विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: नासमझी ही नहीं, खतरनाक समझदारी से भी बचें

By विश्वनाथ सचदेव | Published: March 17, 2021 10:52 AM2021-03-17T10:52:33+5:302021-03-17T10:59:21+5:30

मशीनगन के लिए जिद करने वाले बच्चे का चित्र परेशान करने वाला है, पर यह जो समाज का व्यापक चित्र हम अपने आस-पास देख रहे हैं, डरावना है. आवश्यकता इन दोनों चित्रों के परिणामों से बचने की है. यह तभी संभव है जब हम बंदूक और बांसुरी के फर्क को अपनी सोच का हिस्सा बनाएंगे.

Vishwanath Sachdev's blog: Not only mindless, but also avoid dangerous rationality | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: नासमझी ही नहीं, खतरनाक समझदारी से भी बचें

सांकेतिक तस्वीर (फाइल फोटो)

पता नहीं कितनों का ध्यान गया होगा इस खबर पर. मेरा भी ध्यान न जाता यदि वह चित्र साथ न होता. चित्र जम्मू कश्मीर का था, जिसमें दिखाया गया था कि तीन-चार साल का बच्चा एक सैनिक की मशीनगन लेने के लिए मचल गया है.

बच्चे की जिद देखकर वह सैनिक मुस्कुरा रहा है, पर उसने मशीनगन बच्चे के हाथ में नहीं दी. उसे चॉकलेट खिलानी चाही. दुकान से कोई और खिलौना लेकर देने की बात भी कही. पर ‘मैं तो वही खिलौना लूंगा मचल गया दीनू का लाल’ की तर्ज पर बच्चा मान नहीं रहा था.

अंतत: क्या हुआ, पता नहीं, पर यह सवाल मुझे अब भी घेरे हुए है कि क्या यह कोई मासूम बाल-हठ ही था या फिर बच्चे की इस जिद के पीछे कुछ और कारण भी था? वह चित्र देखकर, और उसके साथ के वर्णन को जानकर तत्काल जो बात मेरे मन में आई, वह यही थी कि दिन-रात गोलियों की आवाज सुनने वाला, आस-पास बंदूकें लिए घूमते सैनिकों को देखने वाला या फिर घर में होने वाली हिंसक घटनाओं की बातें सुनने वाला बच्चा यदि मशीनगन के लिए मचल रहा है तो इसमें अस्वाभाविक क्या है?

बच्चे बड़ी जल्दी बहल जाते हैं. किसी और खिलौने से कश्मीर के उस बच्चे को भी बहला दिया गया होगा, या फिर उसका ध्यान बंटा दिया गया होगा, पर सवाल सिर्फ उस मशीनगन का ही नहीं है, सवाल यह है कि वह कौन-सी मानसिकता है जो बच्चों को खिलौनों के रूप में भी बंदूक या तोप या तलवार बनाने की प्रेरणा देती है?

मुझे बीस-पच्चीस साल पुरानी एक घटना याद आ रही है. देहरादून के एक स्कूल में अध्यापिका के मन में यह सवाल आया था कि बच्चे खिलौने के रूप में भी एक बंदूक को क्यों पसंद कर रहे हैं? तब उसने बंदूक नहीं, बांसुरी का अभियान चलाया था. बच्चों को प्रेरित किया था कि वे बंदूक के बदले बांसुरी लें.

उस अध्यापिका ने खिलौनों की दुकानों पर जाकर यह समझाने में सफलता पाई थी कि यदि कोई बच्चा बंदूक के बदले बांसुरी लेने आता है तो वे अदला-बदली कर देंगे. ऐसी कितनी अदला-बदली हुईं, पता नहीं, पर इस खेल के पीछे की भावना किसी भी सभ्य समाज के लिए चिंतन का विषय होनी चाहिए. यह एक गंभीर सवाल है कि हम अपने बच्चों के लिए यह कैसी दुनिया बना रहे हैं, जिसमें उसके बाल-मन को बांसुरी नहीं, बंदूक पसंद आ रही है.

