विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: बचा जा सकता था ‘घर वापसी’ की त्रासदी से
By विश्वनाथ सचदेव | Published: May 15, 2020 07:40 AM2020-05-15T07:40:42+5:302020-05-15T07:40:42+5:30
चिड़िया की तरह मनुष्य को भी घर अच्छा लगता है, पर यही नहीं होता मानव स्वभाव. सच तो यह है कि मानवीय स्वभाव अपनी रक्षा को प्राथमिकता देता है. और यदि रक्षा के लिए लाखों-करोड़ों भारतीय आज शरणार्थियों की तरह अपने गांव लौट रहे हैं तो सवाल यह उठता है कि हमारी व्यवस्था इन लोगों को वहां सुरक्षा क्यों नहीं दे पाई, जहां कभी यह रोजगार की आशा में आए थे?
बचपन में एक कविता पढ़ी थी. कविता में चिड़िया के बच्चे सारी दुनिया घूम कर आने के बाद मां से कहते हैं कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण घूमने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अपना घर ही सबसे प्यारा होता है. जब मुख्यमंत्रियों के साथ हुई प्रधानमंत्नी की वीडियो कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्नी को यह कहते सुना कि मनुष्य का स्वभाव घर जाने का होता है, इसीलिए सरकार के आग्रह के बावजूद देश भर में मजदूर और छोटा-मोटा कामकाज करके रोटी कमाने वाले लोग घरों की ओर लौट रहे हैं, तो मुझे बचपन में पढ़ी यह कविता अचानक याद आ गई थी.
कोरोना काल की मार से पीड़ित हजारों-लाखों लोगों की यह घर वापसी हम कई दिन से रोज टीवी पर देख रहे हैं. हजार-हजार किमी पैदल चलकर किसी तरह घर पहुंचने के किस्से अखबारों में पढ़ रहे हैं. घर पहुंचने की उम्मीद में घर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिए गए लोगों की व्यथा-कथा भीतर तक हिला जाती है. और मैं सोच रहा हूं क्या सचमुच यह सब चिड़िया वाले ‘अपना घर है सबसे प्यारा’ के भाव से यह यात्ना कर रहे हैं. इसे यात्ना भी कैसे कह सकते हैं, इसे तो सिर्फ यातना ही कहा जा सकता है. और कौन चाहता है यातना का वरण करना?
नहीं, यह कठिनाई में घर पहुंचने वाली मानव स्वभाव की विवशता नहीं है जो आज करोड़ों भारतीयों को इस यात्ना का शिकार बना रही है. यह वह विवशता है जो कभी इन असहाय व्यक्तियों को अपना घरबार छोड़कर रोजगार की तलाश में किसी मुंबई या किसी सूरत या किसी बंेगलुरु या किसी कोलकाता में ले आई थी, और जो आज रोजगार के अभाव में इन्हें फिर उसी घर लौटा रही है, जहां से वे कभी रोजी-रोटी की तलाश में निकले थे और आज गांवों में भी इनके लिए एक अनिश्चित और आशंकाओं से भरा भविष्य ही इंतजार कर रहा है. दुर्भाग्य से, बड़े शहरों में भी इनके पास आज एक डरावना वर्तमान ही था. ये सब अभागे मानव स्वभाव के मारे नहीं हैं, इन्हें हमारी व्यवस्था की मार पड़ी है. हमारी ही असंवेदनशीलता और अयोग्यता के शिकार हुए हैं ये सब.
चिड़िया की तरह मनुष्य को भी घर अच्छा लगता है, पर यही नहीं होता मानव स्वभाव. सच तो यह है कि मानवीय स्वभाव अपनी रक्षा को प्राथमिकता देता है. और यदि रक्षा के लिए लाखों-करोड़ों भारतीय आज शरणार्थियों की तरह अपने गांव लौट रहे हैं तो सवाल यह उठता है कि हमारी व्यवस्था इन लोगों को वहां सुरक्षा क्यों नहीं दे पाई, जहां कभी यह रोजगार की आशा में आए थे?
