विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः सिर्फ चुनाव आयोग ही नहीं राजनीतिक दल भी हैं जिम्मेदार
By विश्वनाथ सचदेव | Published: April 30, 2021 05:09 PM2021-04-30T17:09:18+5:302021-04-30T19:07:21+5:30
देश के पांच राज्यों में मतदान लगभग पूरा हो चुका है और दो मई को नतीजे भी आ जाएंगे. चुनाव में कौन जीतता है और कौन हारता है, यह मतदाता तय कर चुका है. मतगणना से मतदाता के निर्णय का पता चल जाएगा, पर एक बात जो स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है, वह हमारे तंत्र की विफलता की है.
देश के पांच राज्यों में मतदान लगभग पूरा हो चुका है और दो मई को नतीजे भी आ जाएंगे. चुनाव में कौन जीतता है और कौन हारता है, यह मतदाता तय कर चुका है. मतगणना से मतदाता के निर्णय का पता चल जाएगा, पर एक बात जो स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है, वह हमारे तंत्र की विफलता की है. मद्रास उच्च न्यायालय की हाल की कठोर टिप्पणी यह स्पष्ट कर देती है कि इस चुनाव में हमारे चुनाव आयोग की भूमिका पर बहुत गहरा धब्बा लगा है. न्यायालय के समक्ष दो मई को होने वाली मतगणना के समय कोविड नियमों के पालन का मुद्दा था और कठोर तथा स्पष्ट शब्दों में न्यायालय ने कहा है कि आज जो स्थिति पैदा हुई है उसके लिए ‘चुनाव आयोग अकेला जिम्मेदार है.’ न्यायालय ने तो यहां तक कह दिया है कि शायद आयोग पर हत्या का आरोप भी लग सकता है!
यह न्यायालय का निर्णय नहीं है, पर पांच राज्यों में हुए इस चुनाव में जिस तरह से महामारी के लिए लागू नियमों की धज्जियां उड़ाई गई हैं, उसकी इससे कठोर आलोचना शायद नहीं हो सकती थी. यूं तो जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहां लगभग सभी जगह कोविड नियमों की खुली अवहेलना हुई है, पर मतदान की लंबी अवधि के चलते पश्चिम बंगाल इस अराजकता का सबसे बड़ा शिकार हुआ है. निश्चित रूप से जनता स्वयं भी इसके लिए दोषी है, पर इस अराजकता के लिए नेतृत्व का दायित्व सबसे ज्यादा रहा है. समूचे नेतृत्व ने, चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का हो, इस संदर्भ में अनुत्तरदायी आचरण का ही परिचय दिया है. यह सही है कि चुनाव आयोग ने इन चुनावों के लिए एक नियमावली घोषित की थी, पर न तो हमारे समूचे राजनीतिक नेतृत्व ने इसके पालन की आवश्यकता महसूस की और न ही चुनाव आयोग ने यह जरूरी समझा कि वह अपने घोषित नियमों का पालन करवाने की कोई गंभीर कोशिश करे.
सच कहा जाए तो राजनेताओं ने जो कुछ किया, और चुनाव आयोग ने जो कुछ नहीं किया, वह सब अपराध की श्रेणी में ही आता है. दुर्भाग्य यह भी है कि इस अपराध की सजा वह जनता भुगतेगी, भुगत रही है, जिसने नेताओं की इस बात पर भरोसा किया कि चुनाव की गंगा में महामारी का खतरा धुल जाएगा. हजारों की भीड़ वाली चुनावी रैलियां करने और ‘रोड शो’ करने में हमारे नेताओं को जरा भी संकोच नहीं हुआ, किसी नेता को इस बात की चिंता नहीं थी कि जनता ने मास्क लगाने जैसी जरूरी एहतियात भी बरती है या नहीं. हजारों की भीड़ में सामाजिक दूरी जैसी कोई बात तो मायने रख ही नहीं सकती. नियमों की यह आपराधिक अनदेखी लगातार होती रही और चुनाव आयोग को जैसे कुछ दिख ही नहीं रहा था.
क्या चुनाव आयोग से पूछा नहीं जाना चाहिए कि उसने महामारी के खतरे की अनदेखी क्यों की? क्या महामारी की भीषणता को देखते हुए चुनाव स्थगित नहीं किए जा सकते थे? क्या चुनाव-प्रचार की अवधि और तरीके पर पहले ही प्रतिबंध नहीं लगाए जा सकते थे? फिर, चुनाव-प्रचार के लिए जो नियम तय किए गए थे, जो आचरण-संहिता घोषित की गई थी उनको लागू कराने की जिम्मेदारी किसकी थी? देश के अन्यान्य हिस्सों में बिना मास्क के सड़क पर घूमने वालों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करती है, चुनाव वाले राज्यों में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं हुई? क्या चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी नहीं थी कि वह संक्रमण के खतरे को देखते हुए ऐसी कोई व्यवस्था करता? चुनाव आयोग का ही क्यों, क्या हमारे नेताओं का यह दायित्व नहीं बनता था कि वे नियमों के पालन का ध्यान रखते? देश के शीर्षस्थ नेता चुनाव-प्रचार में लगे थे, क्या उनसे यह अपेक्षा करना गलत है कि अपने आचरण से देश की जनता के समक्ष वे उदाहरण प्रस्तुत करेंगे?
मद्रास हाईकोर्ट ने एक याचिका के संदर्भ में जो कठोर और जरूरी टिप्पणी की है, वह हमारी समूची कानून-व्यवस्था के गाल पर एक तमाचा है. मद्रास हाईकोर्ट से पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी चुनाव आयोग को आड़े हाथों लिया था. अन्य कई मामलों में भी न्यायालय हमारे संवैधानिक संस्थानों की आलोचना कर चुका है. ऐसी आलोचना का अवसर आना तो दुर्भाग्य की बात है ही, और भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन आलोचनाओं का उन पर कोई असर पड़ता नहीं दिखाई देता जो उचित आचरण न करने के दोषी हैं.
चुनाव आयोग के बारे में मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी उन सब पर भी लागू होती है जो हमारी आज की स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं. देश हताशा में डूब रहा है, हमारे राजनेता कुर्सी बचाने की लड़ाई में व्यस्त हैं. जब सांविधानिक संस्थान ऐसी लड़ाई का हिस्सा बनते दिखने लगें तो संकट का गहराना समझ में आना चाहिए. न्यायालय की प्रतिकूल टिप्पणी एक खतरे की घंटी है. पर सवाल है कि इस घंटी की आवाज कोई सुन भी रहा है या नहीं?