विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: रोजगार की तलाश में पलायन की त्रासदी

By विश्वनाथ सचदेव | Published: April 3, 2020 06:13 AM2020-04-03T06:13:22+5:302020-04-03T06:13:22+5:30

सवाल उठता है, क्यों कोई विवश होता है घर छोड़ने के लिए? क्यों घर के आस-पास रोजगार की व्यवस्था नहीं हो सकती? क्यों सिमटते जा रहे हैं महानगरों में रोजगार? क्यों वहां भी रोजगार की गारंटी नहीं मिलती?  क्यों अस्थायी ही बने रहते हैं शहरों में हमारे श्रमिक?

Vishwanath Sachdev's blog: The tragedy of migration in search of employment | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: रोजगार की तलाश में पलायन की त्रासदी

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

विस्थापन का सहज समझ में आने वाला मतलब होता है ‘घर’ से उजड़ना यानी ‘घर’ छोड़कर जाने के लिए मजबूर हो जाना. ऐसी एक मजबूरी हमारे इतिहास में लगभग 70-75 साल पहले आई थी जब देश का विभाजन हुआ था. लाखों लोग तब ‘घर’ छोड़कर निकल पड़े थे कहीं और जाकर ‘घर’ बसाने की उम्मीद के साथ. उम्मीद तो जरूर होगी कहीं न कहीं, पर उस समय का सच तो शायद यही था कि लाखों लोगों के काफिले जान बचाने के लिए ‘घर’ से कहीं और जा रहे थे.

भारतीय उपमहाद्वीप में सांप्रदायिकता का वह भयानक चेहरा डरावना था. आज की पीढ़ी ने वह चेहरा नहीं देखा है इसलिए उस डर की कल्पना भी आसान नहीं होगी उसके लिए. हैं कुछ तस्वीरें उस वक्त की. लाखों की भीड़ के विस्थापन का चेहरा तो दिखता है उन तस्वीरों में, पर उन चेहरों के पीछे का दर्द समझना आसान नहीं है. शायद अब उस दर्द को समझना भी आसान नहीं है, जो पिछले कुछ दिनों में टीवी पर दिख रहे विस्थापन के चित्नों में झलक रहा है. विभाजन वाले उस विस्थापन के काफिले लाखों लोगों के थे, यह विस्थापन शायद सैकड़ों या कुछ हजारों का है.

एक और फर्क भी है 73 साल पहले की उस घटना और इस बार की घटना में. तब सांप्रदायिकता की आग ने विवश किया था घर छोड़ने के लिए- और अब जो विस्थापन हुआ है, वह ‘घर’ पहुंचने के लिए है. ‘कोरोना’ के आतंक ने दिल्ली या मुंबई या सूरत या लुधियाना में रोजी-रोटी की तलाश में गए लाखों भारतीयों को विवश कर दिया अपना ठिकाना छोड़कर किसी भी तरह ‘घर’  पहुंचने के लिए. रोजगार के लालच में आए थे यह सब अपना ‘घर’  छोड़कर और रोजगार छिनने का डर इन्हें अब बाध्य कर रहा है किसी भी तरह अपने ‘घर’ पहुंचने के लिए.

‘कोरोना’ का आतंक दुनिया भर में कहर बरपा रहा है. सौभाग्य से अभी हमारे देश में स्थिति इतनी भयंकर नहीं है जितनी कुछ दिन पहले तक चीन में थी या अब इटली, स्पेन, अमेरिका आदि देशों में है. उम्मीद ही की जा सकती है कि हम जल्द ही इस कहर से उबर जाएंगे. हमारी सरकार की कोशिशें और हमारा अपना मनोबल हमें इस संकट से उबरने में निश्चित रूप से मददगार होगा. कोई भी अंधेरा चाहे वह कितना भी गहरा क्यों न हो, हमेशा के लिए नहीं होता. सुबह तो होती ही है. अब भी होगी. फिर उजाला होगा. पर हमें यह भी समझना होगा कि यह उजाला भी वैसा ही दाग-दाग होगा जैसा आजादी मिलने के समय फैज अहमद फैज को दिखा था- यह दाग-दाग उजाला, ये शब गजीदा सहर..

