विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: शिक्षा के माध्यम से बेहतरी के लिए जद्दोजहद

By विश्वनाथ सचदेव | Published: June 13, 2019 02:37 PM2019-06-13T14:37:49+5:302019-06-13T14:37:49+5:30

उस दिन न जाने कितनी बच्चियां अपने ‘अंकल’ का आखिरी दीदार करने के लिए वहां पहुंची थीं. किसी को ‘अंकल’ ने मैट्रिक पढ़ायी थी, किसी को इंटर, किसी को बी.कॉम. और एक बच्ची तो ‘फिरोज अंकल’ की कक्षा में पढ़कर सी.ए. भी कर चुकी थी. दो कमरे के अपने छोटे-से मकान में ही इन सब बच्चियों का स्कूल-कॉलेज बना रखा था उन्होंने. फिरोज और उनकी पत्नी आरिफा खुद पढ़ाते थे बच्चों को.

Vishwanath Sachdev Blog: Struggle for betterment through education | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: शिक्षा के माध्यम से बेहतरी के लिए जद्दोजहद

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)

पहले उनका नाम फिरोज अशरफ ही था. मैं उन्हें सिर्फ फिरोज कहकर ही पुकारा करता था. एक दिन अचानक किसी अखबार में छपे उनके लेख के साथ मैंने देखा- सैयद फिरोज अशरफ. ‘यह सैयद कब से बन गए भाई,’ मैंने कुछ हैरानी के साथ पूछा था. जितना कुछ मैं उसे जानता था, उसमें यह नाम परिवर्तन कहीं फिट नहीं बैठ रहा था. वह सेक्युलर किस्म का इंसान था. वह नमाज भी पढ़ता था, मस्जिद भी कभी-कभी चला जाता था, पर उन अर्थो में कतई धार्मिक नहीं था जो अर्थ आजकल धर्म को दे दिए गए हैं. कट्टरता से उसका दूर-दूर तक रिश्ता नहीं था.

हम उसके साथ ईद मनाते थे, वह हमारे साथ दिवाली मनाता था. सच तो यह है कि अक्सर दिवाली की पहली मुबारकबाद उसी के टेलीफोन से मिलती थी. इसीलिए फिरोज के साथ जब सैयद जुड़ा तो हैरानी हुई थी. तब उसने जैसे समझाते हुए कहा था, ‘यह वक्त की जरूरत है मियां. सैयद तो हम खानदानी हैं. मुसलमानों में अगर कुछ काम करना है तो सैयद कहलाकर आसानी से और असरदार ढंग से होगा. अब मुसलमान मेरी बात ज्यादा गौर से सुनेंगे.’

अरसे से, यानी लगभग आधी सदी से, फिरोज अशरफ मुस्लिम समाज में काम कर रहे थे. समाज को जगाने का काम. लेखक तो वे थे ही, अपने लेखन के माध्यम से वे भारत के मुस्लिम समाज की बेहतरी के सपने देखा करते थे. उनका मानना था कि मुल्क के मुसलमानों को अपने हालात खुद सुधारने होंगे. सरकारों की पहल और मदद से समाज नहीं बनता. और भारत के मुस्लिम समुदाय की वर्तमान दशा के लिए वह मुख्यत: दोषी भी मुसलमानों को ही मानते थे. उनकी शिकायत थी, ‘मेरी बिरादरी के लोग कमबख्त पढ़ना-लिखना ही नहीं चाहते.’ हां, यह कमबख्त शब्द उन्हीं का है.

उनका मानना था कि मैं सारे समाज को तो नहीं बदल सकता, पर अपने आसपास के बच्चों को मैं कैसे भी हो, पढ़ाऊंगा. और फिरोज जिंदगी भर इस काम में लगे रहे. साधनहीन मुस्लिम बच्चों को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा होने तक लायक बनाने का काम.

