गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः आत्मनिर्भर भारत के लिए देश के भीतर लानी होगी जीवंतता
By गिरीश्वर मिश्र | Published: July 10, 2020 08:34 AM2020-07-10T08:34:21+5:302020-07-10T08:34:21+5:30
अनेक भाषा बोलने वाले और अनेक धर्मो को मानने वाले थे (जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणां पृथिवी यथौकसम). परंतु सभी मिलकर मातृभूमि को शक्ति देते हैं और उसकी समृद्धि करते हैं. उनके मन में यह भावना है कि यह धरती मां है और हम सब उसकी संतान हैं : ‘माता भूमि: पुत्नोहं पृथिव्या:’. अथर्ववेद में ‘समानो मंत्न: समिति: समानी समानं ब्रतं सह चित्तमेषां’ आदि मंत्नों का स्पष्ट अभिप्राय राष्ट्र की सजीव एकता को रेखांकित करता है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि बदलते वैश्विक समीकरण में भारत वर्ष के लिए आत्मनिर्भर होना सबसे अच्छा विकल्प है. इस प्रकार का शुभ संकल्प निश्चित रूप से देश के गौरव और क्षमता की वृद्धि के लिए सर्वथा स्वागत-योग्य है. इस आत्मनिर्भरता की पुकार है कि भारत में जागरण का प्रवाह हो और एक सुसंगठित सामाजिक संरचना के रूप में भारत एक जीवंत इकाई बने. देश एक प्राणवान सत्ता है- एक जीवित प्राणी! इस रूप में देश का एक व्यक्तित्व है. कोई भी देश वहां के निवासियों के समुच्चय से बनता है पर सिर्फ लोगों के इकट्ठा होने मात्न से देश नहीं बन जाता.
समग्र की जीवंतता मनुष्यों के योग मात्न से अधिक है, वैसे ही जैसे चैतन्य के बिना शरीर मात्न शव रहता है, निर्जीव व अस्वास्थ्यकर और उसमें चैतन्य के निवेश से शिवत्व की प्रतिष्ठा होती है तथा यह शरीर सक्रि य होकर उत्कर्ष की ओर उन्मुख होता है. यह एक रोचक तथ्य है कि जीवंतता का एक प्रखर रूप वैदिक काल में मिलता है जो भारत के ज्ञात इतिहास का उषा काल कहा जाता है.
शतपथ ब्राह्मण की मानें तो जातिगत रूप से भारतवासी भरत नाम वाली अग्नि के उपासक समुदाय के वारिस हैं (भरतो अग्नि इत्याहु:) अर्थात तेज उनका आंतरिक गुण है. यह संभरण करने वाली आग है. यजुर्वेद यह संकल्प लेता है : ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम:’ अर्थात हम सब अग्रसर होकर राष्ट्र को जागृत करें. अथर्ववेद की घोषणा है कि उत्तम प्रजा जनों से राष्ट्र उत्तम रहता है (उत्तरं राष्ट्रं प्रजयोत्तरावत). रोचक तथ्य यह है कि वैदिक युग में भी सामाजिक विविधता थी.
अनेक भाषा बोलने वाले और अनेक धर्मो को मानने वाले थे (जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणां पृथिवी यथौकसम). परंतु सभी मिलकर मातृभूमि को शक्ति देते हैं और उसकी समृद्धि करते हैं. उनके मन में यह भावना है कि यह धरती मां है और हम सब उसकी संतान हैं : ‘माता भूमि: पुत्नोहं पृथिव्या:’. अथर्ववेद में ‘समानो मंत्न: समिति: समानी समानं ब्रतं सह चित्तमेषां’ आदि मंत्नों का स्पष्ट अभिप्राय राष्ट्र की सजीव एकता को रेखांकित करता है. विचार, संकल्प, चित्त सब में समान होने का आह्वान है. समान मन के साथ ऐक्य भाव से आनंदपूर्वक रह सकना संभव है : ‘समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति.’ तात्पर्य यह कि जीवंत राष्ट्र की अपेक्षा है ऐक्य और पारस्परिक सम्मान के भाव के साथ देश के प्रति उन्मुख होकर सक्रिय और स्वस्थ जीवन.
सजीव देश की परिकल्पना लोक मंगल के आख्याता गोस्वामी तुलसीदास ने राम राज्य के रूप में की थी जिसमें सभी जन धर्मानुकूल आचरण करते हैं और बिना राग द्वेष के सुखपूर्वक रहते हैं (राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि, राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चारि). इस तरह के राम राज्य में किसी भी तरह का ताप या कष्ट किसी को नहीं है और सबके बीच परस्पर प्रेम है और सभी स्वधर्म के अनुसार आचरण करते हैं (दैहिक दैविक भौतिक तापा राम नहि काहुहि व्यापा, सब नर करहिं परस्पर प्रीती चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती’. आधुनिक भारत में बंकिम बाबू ने 1876 में ‘वंदे मातरम्’ गीत में सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम् द्वारा देश की जीवंत संकल्पना प्रस्तुत की थी. इसी प्रकार 1909 में महात्मा गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में अंग्रेजी दासता से मुक्त स्वतंत्न भारत का एक स्वप्न खींचा था और उसके लिए अपने को अर्पित कर दिया था. वे अपने ऊपर राज्य करने की, स्वायत्त जीवन की बात कर रहे थे.
यह अलग बात है कि स्वतंत्न होने पर शासन का अर्थ हमने प्राय: वही लगाया जो अंग्रेजों के व्यवहार में था और बापू ने जन भागीदारी, स्वावलंबन, विकेंद्रीकृत शासन और शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय आदि के क्षेत्न में जिस तरह के बदलावों के बारे में सोचा था, वह व्यवहार में नहीं आ सका. हमारी अपनी सोच की भारतीय परिपाटी नहीं बन सकी. गरीबी-अमीरी की खाई बढ़ती गई और विकसित देशों को छू लेने की मृग मरीचिका ने और बदलती वैश्विक परिस्थिति ने हमें कई घाव दिए. आज जब हम आत्म-निर्भरता की बात कर रहे हैं तो उसके लिए जरूरी है कि देश को जीवंत बनाया जाए.
आज आवश्यकता है कि हम आशावादी दृष्टि के साथ नवाचार, ऊर्जस्वित व भविष्योन्मुख दृष्टिकोण अपनाएं जिससे सशक्तिकरण और उत्पादकता में वृद्धि हो. तभी जीवन में संतुष्टि बढ़ेगी और देश की उन्नति होगी. ऐसा जीवंत भारत ही आत्मनिर्भर हो सकेगा.