नहीं, सवाल जिज्ञासा का नहीं है. जिज्ञासा एक स्वाभाविक और स्वागत-योग्य बात है. जिज्ञासा का निराकरण भी स्वस्थ समाज की निशानी है, लेकिन बड़ों की कथनी-करनी से जो समाज बन रहा है, बनाया जा रहा है, वह स्वस्थ नहीं है.
सवाल सिर्फ खिलौनों या बच्चों तक ही सीमित नहीं है, सवाल उस समूचे वातावरण का है जो आज बन रहा है. कल के नागरिक, यानी आज के बच्चे, आज जिस सामाजिक वातावरण में पल रहे हैं, वह कुल मिलाकर एक बीमार मानसिकता को भी जन्म दे रहा है, उसे पाल रहा है.

हम यह मानकर चलते हैं कि तीन-चार साल का बच्चा बहुत भोला होता है, आस-पास जो घट रहा है, उसका असर बहुत देर तक उसके मन में नहीं रहता. पर मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि ऐसा है नहीं. बच्चा चाहे तीन-चार साल का हो या दस-बारह साल का, उस सबसे अप्रभावित नहीं रह सकता जो उसके आस-पास घट रहा है. वह सब सुरक्षित रहता है उसके मन-मस्तिष्क के किसी कोने में जो आगे चलकर कभी भी उसके व्यवहार को प्रभावित करता है. हिंसा ही नहीं, बड़ों का सारा व्यवहार भी असर डालता है.

पिछले एक अर्से से एक सवाल बार-बार मेरे सामने आ खड़ा होता है. देश और पूरी दुनिया आज कोरोना से जूझ रही है. हरसंभव कोशिश करने के दावे किए जा रहे हैं इस महामारी को पराजित करने के. नागरिकों से अपेक्षा की जा रही है कि वे संयम बरतें, सावधानी बरतें. सरकार के निर्देशों का पालन करें. कहीं धारा 144 लगाई जा रही है, कहीं कर्फ्यू लग रहे हैं.

मास्क न लगाए जाने जैसे अपराधों के लिए लोग दंडित किए जा रहे हैं. यह सब जरूरी है. पर क्या किसी भी राजनेता के दिमाग में यह बात आई कि हजारों-लाखों की भीड़ वाली चुनावी सभाओं पर रोक लगे? क्यों नहीं किसी राजनीतिक दल ने यह घोषणा की कि कोरोना-आपदा को देखते हुए इस बार चुनाव में बड़ी-बड़ी सभाएं नहीं करेगा?

क्यों चुनाव आयोग को यह नहीं लग रहा कि चुनावी सभाओं पर प्रतिबंध लगा दे? हजारों की भीड़ वाले चित्रों को देखकर आखिर क्या असर पड़ेगा जन-मानस पर? ये और इस तरह की सारी बातें समाज की सोच और व्यवहार को प्रभावित करती हैं. मशीन गन के लिए जिद करने वाला बच्चा तो भोला हो सकता है, उसे गलती के लिए समझाया भी जा सकता है, पर पथ-भ्रष्ट बड़े बच्चों को कैसे समझाया जाए.

मशीनगन के लिए जिद करने वाले बच्चे का चित्र परेशान करने वाला है, पर यह जो समाज का व्यापक चित्र हम अपने आस-पास देख रहे हैं, डरावना है. आवश्यकता इन दोनों चित्रों के परिणामों से बचने की है. यह तभी संभव है जब हम बंदूक और बांसुरी के फर्क को अपनी सोच का हिस्सा बनाएंगे. ऐसी सोच हमारी कथनी और करनी में झलकनी चाहिए. सवाल बच्चे की नासमझी का ही नहीं, बड़ों की खतरनाक समझदारी का भी है.

Web Title: Vishwanath Sachdev's blog: Not only mindless, but also avoid dangerous rationality

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