मुस्लिम बच्चियों को लेकर वे ज्यादा परेशान रहते थे. उनकी शिकायत थी कि मां-बाप उन्हें पढ़ाना ही नहीं चाहते. फिरोज ने मुस्लिम माता-पिताओं को समझाने का काम किया. जब मां-बाप ने आर्थिक कारणों से बच्चियों को न पढ़ा पाने की बात की थी, तो फिरोज ने पढ़ाई का खर्चा जुटाने का जिम्मा भी ले लिया. वे मुस्लिम बच्चियों को पढ़ाने का खर्चा चलाने के लिए ‘भीख’ मांगने लगे. एक नेक काम के लिए हर संभव तरीके से पैसा मांगने में वे संकोच नहीं करते थे. पंडित मदन मोहन मालवीय या सर सैयद जैसा ‘बड़ा’ काम उन्होंने भले ही न किया हो, पर न जाने कितने साधन-हीन मुस्लिम परिवारों के बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्होंने किताबें जुटाई, नोटबुक जुटाई, फीस का प्रबंध किया, प्रिंसिपलों से लड़-झगड़ कर स्कूलों-कॉलेजों में प्रवेश दिलाया.

पिछले दिनों एक दुर्भाग्यपूर्ण सड़क-दुर्घटना में मुंबई के जोगेश्वरी इलाके में उनका देहांत हो गया. उस दिन न जाने कितनी बच्चियां अपने ‘अंकल’ का आखिरी दीदार करने के लिए वहां पहुंची थीं. किसी को ‘अंकल’ ने मैट्रिक पढ़ायी थी, किसी को इंटर, किसी को बी.कॉम. और एक बच्ची तो ‘फिरोज अंकल’ की कक्षा में पढ़कर सी.ए. भी कर चुकी थी. दो कमरे के अपने छोटे-से मकान में ही इन सब बच्चियों का स्कूल-कॉलेज बना रखा था उन्होंने. फिरोज और उनकी पत्नी आरिफा खुद पढ़ाते थे बच्चों को.

फिरोज कहा करते थे- यही एक तरीका है भारत के पिछड़े हुए मुस्लिम समाज को आगे लाने का. सत्तर सालों में भारत का मुसलमान शेष भारतीयों के समकक्ष क्यों नहीं आ पाया, अक्सर उत्तेजित होकर वे यह सवाल जैसे अपने आप से पूछा करते थे. फिर खुद ही जवाब देते थे, इसलिए कि मुल्क का मुसलमान जागा नहीं. अपने पैरों पर खड़ा होने की तड़प नहीं है उसके भीतर. फिरोज अशरफ ने यही तड़प पैदा करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था. उनकी मदद से पढ़-लिख कर कुछ करने लायक बने बच्चों की नम आंखों में अपने ‘अंकल’ की आंखों के सपने तैर रहे थे. हां, फिरोज अशरफ देश के उन गिने-चुने मुसलमानों में से थे जिन्होंने मुस्लिम समाज की बेहतरी के सपने देखे थे.

यह सही है कि फिरोज ने अपने नाम के साथ सैयद जोड़कर बात समझाने के अपने सामर्थ्य को बढ़ाना जरूरी समझा, पर सच तो यह है कि वह इंसानियत को धर्म समझता था. नीरज की एक पंक्ति है- अब कोई मजहब ऐसा भी चलाया जाए, जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए. यही काम फिरोज साधन-हीन बच्चों को पढ़ा कर करना चाहते थे. कहना चाहिए, कर रहे थे. चुपचाप, अपनी सीमाओं में रहकर. अपने तरीके से.

‘तरीके से’ याद आया. एक बार उनके एक छात्न ने स्कूल जाना छोड़ दिया. फिरोज उनके घर जा पहुंचे थे. छात्न ने बताया उसका पढ़ने में मन नहीं लगता. तब फिरोज ने डांटते हुए कहा था, ‘और हम हैं तुम्हें पढ़ाकर बेहतर इंसान बनाने के लिए भीख मांगते फिर रहे हैं, उसका कोई मतलब नहीं?’ फिरोज के मन की ईमानदारी ने उस छात्न को मतलब समझा दिया. वह फिर से स्कूल जाने लगा था. उस दिन फिरोज के जनाजे में वह छात्न भी था. उसने कहा था, ‘अब्बा, कौन डांटेगा मुझे?’ हां, न जाने कितने बच्चों के लिए फिरोज अंकल अब्बा थे. उनके अब्बा नहीं रहे, पर अब्बा की बातें जिंदगी भर उनके साथ रहेंगी- उन्हें बेहतर इंसान बनने की जरूरत का अहसास कराते हुए.

Web Title: Vishwanath Sachdev Blog: Struggle for betterment through education

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे