हमें वह निदरेष प्यार नहीं मिला, जो एक जन्मदाता को देना चाहिए. हमसे यह उम्मीद की जाती रही कि हम चौबीस घंटे इस उपकार को मानें. आपने न एक छोटे भाई का मान दिया और न एक सीमा से आगे सहयोग किया. आप हमारे संरक्षक बन सकते थे. क्यों नहीं बने? इस कारण आज हम चीन की तरफ हसरत भरी निगाहों से ताकते हैं तो वह भी आपको सहन नहीं होता. हम कहां जाएं?
उनकी बात सच है. रोहिंग्या के मामले में पहेली और पेंच खुद हिंदुस्तान के लोग नहीं समझ सके हैं कि आखिर भारत ने कूटनीतिक उदासीनता क्यों बरती. म्यांमार और बांग्लादेश के बीच चीन ने न्यूयॉर्कमें समझौता कराया तो हमारे विदेश मंत्नालय के लिए क्या यह बड़ा झटका नहीं था. यह काम हिंदुस्तान क्यों नहीं कर सकता था? म्यांमार और बांग्लादेश की नेत्रियों को एक मंच पर लाना कठिन नहीं था. फिर हमारे कान क्यों खड़े नहीं हुए? जिन परियोजनाओं में भारत की भागीदारी हो सकती थी, वे चीन की ओर जाती दिखाई दे रही हैं. तीस्ता जल विवाद भी ठंडे बस्ते में अटका हुआ है. प्याज निर्यात पर रोक लगाने से मित्न देशों की रसोई अगर ठंडी पड़ती है तो उसका कारण हमें समझना होगा. शेख हसीना का चुनाव जीतना अगर हमें सुखद लगता है तो उनके सरोकारों की रक्षा भी हमारे दायित्वों में शामिल है. यह बात हमें समझनी होगी.
दरअसल बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और भूटान एक तरह से स्वतंत्न देश होते हुए भी भारतीयों को पराए से कभी नहीं लगते रहे हैं. मगर हालिया वर्षो में नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ एक खास किस्म का ठंडापन आया है. इसे कोई नकार नहीं सकता.
शेख हसीना की तरह ही आंग सान सू ची का मामला है. भारत सू ची का दूसरा घर है. उनकी पढ़ाई इस देश में हुई है. म्यांमार में लोकतंत्न बहाली के लिए उनका संघर्ष भारत की मदद से ही परवान चढ़ा. आज जिस ताकतवर स्थिति में वे हैं, उसकी नींव तो हिंदुस्तान में ही पड़ी थी. लेकिन क्या किसी को याद है कि पिछली बार वे भारत कब आई थीं. हमारे इस खूबसूरत पड़ोसी मुल्क ने आतंकवाद के खिलाफ हरदम साथ दिया है. मगर कोई कितना ही छोटा देश क्यों न हो उसे अपनी सार्वभौमिकता की चिंता करनी ही होती है. एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल में म्यांमार की सीमा में जाकर भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की थी तो म्यांमार ने साथ दिया था. छोटा देश ही सही, लेकिन अपने लोगों के बीच उसे भी उत्तर देना होता है. हमारे रक्षा और कूटनीतिक हलकों में इस स्ट्राइक पर जिस तरह गाल बजाए गए, सू ची को पसंद नहीं आया. इसके बाद रोहिंग्या मामले में भी हमारी नीति विकलांगता के चलते चूक गई. चीन दोनों देशों की पंचाट का चौधरी बन बैठा. म्यांमार का ठंडापन भारत के लिए संतोष जनक नहीं कहा जा सकता.