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ब्लॉग: क्यों लगातार बढ़ रही हैं पहाड़ी शहरी भारत में भूमि धंसने की घटनाएं?

By वरुण गांधी | Updated: February 17, 2023 08:25 IST

हिमालयी शहरों और पश्चिमी घाटों में भूमि उपयोग की योजना बनाते समय अक्सर गलत आकलन किया जाता है और ये सब ढलान अस्थिरता को बढ़ाते हैं.

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जोशीमठ के पहाड़ में 24 दिसंबर, 2009 को एक टनल बोरिंग मशीन ड्रिलिंग ने एक एक्वीफर (जलभृत) को पंचर कर दिया. यह वहां सेलंग गांव से तीन किमी की दूरी पर हुआ. नतीजतन 700-800 लीटर प्रति सेकंड की दर से पानी छोड़ा गया. यह पानी 20-30 लाख लोगों के प्रतिदिन की जरूरत लिए पर्याप्त था. इसके बाद जोशीमठ में भूजल स्रोत सूखने लगे. कालांतर में जल निर्वहन कम तो हुआ, लेकिन कभी बंद नहीं हुआ.

इस बीच, पहाड़ी ढलान पर भूस्खलन के जमाव से बने जोशीमठ में अपशिष्ट जल प्रबंधन की कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे में वहां की अधिकतर इमारतों में सोकपिट बने हैं. इससे सीवेज जमीन में प्रवेश करता है और यह भूमि के संभावित डूब को बढ़ाता है. इसके अलावा वहां चल रही बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं ने स्थिति की भयावहता को और बढ़ा दिया है. 

तपोवन-विष्णुगढ़ बांध और हेलंग-मारवाड़ी बाईपास रोड ऐसी ही परियोजनाएं हैं. यह अपूरणीय क्षति आने वाले बुरे समय की बानगी है.

अफसोस की बात है कि पहाड़ी शहरी भारत में भूमि धंसने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. भारत का 12.6 फीसदी भूमि क्षेत्र भूस्खलन प्रवण क्षेत्र में आता है. इनमें से कुछ सिक्किम, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड आदि के पहाड़ी शहरी क्षेत्रों में आते हैं. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के अनुसार अर्बन पालिसी इस स्थिति को और भी बदतर बना देती है. ऐसे में निर्माण अक्सर उन नियमों के तहत होते हैं जो स्थानीय भूगर्भीय और पर्यावरणीय कारकों की अनदेखी करते हैं. 

इस कारण हिमालयी शहरों और पश्चिमी घाटों में भूमि उपयोग की योजना बनाते समय अक्सर गलत आकलन किया जाता है और ये सब ढलान अस्थिरता को बढ़ाते हैं. नतीजतन इन क्षेत्रों में भूस्खलन की भेद्यता काफी बढ़ गई है. यह स्थिति खासतौर पर सुरंग निर्माण से और गंभीर हो गई है, जो रॉक फॉरमेशंस को खतरनाक रूप से कमजोर करता है.

भू-धंसाव के संबंध में शहरी लचीलापन बढ़ाने की दिशा में पहला कदम विश्वसनीय डेटा की दरकार पर ध्यान देना है. हमें भूस्खलन जोखिम को एक विस्तृत स्तर पर मैप करने की जरूरत है. इस सिलसिले में भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने एक राष्ट्रीय मानचित्रण अभ्यास किया है. शहरी नीति निर्माताओं को अतिरिक्त विवरण और स्थानीयकरण के साथ इसे और आगे ले जाने की आवश्यकता है. 

भूमि धंसने के अलावा बाढ़ का खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है. अगस्त, 2019 में महाराष्ट्र के डोंबिवली में पलावा शहर (फेज I और II) में बाढ़ आ गई थी. फेज-I के अधिकांश हिस्से में तो 5 फुट पानी तक भर गया था. लगातार बारिश के कारण वाहन तक पानी में डूब गए और बिजली आपूर्ति थम गई थी. वहां रहने वाले लोग अपने फ्लैटों में तब तक फंसे रहे जब तक कि पंपों का उपयोग करके पानी नहीं निकाला गया. 

मौसमी बहाव की तीव्रता में वृद्धि का ग्राफ और मौसमी बाढ़ का प्रभाव एक साधारण तथ्य से बिगड़ गया था. दरअसल 4,500 एकड़ में फैला यह इलाका मोथाली नदी के बाढ़ के मैदान पर बसाया गया था. जब नियोजित टाउनशिप को मंजूरी दी जाती है तो प्राकृतिक खतरों के प्रति चिंता की स्पष्ट कमी से ऐसी घटनाएं होना तय है. इस तरह की स्थिति का सामना अन्य जगहों पर भी कैसे करना पड़ा है, इस बारे में लोग अवगत हैं. जुलाई 2021 में पणजी बाढ़ से प्रभावित हुआ. लगातार बारिश के कारण स्थानीय नदियां उफान पर आ गईं और घरों में बाढ़ आ गई.

इस बीच, अन्य शहरों को निकट भविष्य में बाढ़ के उच्च जोखिम का सामना करना पड़ सकता है. दिल्ली में यमुना बाढ़ के मैदान में 9,350 परिवार रहते हैं. आईपीसीसी की मार्च 2022 की रिपोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि समुद्र के जल स्तर में वृद्धि और बाढ़ के कारण कोलकाता को धंसने के एक गंभीर जोखिम का सामना करना पड़ा. खराब शहरी नियोजन और जलवायु परिवर्तन से घिरने का मतलब यह होगा कि हमारे शहर हमेशा बाढ़ से घिरे रहेंगे.

जाहिर है कि हमारे शहरों को बाढ़-रोधी उपायों की आवश्यकता होगी. शहरी योजनाकारों को स्थानीय जल निकायों, नहरों व नालों को भरने के लिए दबाव कम करना होगा और सीवेज और तूफानी जल निकासी नेटवर्क को बेहतर करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा. विशेष रूप से मौजूदा सीवेज नेटवर्क के कवरेज और गहराई में विस्तार करने की जरूरत है, ताकि इसे निचले इलाकों से अपशिष्ट जल को निकालने में सक्षम बनाया जा सके. 

बाढ़-प्रतिरोधी निर्माण के साथ-साथ बाढ़ चेतावनी प्रणाली के सुदृढ़ीकरण पर अधिक खर्च करना आवश्यक है. इसके अलावा, ‘ब्लू इन्फ्रा’ क्षेत्रों की रक्षा पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है, यानी ऐसे स्थान जो सतह के अपवाह को अवशोषित करने के लिए प्राकृतिक स्पंज के रूप में कार्य करते हैं, जिससे भूजल को रिचार्ज किया जा सके. 

शहरी भारत को इस तरह के जोखिम उठाने की जरूरत नहीं है. यदि हमारे शहर प्राकृतिक खुली जगहों को बढ़ाने के लिए पर्यावरण नियोजन को सक्रिय रूप से शामिल करें तो हम कई जोखिमों को कम कर सकते हैं.

टॅग्स :उत्तराखण्डभूस्खलनबाढ़
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