"वंदेमातरम् का जो गायक नहीं, यहाँ रहने के वो लायक नहीं - उसे नष्ट करने की खाते हैं क़सम!"
By विवेक सत्य मित्रम् | Published: October 24, 2019 06:20 PM2019-10-24T18:20:25+5:302019-10-24T18:54:43+5:30
दो साल बाद जारी हुए NCRB (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के साल 2017 के आँकड़ों के मुताबिक़ पूरे देश में साल भर में 28,653 हत्या के मामले रजिस्टर हुए।
नमस्कार,
आज के प्रमुख समाचार इस प्रकार हैं —
पहला समाचार —
मुर्शिदाबाद में हुए बंधु प्रकाश पाल, उनकी गर्भवती पत्नी और उनके 8 साल के बेटे के ‘ट्रिपल मर्डर’ को बिजली की फुर्ती से महज़ हफ्ते भर में सुलझा लिया गया।
क्योंकि सोशल मीडिया पर इस मामले को ‘हिंदू-मुस्लिम’ रंग दिया जा रहा था — और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को इस नैरेटिव से राजनीतिक ख़तरा था।
ख़ैर, हत्या की गुत्थी सुलझ गई — मुर्शिदाबाद जैसे मुस्लिम बहुल इलाके में हुई इस वारदात का कथित हत्यारा एक हिंदू ही निकला जिसने 48,000 रूपयों को लेकर हुए विवाद की वजह से इन हत्याओं को अंज़ाम दिया था।
इस मामले में मीडिया के एक वर्ग समेत, तमाम दक्षिणपंथी संगठन और इनके फ़ॉलोवर्स का एक समूह कहता रहा कि बंधु प्रकाश पाल का संबंध आरएसएस से था जिसे कथित तौर पर उनका परिवार झुठलाता रहा।
आरएसएस/बीजेपी और दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों को राज्य की पुलिस और ममता बनर्जी की सरकार पर भरोसा नहीं है और वो अभी भी कह रहे हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार असली आरोपियों को बचा रही है — उन्हें यक़ीन है कि इस हत्या में हिंदू नहीं मुसलमानों का हाथ है।
दूसरा समाचार —
लखनऊ में दिनदहाड़े हुई हिंदू समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कमलेश तिवारी की हत्या के मामले की गुत्थी महज़ 24 घंटे में ही सुलझा ली गई और रिकॉर्ड 3 दिन के भीतर हत्या की साज़िश रचने वाले 5 व्यक्तियों के साथ-साथ 2 कथित हत्यारों को भी गिरफ़्तार कर लिया गया।
क्योंकि सोशल मीडिया में इस बात के लिए योगी सरकार की थू-थू हो रही थी कि उनके राज में हिंदू नेता तक सुरक्षित नहीं और बीजेपी/आरएसएस के समर्थक खुलकर कहने लगे थे कि चूँकि कमलेश तिवारी ने 2015 में हज़रत मोहम्मद साहब पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी इसलिए निश्चित तौर पर कट्टरपंथी मुस्लिमों ने उस घटना का बदला लेने के लिए इस वारदात को अंज़ाम दिया।
ख़ैर दक्षिणपंथी लोगों की आशंका सही साबित हुई। हत्या के मुख्य आरोपियों अशफ़ाक और मोइनुद्दीन समेत कुल 7 लोगों की ताबड़तोड़ गिरफ़्तारियाँ हुईं जिनमें एक भी हिंदू नहीं था, सब के सब मुसलमान निकले। पता चला कि जो वजह सोशल मीडिया में पहले से बताई जा रही थी, वही सही है। मोहम्मद साहब के अपमान का बदला लेने के लिए कमलेश तिवारी की नृशंस हत्या हुई।
