विचार: धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली राजनीति पर लगनी चाहिए लगाम, बड़े नेताओं ने भी नहीं रखा संवैधानिक मूल्यों का ख्याल

By विश्वनाथ सचदेव | Published: May 6, 2021 01:19 PM2021-05-06T13:19:39+5:302021-05-06T22:31:20+5:30

पश्चिम बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु और पुडुचेरी विधानसभा चुनाव के नतीजे दो मई को घोषित हुए। चुनाव के दौरान विभिन्न कई नेताओं ने धर्म के नामपर जमकर वोट माँगे।

west bengal election saw religious polarisation by leading political leaders even election commission seem biased | विचार: धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली राजनीति पर लगनी चाहिए लगाम, बड़े नेताओं ने भी नहीं रखा संवैधानिक मूल्यों का ख्याल

सार्वजनिक हिंसा की प्रतीकात्मक तस्वीर

विधानसभा चुनाव तो देश के पांच राज्यों में हुए थे, पर देश भर की निगाहें पश्चिम बंगाल पर थीं. परिणाम सामने है. भाजपा दक्षिण में पैर रखने की जगह तलाश रही थी. पुडुचेरी में उसे पैर का अंगूठा टिकाने की जगह मिल गई है. तमिलनाडु और केरल दोनों जगह भाजपा की सारी कोशिशें नाकामयाब रही हैं. असम में वह अपनी स्थिति मजबूत बनाए रखने में सफल हो गई है. लेकिन प. बंगाल में, जहां लड़ाई सबसे महत्वपूर्ण और सबसे भीषण थी, भाजपा की सारी कोशिशें विफल रही हैं. भाजपा के सारे दिग्गज बंगाल में दो सौ से अधिक सीटें अपनी झोली में होने के दावे कर रहे थे, पर वे सारे दावे खोखले सिद्ध हुए. दो सौ से अधिक सीटें ‘दीदी’ की पार्टी को मिलीं. पर क्या यह सारा ‘खेला’ दो पार्टियों की हार-जीत का ही था?  उत्तर है, नहीं.

पश्चिम बंगाल में भाजपा ही नहीं हारी, और भी बहुत कुछ हारा है और सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ही नहीं जीती, और भी बहुत कुछ जीता है इस लड़ाई में. और यह ‘और भी’ उससे कहीं महत्वपूर्ण है जो चुनावों में हारा-जीता जाता है. प. बंगाल के इस चुनाव में देश पर एकछत्र राज का सपना देखने वाली भाजपा ने अपनी सारी ताकत झोंकी थी. उसकी रैलियां उस अवधि में हुईं जबकि देश कोरोना की दूसरी लहर (पढ़िए सुनामी) को ङोल रहा था. यह समय महामारी के खिल़ाफ युद्ध लड़ने का था. सवाल पूछा गया था, और अब भी पूछा जा रहा है कि सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को इस चुनाव को स्थगित करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए था? क्या आसमान टूट पड़ता यदि ये चुनाव दो-चार महीने बाद होते? भीड़-भरी रैलियों में अपनी लोकप्रियता और सफलता देखने वाले हमारे राजनेताओं को कहीं नहीं लगा कि यह भीड़ कोरोना को निमंत्रण देने वाली है! यह विडंबना ही है कि सारे चुनाव अभियान में एक बार भी कोरोना का नाम न लेने वाली ममता दीदी की नई सरकार को सबसे पहले अपने राज्य में कोरोना से जूझना पड़ रहा है. उन्होंने सही कहा कि यह उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता है, पर सही यह भी है कि पिछले एक-दो माह में कोरोना के खतरे को नजरंदाज कर हमारे नेताओं ने आपराधिक काम किया है.  