उस उजाले में एक बड़ा, बहुत बड़ा दाग इन काफिलों का भी होगा जो कोरोना  के डर से घर की ओर भागते लोगों के हैं. आज जबकि सारा देश  कोरोना  के आतंक में जी रहा है, विस्थापन की व्यवस्था की बात करना कुछ जल्दबाजी भी लग सकती है. पर जरूरी है इस बात को समझना. क्यों विवश होना पड़ा इन लोगों को इस तरह घर छोड़ने के लिए? लॉकडाउन जैसे कर्फ्यू की घोषणा से पहले पलायन की इस आशंका के बारे में क्यों नहीं सोचा गया? लॉकडाउन जरूरी था, यह सही है, पर क्या सही यह भी नहीं है कि अच्छा प्रबंधन समस्या के आगे-पीछे सोचने वाला ही होता है? यह लड़ाई कोई मोर्चा जीतने की नहीं, युद्ध जीतने की है. इसकी रणनीति तैयार करते समय एक नहीं, सब पक्षों को ध्यान में रखने की जरूरत होती है.

बहरहाल अभी घर लौटने वाले विस्थापन की ही बात. एक परिवार दिल्ली से बिहार के लिए निकला है. घर के मुखिया के सिर पर एक गठरी है, उसकी पत्नी की गोद में एक छोटा बच्चा. उसका हाथ पकड़े हुए आठ-दस साल की बच्ची है. एक बच्चा, शायद छोटा भाई, इस बच्ची की गोद में भी है. टीवी में दिखने वाला चित्न बहुत साफ है-  घर  के मुखिया और महिला की आंखों में अनिश्चितता का एक डर झलक रहा है. बदहवास हैं तीनों चेहरे. वह भीड़ भी बदहवास लग रही है, जिसका हिस्सा यह परिवार है. टीवी का एक रिपोर्टर माइक आगे करके परिवार के मुखिया से पूछता है, ‘कहां जा रहे हो?’ ‘घर’, वह व्यक्ति उत्तर देता है. ‘क्यों जा रहे हो’ यह अगला सवाल है. ‘नहीं जाएं तो करें क्या?’ उत्तर में यह प्रश्न सामने आता है. फिर उसने जो बात बताई उसका लब्बो-लुआब यह है कि रोजगार है नहीं, पैसे खत्म हो रहे हैं, मकान-मालिक ने निकालने की धमकी दे दी है. ‘गांव में रोजगार है?’ इस सवाल के जवाब में कहा जाता है, ‘घर तो है!’

पता नहीं, किस घर की आशा में देश के महानगरों से निकलने वाले ये काफिले बिना कुछ सोचे-समझे निकल पड़े हैं. टीवी वालों से बात करने वाले उस परिवार को जहां जाना था, वह गांव बिहार में है-लगभग 11 सौ किमी का फासला गूगल बता रहा है, कार से वहां पहुंचने में 20 घंटे लगते हैं! और पैदल पहुंचने में? एक और खबर भी थी टीवी पर. एक व्यक्ति दिल्ली से गुजरात में कहीं पहुंचने के लिए निकला था. लगभग 200 किमी पैदल चल चुका था. बस 80 किमी दूर रह गया था उसका घर. और वह गिर गया. मर गया. घर बहुत दूर था.

सवाल उठता है, क्यों कोई विवश होता है घर छोड़ने के लिए? क्यों घर के आस-पास रोजगार की व्यवस्था नहीं हो सकती? क्यों सिमटते जा रहे हैं महानगरों में रोजगार? क्यों वहां भी रोजगार की गारंटी नहीं मिलती?  क्यों अस्थायी ही बने रहते हैं शहरों में हमारे श्रमिक? नागरिकता और जनसंख्या के सवालों पर परेशान होने का नाटक करने वाले हमारे राजनेता विस्थापन के लिए विवश करने वाले सवालों से क्यों बचना चाहते हैं? घर की ओर का यह  विस्थापन इन और ऐसे ढेरों सवालों का जवाब मांग रहा है? कौन देगा इनके जवाब?

Web Title: Vishwanath Sachdev's blog: The tragedy of migration in search of employment

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