विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: इंसानियत के धर्म को क्यों भूल जाते हैं हम?
By विश्वनाथ सचदेव | Published: April 24, 2020 07:13 AM2020-04-24T07:13:07+5:302020-04-24T07:13:07+5:30
सांप्रदायिकता इस देश के लिए कोई नई बात नहीं है. इसी ने देश के टुकड़े किए थे. लेकिन विभाजन के बाद यह मान लिया गया था कि अब हम हिंदू-मुसलमान, सिख या ईसाई के बजाय एक भारतीय के रूप में जीना सीख लेंगे. पर ऐसा नहीं हुआ.
मुंबई के निकट एक आदिवासी इलाका है पालघर. हाल ही में यहां के ग्रामीण क्षेत्न में दो साधुओं और उनके एक ड्राइवर की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. उनका अपराध यह था कि वे रात के अंधेरे में जंगली राहों से कहीं जा रहे थे. गांव वालों को शक हुआ कि वे साधु नहीं, बच्चा चोर हैं. वैसे भी इलाके में बच्चों को उठा ले जाने की अफवाहें चल रही थीं. ग्रामीणों ने उनकी एक नहीं सुनी, पुलिस की बात भी नहीं मानी, उन्हें मार दिया गया. किसी ने उस घटना का वीडियो बना लिया था. वीडियो सोशल मीडिया पर पहुंच गया. बात फैल गई. शोर मचना ही था. पुलिस ने इस मामले में 100 से अधिक व्यक्तियों को गिरफ्तार भी कर लिया. सरकार ने मामले की उच्च स्तरीय तहकीकात के आदेश दे दिए हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि शीघ्र ही जांच के परिणाम सामने आएंगे और अपराधियों को उचित सजा भी मिलेगी.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. बात का बतंगड़ बन चुका है. क्योंकि इस मामले में हत्या दो साधुओं की हुई है इसलिए सोशल मीडिया पर यह बात फैलते देर नहीं लगी कि हत्यारे एक विशेष धर्म को मानने वाले थे. किसी तहकीकात के बिना ही यह मान लिया गया कि मामला सांप्रदायिकता का है. सवाल देश में पनपती इस प्रवृत्ति का है. पीट-पीटकर मार देने की कोई भी घटना, चाहे वह किसी भी धर्म से जुड़ी हो, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराई जा सकती. ऐसी हर घटना जंगलराज का उदाहरण है और किसी भी सभ्य समाज में इस तरह की किसी घटना को स्वीकार नहीं किया जा सकता.
पालघर की यह घटना दो भगवाधारी साधुओं से जुड़ी है. मान लिया गया कि उन्हें मारने वाले गैर हिंदू (पढ़िए मुसलमान) ही होंगे. जबकि जिन 100 लोगों को पुलिस ने इस संदर्भ में पकड़ा है, उनमें एक भी मुसलमान नहीं है.
देश और समाज में फैलती इस धारणा को सिर्फ सांप्रदायिकता के अर्थ में ही समझा जा सकता है और सांप्रदायिकता का यह जहर हमारे पूरे समाज को इस तरह टुकड़ों में बांट रहा है कि स्वयं को भारतीय मानने वाले के लिए कोई टुकड़ा जैसे बचा ही नहीं है. कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर याद आ रहा है - ‘इतने हिस्सों में बंट गया हूं मैं, मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं.’
सांप्रदायिकता इस देश के लिए कोई नई बात नहीं है. इसी ने देश के टुकड़े किए थे. लेकिन विभाजन के बाद यह मान लिया गया था कि अब हम हिंदू-मुसलमान, सिख या ईसाई के बजाय एक भारतीय के रूप में जीना सीख लेंगे. पर ऐसा नहीं हुआ. समाजविरोधी और मनुष्यताविरोधी ताकतें लगातार सक्रिय रहीं. संविधान में पंथ-विहीन भारत के प्रति शपथ लेने के बावजूद फिरकापरस्ती से घिरे रहे हम. हम यह भूल गए कि खून का रंग सिर्फ एक होता है - लाल. हमें झंडों के अलग-अलग रंग ही याद रहे. धर्म जो जीने का रास्ता बताता है, उसे हमने राजनीतिक स्वार्थो को साधने का रास्ता बना लिया. हमने यह याद रखना जरूरी नहीं समझा कि किसी भी देश या समाज के लिए यह प्रवृत्ति आत्मघाती होती है.
पालघर की अमानुषिक घटना के बाद समूचे सोशल मीडिया में जिस तरह एक नफरत की हवा बहाने की कोशिश हुई, दुर्भाग्य से वह हमारे यहां रोजमर्रा की बात बनती जा रही है. देश का शायद ही कोई हिस्सा बचा होगा जहां पिछले कुछ सालों में सांप्रदायिकता की आग का धुआं नहीं उठा होगा. इसी सांप्रदायिकता की आग पर अपने स्वार्थो की रोटियां सेंकते राजनीतिक दलों को हम आए दिन देखते रहते हैं. दुर्भाग्य की बात यह भी है कि ऐसा करते हुए किसी को संकोच भी नहीं होता. सांप्रदायिक दंगों में ग्रस्त लोग जब जमानत पर छूटते हैं तो हमारे नेता खुलेआम मालाएं पहनाकर उनका स्वागत करते हैं.
जब हम धर्मो को रंगीन चश्मों के बजाय खुली आंखों से देखना सीख लेंगे तब हम शायद यह भी जान जाएंगे कि इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है. हाल ही में तमिलनाडु के एक पुलिस वाले ने इंसानियत के इसी धर्म का उदाहरण पेश किया.
घटना तमिलनाडु के त्रिची के निकट के एक कस्बे की है. एक महिला को प्रसव पीड़ा हुई. अस्पताल गांव से 7 किलोमीटर दूर था. महिला वहां तो पहुंच गई पर ऑपरेशन के लिए जिस ग्रुप के खून की आवश्यकता थी, वह अस्पताल में नहीं था.
परेशान दम्पति को एक पुलिस वाले ने देखा. उसने समस्या जानी तो उसे यह भी पता चला कि जिस ग्रुप का खून उस महिला को चाहिए, वही ब्लड ग्रुप पुलिस वाले का है. उस पुलिस वाले ने पहले तो दम्पति को खाना खिलाया, फिर टैक्सी में बिठाकर अस्पताल ले गया. अपना खून दिया. अब जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ हैं. पुलिस के उच्चाधिकारियों ने उस कांस्टेबल की सदाशयता को सम्मानित करते हुए उसे 11000 रु. का इनाम दिया. कांस्टेबल ने इनाम के ये पैसे भी उसी महिला को दे दिए यह कह कर कि ‘बच्चे को दूध पिलाना, खुद भी फल खाना.’ इस महिला का नाम है सुलोचना. और पुलिस कांस्टेबल का नाम सैयद अबूताहिर है!
क्या यह उदाहरण प्रेरणा देने के लिए पर्याप्त नहीं है. यह अकेला उदाहरण नहीं है हमारे देश में अपनी तरह का. अनगिनत हैं ऐसे उदाहरण. जरूरत इन उदाहरणों से सीखने की है. और हमें सीखना यह भी है कि धर्म के नाम पर भेदभाव की दीवारें खड़ी करने वाले, हमारी मनुष्यता को कलंकित करते हैं. पर हम क्यों तैयार हो जाते हैं अपनी मनुष्यता खोने के लिए?