बहरहाल, बंगाल के इस चुनाव में दांव पर हमारे संवैधानिक मूल्य भी थे. हमारा देश पंथ-निरपेक्ष है. हमारा संविधान हर धर्म को पनपने का अवसर देने का वादा करता है. हमारी परंपरा यह कहती है कि राजनीतिक वर्चस्व के लिए किसी को भी धर्म का सहारा लेने की आजादी नहीं दी जानी चाहिए. इसके बावजूद हमने देखा कि धर्म के नाम पर खुलेआम वोट मांगे गए. चुनाव से पहले या चुनाव के बाद किसी उपासना-स्थल पर जाना तो फिर भी समझ में आता है, पर चुनाव-प्रसार के दौरान किसी के हिंदू होने पर शक करना या किसी को मुस्लिम परस्त बताना धर्म के दुरुपयोग का उदाहरण ही माना जाना चाहिए. प. बंगाल के इस चुनाव में हमारे बड़े नेताओं ने इस दुरुपयोग के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं.  

चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका पर संदेह

इस संदर्भ में चुनाव आयोग की भूमिका भी संदेह के घेरे में है. पहली बात तो यह कि इस समय पर, और इस तरह से, चुनाव कराने का निर्णय ही संदेहास्पद बना हुआ है. ममता बनर्जी की पार्टी ने तो शुरू में ही आरोप लगाया था कि आठ चरणों में चुनाव कराने का निर्णय भाजपा के संकेत पर लिया गया है. आयोग की कार्रवाई के पीछे तर्क दिए जा सकते हैं, पर संदेह का आधार भी कमजोर नहीं है. चुनाव आयोग का निष्पक्ष होना ही नहीं, निष्पक्ष दिखना भी जरूरी है, और इस कसौटी पर, दुर्भाग्य से हमारी यह संवैधानिक संस्था सफल होती नहीं दिख रही.  ‘जय श्रीराम’ और ‘चंडी-पाठ’, दोनों का स्थान बहुत ऊंचा है. हमारे राजनेताओं ने चुनावों के लिए इनका उपयोग करके महत्ता को कम करने की ही कोशिश की है. भला हो मतदाता का कि उसने नेताओं की यह कोशिश सफल नहीं होने दी. पर हमें सोचना होगा कि भविष्य में धार्मिक भावनाओं को उभारने की राजनीति पर किस तरह रोक लगाई जाए.  

धर्म के नाम पर मतदाताओं को बांटने और ध्रुवीकरण करने की यह राजनीति हमारे संवैधानिक मूल्यों और सहअस्तित्व की हमारी परंपराओं से मेल नहीं खाती. हमारा बहुधर्मी समाज होना और पंथ-निरपेक्षता हमारी ताकत है. धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले हमारी इस ताकत को कमजोर कर रहे हैं. हमारी संवैधानिक मर्यादाओं का भी तकाजा है कि हम राजनीतिक लाभ के लिए धर्म का सहारा लेने वालों को प्रश्रय न दें.  

एक बात और जो हमारे राजनेताओं को याद रखनी चाहिए, वह यह है कि भाषा की शालीनता और मर्यादा सार्वजनिक जीवन में शुचिता की महत्वपूर्ण शर्त है. भाजपा भले ही स्वीकारे या न स्वीकारे, पर उसने इस चुनावी लड़ाई में ‘दीदी’ शब्द की महत्ता को नहीं समझा. बंगाल की महिलाओं ने इसे अपनी संस्कृति की उपेक्षा, या कहना चाहिए संस्कृति के अपमान के रूप में लिया. कम से कम अब तो हमारे नेताओं को यह समझ आ ही जाना चाहिए कि क्षेत्र-विशेष की संस्कृति की दुहाई देने और उसका आदर करने में अंतर होता है. बंगाल के मतदाता ने हमारे राजनेताओं को यह अंतर समझाने की कोशिश की है. वे कितना समझते हैं, यह वही जानें, पर यह तय है कि इस चुनाव में, और चार अन्य राज्यों के चुनाव में भी, मतदाता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसकी उपेक्षा या उसे कमतर आंकना, उसे स्वीकार नहीं है.

Web Title: west bengal election saw religious polarisation by leading political leaders even election commission seem biased

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