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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: संस्कृत पर किसी का एकाधिकार नहीं

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 21, 2019 12:03 IST

भाषा का किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता. महज इसलिए कि हिंदू धर्म के अधिसंख्य ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हैं, संस्कृत पर किसी धर्म-विशेष का एकाधिकार कैसे हो सकता है? धर्म ग्रंथों का किसी भाषा-विशेष में लिखा जाना मात्र इस इत्तफाक पर निर्भर करता है कि जब उन्हें लिखा गया, उस काल में वही भाषा प्रचलित थी

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वह बचपन से संस्कृत पढ़ रहा था. उसके पिता भी संस्कृत के विद्वान हैं. पहली कक्षा से लेकर एम.ए. तक की पढ़ाई में संस्कृत उसका विषय रहा. संस्कृत में ही डॉक्टरेट भी की उसने बी.एड. भी. विश्वविद्यालय में पढ़ाने की सारी योग्यताएं-अर्हताएं उसके पास हैं. पर वह संस्कृत पढ़ा नहीं सकता. नहीं, पढ़ा तो सकता है, पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में नहीं. मजे की बात यह है कि विश्वविद्यालय के प्रशासन ने उसे सभी दृष्टि से योग्य पाकर विभाग में पढ़ाने के लिए संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर नियुक्त किया है, पर आपत्ति विभाग में पढ़ रहे कुछ विद्यार्थियों को है.

ये विद्यार्थी नहीं चाहते कि फिरोज खान उन्हें पढ़ाएं. हां, एक योग्य अध्यापक का मुसलमान होना इन विद्यार्थियों को रास नहीं आ रहा लेकिन सवाल तो यह है कि विवाद उठा ही क्यों? क्यों कोई मुसलमान संस्कृत नहीं पढ़ा सकता? जो तर्क ये विद्यार्थी दे रहे हैं, उससे तो बात यहां तक भी पहुंच सकती है कि किसी मुसलमान अथवा गैर हिंदू को हमारे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए था.

एक जमाना जब कथित नीची जाति वालों को संस्कृत में लिखे धर्म-ग्रंथों को पढ़ने के योग्य नहीं माना जाता था. पर यह हजारों साल पुरानी बात है. इक्कीसवीं सदी के भारत में इस तरह की दीवारें खड़ी करने वाली सोच के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए.

भाषा का किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता. महज इसलिए कि हिंदू धर्म के अधिसंख्य ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हैं, संस्कृत पर किसी धर्म-विशेष का एकाधिकार कैसे हो सकता है? धर्म ग्रंथों का किसी भाषा-विशेष में लिखा जाना मात्र इस इत्तफाक पर निर्भर करता है कि जब उन्हें लिखा गया, उस काल में वही भाषा प्रचलित थी. और यह शायद इसलिए भी हुआ होगा कि धर्म-ग्रंथ रचने वालों को यह भी लगा होगा कि वह भाषा उनकी बात को वहां तक आसानी से पहुंचा सकेगी जहां वे बात पहुंचाना चाहते हैं.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में फिरोज खान की नियुक्ति का विरोध करने वाले जब यह कहते हैं कि ‘एक मुसलमान हमें संस्कृत नहीं पढ़ा सकता... पंडित मदन मोहन मालवीय भी इसे उचित नहीं मानते’ बहरहाल, सवाल सिर्फ एक मुस्लिम के संस्कृत पढ़ाने का ही नहीं है, सवाल उस बीमार सोच का भी है जो भाषा को धर्म या जाति से जोड़कर एक भारतीय समाज के बीच दीवारें उठाने का काम कर रहा है.

आज जिस फिरोज खान द्वारा संस्कृत पढ़ाये जाने का विरोध किया जा रहा है, उसके दादा द्वारा गाए जाने वाले भजनों पर राजस्थान के उसके गांव के हिंदू झूमा करते थे, और उसके पिता रमजान खान संस्कृत के मंत्र पढ़ा करते हैं. हमें भूलना यह भी नहीं चाहिए कि सदियों से मुसलमान संस्कृत पढ़ते-पढ़ाते आ रहे हैं. औरंगजेब के भाई दारा शिकोह ने संस्कृत में लिखे उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया-कराया था. उन्हीं अनुवादों के माध्यम से हमारे उपनिषदों से विश्व परिचित हुआ था. ग्याहरवीं सदी में अल बरुनी भारत आया था और उसने संस्कृत सीख कर अरबी में ‘किताब-उल-हिंद’ लिखी थी.

 आज भी हयातउल्ला उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी में हिंदुओं को वेदों का संदेश दे रहे हंै. वह चारों वेदों के ज्ञाता हैं, इसलिए उन्हें ‘हयात उल्लाह चतुर्वेदी’ के नाम से पहचाना जाता है. हयात उल्लाह का कहना है, ‘‘भाषा धर्मों की दीवारें तोड़ सकती हैं, मैं इन दीवारों को तोड़ना चाहता हूं.’’

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से संस्कृत में पहली डॉक्टरेट लेने वाले मोहम्मद खान वेदों, महाभारत और रामायण के विद्वान हैं. अभी पांच साल पहले ही 2014 में भारत सरकार ने नहीद आबिदी नामक मुस्लिम महिला को संस्कृत की विद्वान के नाते पद्मश्री प्रदान की थी. स्वयं फिरोज खान को राजस्थान सरकार संस्कृत युवा प्रतिभा सम्मान दे चुकी है.

हम क्यों भूल जाते हैं कि चौदहवीं सदी में मुल्ला दाऊद ने ‘चंदायन’ नामक ग्रंथ की रचना की थी और सोलहवीं शताब्दी में मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ लिखी थी. भूला यह भी नहीं जाना चाहिए कि जायसी ने तुलसी से पहले अवधी में रामकथा भी लिखी थी.ये सारे उदाहरण भाषा को धर्मों के साथ जोड़ने की मानसिकता को गलत ठहराते हैं.

आज बनारस विश्वविद्यालय में एक मुसलमान अध्यापक को संस्कृत पढ़ाने के अयोग्य घोषित करके हम कुल मिलाकर धर्म को संकुचित बनाने की गलती या अपराध कर रहे हैं. यह वही विश्वविद्यालय हैं जहां के विद्यार्थियों ने ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने में अग्रणी भूमिका निभायी थी. आधुनिक भारत के निर्माण के शुरुआती दौर में भी यहां के विद्यार्थियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था.

इस विश्वविद्यालय के माध्यम से महामना मालवीयजी जैसे व्यक्तित्वों ने एक नए भारत के निर्माण का सपना देखा था. वे शिक्षा के माध्यम से देश को एक वैश्विक उदार दृष्टि देना चाहते थे. वह एक ऐसे भारत की सोच थे जिसमें धर्म बांटने वाली नहीं, जोड़ने वाली ताकत होगी. उस भारत में संस्कृत या किसी भी भाषा पर किसी समूह-विशेष का एकाधिकार नहीं हो सकता.

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