इसमें कोई संदेह नहीं कि कोरोना सारी दुनिया पर एक अप्रत्याशित विपदा की तरह छाया हुआ है. दुनिया में लाखों लोग इसके शिकार हो रहे हैं. दुनिया के कई बड़े देशों की तुलना में हमारी स्थिति कुल मिलाकर बेहतर भी कही जा सकती है. लेकिन हकीकत यह है कि कारण कुछ भी रहे हों, कोरोना से मुकाबले में हम अपने लोगों की वैसी रक्षा नहीं कर पाए हैं, नहीं कर पा रहे हैं, जैसी अपेक्षित है. यह सही है कि प्रधानमंत्नी और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कोरोना की मार झेलने वाले लोगों से कहा था कि वे जहां हैं वहीं रहें.
यह भी सही है कि हमारी सरकारों ने इस बात के लिए कुछ कदम भी उठाए थे कि ये लोग वहीं रह सकें. पर लाखों लोगों का यह पलायन इस बात का साक्षी है कि सरकारों ने इस दिशा में जो कुछ किया, वह आपराधिक स्तर पर अपर्याप्त था. निश्चित रूप से इस देश के नागरिक भिखारियों जैसी स्थिति में ला देने के लायक नहीं हैं. बहुत कठोर और अमानवीय शब्द लगता है भिखारी, पर दुर्भाग्य से, जिन्हें मानव स्वभाव की व्यवस्था का शिकार बताया जा रहा है, वे गलत नीतियों और सरकारों के आधे-अधूरे प्रयासों के शिकार बनकर भिखारियों जैसी स्थिति में ही आ गए हैं.
सवाल उठता है कि शहरों से गांवों की ओर यह पलायन क्यों जरूरी हो गया? यह सही है कि वैश्विक महामारी के कारण जिंदगी ठप-सी हो गई थी. दुकानें, फैक्ट्रियां, कारखाने, दफ्तर सब बंद हो गए थे. ऐसे में रोजगार की स्थितियों का डांवाडोल होना स्वाभाविक था. पर हम इन स्थितियों का मुकाबला करने में चूक क्यों गए? अचानक लॉकडाउन की घोषणा क्यों की गई? क्या शहरों में फंस सकने वाले लोगों को तीन-चार दिन का समय नहीं दिया जा सकता था कि वे अपने घरों की ओर लौट सकें. तब यदि वे ढंग से घर लौटते तो वह मानव स्वभाव वाली बात होती. तर्क दिया जा सकता है कि तब लॉकडाउन न किया जाता तो बहुत देर हो जाती.
सवाल पूछा जाना चाहिए कि जनवरी में ही जब इस महामारी के संकेत मिलने लगे थे, तो मार्च तक प्रतीक्षा करके देरी क्यों की गई? खैर, जो होना था, वह हो गया, पर यह बात तो पूछी ही जानी चाहिए कि जब देश में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं थी, हमारे गोदामों में इतना भंडारण है कि अनाज खराब भी हो सकता है, तो क्यों हर भूखे तक रोटी नहीं पहुंचा पाए हम? हर भूखे का पेट मुफ्त में भरकर भी देश दिवालिया नहीं होता. सवाल सिर्फ व्यवस्था करने का था. हमें स्वीकार करना होगा कि ‘जहां हैं वहीं रहो’ की नीति को सफल बनाने के लिए आवश्यक कार्रवाई करने में हम पूरी तरह नाकामयाब रहे हैं. हमारी अव्यवस्था ने ही लोगों को किसी भी तरह घर की ओर निकल पड़ने के लिए विवश किया है.
ऐसा नहीं है कि देश संवेदनहीन हो गया है. टीवी के परदे पर पलायन करते लोगों की दुर्दशा देखकर आंसू पोंछते लोगों की कमी नहीं है, पर इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार तत्वों को अपनी कमजोरियों का एहसास होना जरूरी है.