इस मामले में कमलेश तिवारी की मां ने कुछ हिंदू नेताओं का नाम लिया जिनसे कमलेश तिवारी के संबंध ठीक नहीं रहे और उनकी सुरक्षा वापस लिए जाने को लेकर राज्य की बीजेपी सरकार से नाराज़गी जताई जिसकी मीडिया कवरेज को दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की तरफ़ से प्रोपेगेंडा करार दिया गया और कहा गया कि कमलेश तिवारी की माँ दुख में ऐसी बातें कर रही हैं। एक ख़बर ये भी आई कि उनके परिवार से मीडिया वालों के मिलने जुलने पर पाबंदी लगा दी गई है।
वामपंथी बुद्धिजीवियों को यूपी पुलिस के दावे पर भरोसा नहीं है और वामपंथी/ सेकुलर/ लिबरल लोगों के एक बड़े तबके को लगता है कि पकड़े गए सभी 7 आरोपी बेगुनाह हैं और हिंदूवादी संगठनों/ दक्षिणपंथी लोगों के गुस्से को शांत करने के लिए इन्हें सिर्फ़ इसलिए फंसाया जा रहा है क्योंकि वो मुसलमान हैं।
तीसरा समाचार —
दो साल बाद जारी हुए NCRB (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) के साल 2017 के आँकड़ों के मुताबिक़ पूरे देश में साल भर में 28,653 हत्या के मामले रजिस्टर हुए। कई ख़बरें पढ़ीं, सुबह से शाम तक सोशल मीडिया पर नज़र रखी पर ना तो मीडिया में इस बारे में कोई जानकारी दिखी और ना ही वामपंथी/दक्षिणपंथी लोगों, बीजेपी/आरएसएस के समर्थकों या विरोधियों के सोशल मीडिया पर इस बारे में कोई जानकारी दिखी कि हत्या के इन 28,653 मामलों में से कितने हत्या के मामलों की गुत्थी पिछले दो सालों में पुलिस सुलझा पाई है? और कितने मामलों में कथित हत्यारे पकड़े जा चुके हैं।
एक और जानकारी मिली की साल 2016 में दर्ज़ हुए हत्या के मामलों के मुक़ाबले साल 2017 में दर्ज़ हुए हत्या के मामलों में कुल 5.9% की गिरावट दर्ज़ की गई है और ये बात मीडिया में छपी लगभग सभी ख़बरों में प्रमुखता से बताई गई। हालाँकि ‘सरकार ने एनसीआरबी रिपोर्ट में मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर कोई आंकड़ा जारी नहीं किया’ इस आशय की कई ख़बरें अलग-अलग वेबसाइट्स पर दिखीं और कई सेकुलर/लिबरल किस्म के लोग/ वामपंथी विचारधारा के समर्थक इस ख़बर को सोशल मीडिया पर शेयर करते नज़र आए।
आज के समाचार समाप्त हुए। नमस्कार!
(अतिसंक्षिप्त) लेखक परिचय:
इस समाचार के लेखक विवेक सत्य मित्रम् पेशे से स्वतंत्र पत्रकार हैं। धर्म से हिंदू। जाति से ब्राह्मण। इनकी आरंभिक शिक्षा-दीक्षा सरस्वती शिशु मंदिर से हुई। बीए करते हुए वामपंथी संगठनों से इनका संक्षिप्त जुड़ाव रहा। ये बीजेपी के पारंपरिक वोटर हैं। बतौर पत्रकार मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों समेत नोटबंदी, जीएसटी और बुलेट ट्रेन चलाने जैसे फ़ैसलों के कट्टर आलोचक रहे हैं और धारा 370 और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मामलों में सरकार के फैसलों का बचाव करते रहे।
बचपन में रामायण/महाभारत इन्हें कंठस्थ हुआ करती थी और बड़े होने पर उन्होंने कार्ल मार्क्स के ‘दास कैपिटल’ से लेकर हिटलर की ‘मीन काम्फ़’ और सलमान रूश्दी की “सैटेनिक वर्सेज़” से लेकर वीएस नॉयपॉल की “बियोंड बिलीफ़” समेत कुछ डेढ़-दो सौ किताबें चाव से पढ़ीं लेकिन उन्हें सादात हसन मंटो की ‘काली सलवार’ और व्लादीमीर नाबाकेव की ‘लोलिता’ पढ़ने में ज्यादा मज़ा आया क्योंकि दोनों ही किताबें इन्हें छिपकर पढ़नी पड़ीं। वर्ण व्यवस्था के धुर विरोधी हैं लेकिन दलित चेतना के प्रसार के कट्टर समर्थक हालाँकि दशकों से चले आ रहे जातिगत आरक्षण को अतार्किक, भेदभावपूर्ण और सामाजिक वैमनस्य बढ़ाने वाला मानते हैं।
