विश्वनाथ सचदेव: चुनावों में पीछे क्यों छोड़ दिए जाते हैं वास्तविक मुद्दे?
By विश्वनाथ सचदेव | Published: November 4, 2020 07:50 AM2020-11-04T07:50:05+5:302020-11-04T07:52:55+5:30
राजनीतिक दल इस स्थिति से अपरिचित नहीं होते, और इसके अनुरूप आचरण की कोशिश वे करते ही होंगे, लेकिन बिहार के इन चुनावों में बड़े राजनीतिक दलों ने जिस तरह से प्रचार किया है, उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि इस प्रचार का उद्देश्य मतदाता को बहलाना-बहकाना कहीं अधिक था.
बिहार के मतदाता अपना निर्णय दे रहे हैं और कुछ ही दिन में यह भी पता चल जाएगा कि राजतिलक किसका होने वाला है. उम्मीद ही की जा सकती है कि मतदाता का निर्णय राज्य के हितों के अनुकूल रहेगा, लेकिन चुनाव-प्रचार के दौरान जिस तरह का बर्ताव हमारे राजनीतिक दलों ने किया है, और जिस तरह चुनाव के मुद्दों को गड्डमड्ड किया गया है, उससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि हमारी राजनीति में जनता के हितों के नाम पर राजनीतिक हितों को साधने की ही कोशिश होती है.
विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव में अंतर होता है. ऐसा नहीं है कि विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों के लिए कोई स्थान ही नहीं होता, पर उम्मीद यह की जाती है कि विधानसभा के चुनाव मुख्यत: स्थानीय स्थितियों और आवश्यकताओं पर केंद्रित हों. इसमें संदेह नहीं कि केंद्र की नीतियों का राज्यों पर सीधा असर पड़ता है, फिर भी जब राज्यों के चुनाव के लिए मतदाता मतदान केंद्र पर जाता है तो उसके दिमाग में क्षेत्नीय चिंताएं अधिक होती हैं.
राजनीतिक दल इस स्थिति से अपरिचित नहीं होते, और इसके अनुरूप आचरण की कोशिश वे करते ही होंगे, लेकिन बिहार के इन चुनावों में बड़े राजनीतिक दलों ने जिस तरह से प्रचार किया है, उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि इस प्रचार का उद्देश्य मतदाता को बहलाना-बहकाना कहीं अधिक था. घोषणापत्न अपनी जगह हैं, लेकिन जिस तरह से चुनाव-प्रचार के दौरान भाषणबाजी हुई है, उसे देखकर तो यही लगता है कि प्रचारकों की निगाह सिर्फ वोटों पर थी.
चुनाव-प्रचार से मतदाता की अपेक्षा और आवश्यकता यही होती है कि उम्मीदवार और राजनीतिक दल अपनी उपलब्धियों और अपनी भावी योजनाओं के आधार पर तर्क सामने रखेंगे, पर जो अक्सर देखा जाता है, और इस बार भी दिखा है, वह यह है कि सारी कोशिश मतदाता को भरमाने की रहती है.
पिछले पंद्रह साल से बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार चल रही है. यह अपेक्षा करना स्वाभाविक था कि वे और उनके सहयोगी दल इस काल की अपनी उपलब्धियों के आधार पर वोट मांगेंगे, पर चुनाव-प्रचार के दौरान हमने देखा कि सारा जोर अपने किए गए काम पर नहीं, उससे पहले की लालू-राबड़ी सरकारों के कृतित्व पर था.
एनडीए वाले उस काल को जंगल-राज कहते हैं और उसके नेता इस चुनाव-प्रचार के दौरान लगातार इस जंगल-राज का बखान करते रहे. यह सही है कि विरोधी की कमियों-खामियों को रेखांकित करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और यह भी उतना ही स्वाभाविक है कि वे लालू प्रसाद यादव के उत्तराधिकारी पर लालू के शासन-काल की खामियां दिखाकर प्रहार करें, पर क्या सत्तारूढ़ मोर्चे के पास अपनी उपलब्धियों को दिखाने के नाम पर कुछ नहीं था कि वह लालू के उन्हीं अपराधों को गिनाते रहे, जिनकी सजा मतदाता पंद्रह साल पहले ही दे चुका?
यह सही है कि राजनीतिक दल और राजनेता अपने अतीत से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ा सकते, पर यह भी तो सही है कि केवल अतीत के कामों के आधार पर किसी राजनीतिक दल को हमेशा के लिए खारिज नहीं किया जा सकता. इस चुनाव में विपक्ष नीतीश कुमार की सरकार से उन कामों का हिसाब मांग रहा था जो उन्हें करने चाहिए थे और उन्होंने नहीं किए. लेकिन वे लगातार जंगल-राज की दुहाई ही देते रहे!
मतदाता की अपेक्षा यह थी कि वर्तमान सरकार आर्थिक मोर्चे पर किए गए अपने काम गिनाए, राज्य में शिक्षा की बदहाली के बारे में उचित सफाई दे, स्वास्थ्य के क्षेत्न में हुए, महंगाई के संदर्भ में, बेरोजगारी को लेकर उठे सवालों पर अपनी बात सामने रखे, पर सत्तारूढ़ पक्ष इन सवालों से कुल मिलाकर कतराता ही रहा.
इसके बदले में लालू-परिवार के बच्चों की संख्या गिनवाना समूचे चुनाव-प्रचार का शायद सबसे शर्मनाक उदाहरण था. नीतीश अनुभवी और मंजे हुए नेता हैं, जब वे मोदीजी के विरुद्ध खड़े थे तो उनमें लोग भावी प्रधानमंत्नी की संभावना देखते थे. पता नहीं क्यों, इस बार उनकी जबान बार-बार फिसली!
बिहार में चाहे किसी की भी सरकार बने, इस बारे में तो देश में बात होनी ही चाहिए कि हमारे नेता, जिनमें हमारे बड़े-बड़े केंद्रीय मंत्नी भी शामिल हैं, असली मुद्दों पर देश की जनता से रूबरू क्यों नहीं होते? क्यों घटिया और गलत तरीकों से जीतने की कोशिश करने में हमारे नेताओं को संकोच नहीं होता?
जनतंत्न की सफलता का तकाजा है कि हमारे चुनाव सही और उचित मुद्दों पर लड़े जाएं. चुनाव सरकारें बनाने-बिगाड़ने का ही मौका नहीं होते, चुनाव जनतंत्न के प्रति हमारी आस्था की परीक्षा भी होते हैं. कब समझेंगे हमारे राजनेता इस बात को?