“दूध माँगोगे खीर देंगे, कश्मीर माँगोगे चीर देंगे” वाली वीर रस की कविताओं को सुनकर हर बार उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं लेकिन एक बार लाहौर जाने का उनका बड़ा मन है क्योंकि असगर वज़ाहत के नाटक ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माई नहीं” का इनके दिलोदिमाग़ पर गहरा असर है। यूँ तो कराची हलवे को वो ओवररेटेड समझते हैं पर माफ़ कीजिएगा ग़ज़ल गायकी में मेहदी हसन और ग़ुलाम अली उन्हें जगजीत सिंह से कहीं ज्यादा पसंद हैं। यूँ तो उन्होंने ग़ालिब से लेकर गुलज़ार तक को खूब पढ़ा है लेकिन जिनकी शेरो-शायरी का उनके दिलोदिमाग़ पर गहरा असर हुआ वो हैं पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ जिन्होंने कभी लिखा—
“रंज़िश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ।
आ फ़िर से मुझे छोड़के जाने के लिए आ!”
यूँ तो अपनी हरक़तों से उन्हें लगता है कि वो ‘नास्तिक’ हैं और आस्था को विज्ञान की कसौटी पर कसने में यकीन रखते हैं लेकिन द्वापर युग में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण इनके इकलौते परम आदर्श हैं और श्रीमद्भागवदगीता के इस श्लोक में उनकी गहरी आस्था है —
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
अर्थात — इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
यानि बंधु प्रकाश पाल और कमलेश तिवारी समेत 2017 में मारे गए 28,653 लोगों का सिर्फ़ शरीर मरा है, उनकी आत्मा तो अब भी अजर-अमर है।सॉरी-सॉरी खामखा ही आपको उल्टी सीधी जानकारी दे दी। कृपया इसे भूल जाएं क्योंकि परम पूज्य श्री शाहरूख़ ख़ान (एपिगिलोटिस वाला ख़ान) जी ने कहा था — बड़े-बड़े देशों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं सैन्योरीटा!
PS: ये ख़बर लिखकर विवेक सत्य मित्रम् किसका प्रोपेगेंडा या नैरेटिव सेट कर रहे हैं? अब तक तो आप समझ ही गए होंगे और अब उन्हें “प्रेस्टिट्यूट” कहा जाए या “एंटी-नेशनल”? ये आप अपने स्वविवेक से तय कर सकते हैं या आप चाहें तो इस बारे में “व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी” में जनमत संग्रह करके लोगों को “फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन” का मौक़ा भी दे सकते हैं! हालाँकि आपको अपना फ़ैसला सुनाते हुए एक बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि अपने बचपन में ग़ाज़ीपुर के लंका मैदान में होने वाली एक चुनावी रैली में बीजेपी के तत्कालीन शीर्ष नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने परफ़ॉर्म करने के लिए उन्होंने एक गीत कंठस्थ किया था (तब उनकी कुल जमा उम्र 12 साल रही होगी) जिसकी लाइनें कुछ इस प्रकार थीं —
“गायेंगे-गायेंगे हम वंदेमातरम्।
वंदेमातरम् का जो गायक नहीं,
यहाँ रहने के वो लायक नहीं।
उसे नष्ट करने की खाते हैं क़सम।
गायेंगे-गायेंगे हम वंदेमातरम्!”