विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: सरकार और देश एक-दूसरे के पर्याय नहीं
By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 28, 2020 02:06 AM2020-02-28T02:06:32+5:302020-02-28T02:06:32+5:30
उच्चतम न्यायालय के अनुसार देशद्रोह का मामला तभी बनता है जब कोई नागरिक देश की जनता को भड़काए और हिंसा के लिए उकसाए. सच बात तो यह है कि सरकार से असहमति तथा सरकार की आलोचना जनतांत्रिक अधिकार ही नहीं, जनतांत्रिक कर्तव्य भी है.
यह सही है कि पाकिस्तान कभी हमारे देश का हिस्सा था, लेकिन आज पाकिस्तान हमारे लिए विदेश है और यह भी सही है कि पिछले सत्तर सालों में दोनों देशों के बीच संबंध कटुतापूर्ण ही रहे हैं, यही नहीं, इस बीच पाकिस्तान कई बार हम पर हमले भी कर चुका है और हम उसे बार-बार हरा भी चुके हैं. सही यह भी है कि इस सबके बीच दोनों देशों में रिश्ते सुधारने की कोशिशें भी लगातार हुई हैं, लेकिन पाकिस्तान का रु ख शत्नुतापूर्ण ही रहा है.
ऐसे में यदि कोई भारतीय ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा लगाता है तो उस पर रोष होना स्वाभाविक है. इस दृष्टि से देखें तो कुछ दिन पहले ही कर्नाटक की उन्नीस वर्षीया युवती अमूल्या लियोना नरोन्हा द्वारा एक सभा में पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाना आपत्तिजनक ही माना जाएगा. लेकिन, जब हम यह देखते हैं कि अमूल्या ने सिर्फ पाकिस्तान की जय का नारा ही नहीं लगाया था, वह हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे भी लगा रही थी, ऐसे में आपत्ति करने से पहले यह देखना भी जरूरी हो जाता है कि नारा लगाने वाले की नीयत क्या थी, वह क्या कहना या करना चाह रही थी?
ज्ञातव्य है कि अमूल्या इससे पहले भारत के सभी पड़ोसी देशों, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, चीन आदि के जिंदाबाद की बात भी कह चुकी है. उस मंच से भी वह कुछ बोलना चाह रही थी. यह अभी सामने नहीं आया कि वह क्या कहना चाहती थी, कुछ कह पाने से पहले ही उसे मंच से उतार दिया गया और पुलिस ने उस पर देशद्रोह का आरोप लगाकर चौदह दिन की हिरासत भी न्यायालय से पा ली है.
अब इस बारे में कुछ तभी पता चल पाएगा जब मामला अदालत में आएगा. यदि अमूल्या का इरादा देशद्रोह का है, यदि वह पाकिस्तान की तुलना में भारत को नीचा दिखाना चाहती है, तो उस पर जरूर कार्रवाई होनी चाहिए. लेकिन ध्यान इस बात का भी रखना होगा कि देशद्रोह के नाम पर कहीं किसी अमूल्या के जनतांत्रिक अधिकार तो नहीं छीने जा रहे. अभी कुछ ही दिन पहले बीदर के एक स्कूल की नौ वर्षीय छात्ना पर ‘देशद्रोह’ का आरोप लगा था.
उसका अपराध यह था कि उसने स्कूल में खेले जा रहे एक नाटक में ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ के विरोध में कोई संवाद बोला था, जिसे प्रधानमंत्नी और सरकार के विरुद्ध कार्रवाई मान लिया गया. इस मामले में स्कूल की प्रिंसिपल और बच्ची की मां को आरोपी बनाया गया. अब मामला अदालत में है.
अमूल्या अथवा बीदर की इस बच्ची के खिलाफ जिस तरह कार्रवाई हो रही है, उससे यह सवाल तो उठता ही है कि ‘देशद्रोह’ के नाम पर नागरिकों के विरोध करने के जनतांत्रिक अधिकार की अवहेलना तो नहीं हो रही? सवाल सिर्फ इन दो मामलों का ही नहीं है. पिछले एक अरसे में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें नागरिकों के सरकार से असहमति और सरकार के विरोध के जनतांत्रिक अधिकार को देशद्रोह के नाम पर छीना गया है.
देशद्रोह बहुत गंभीर आरोप है और यदि कोई नागरिक अपने देश के खिलाफ कुछ आपत्तिजनक कर रहा है तो इस मामले को गंभीरता से लिया ही जाना चाहिए. किसी को भी देश के खिलाफ कुछ करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता. लेकिन, वहीं जरूरी यह भी है कि किसी को भी देशद्रोही कहने से पहले दस बार सोचा-जांचा जाए.
धारा 124ए, जिसके अंतर्गत अमूल्या या सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले कई अन्यों के खिलाफ देशद्रोह के मामले चल रहे हैं, हमें अंग्रेज विरासत में दे गए थे. सन 1860 में लागू किए गए इस कानून के अनुसार ‘सरकार-विरोधी सामग्री लिखना या बोलना, या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन करना’, देशद्रोह की परिभाषा के अंतर्गत आता है. आजादी की लड़ाई के दौरान लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों को इसी आरोप में बंदी बनाया गया था. जब हम आजाद हो गए तो इस अलोकतांत्रिक धारा को समाप्त करने की मांग की गई थी.
संविधान सभा में भी इस धारा के खिलाफ आवाज उठी. पर बाद में तत्कालीन सरकार ने कानून और व्यवस्था के नाम पर धारा 124-ए को लागू रखना जरूरी समझा. मजे की बात यह है कि इंग्लैंड ने तो अब इस धारा को अपने यहां से हटा दिया है, पर हमारे यहां अभी तक यह धारा लागू है. दो साल पहले भी विधि आयोग ने इस धारा पर पुनर्विचार के लिए कहा था, पर सरकारों को शायद यह धारा अपना कवच लगती है. और स्थिति यह बनती जा रही है कि सरकार के खिलाफ कुछ कहने वाले को देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. यह अच्छी बात है कि देश के उच्चतम न्यायालय ने कई बार इस धारा के अंतर्गत की गई कार्रवाई को अनुचित बताया है.
उच्चतम न्यायालय के अनुसार देशद्रोह का मामला तभी बनता है जब कोई नागरिक देश की जनता को भड़काए और हिंसा के लिए उकसाए. सच बात तो यह है कि सरकार से असहमति तथा सरकार की आलोचना जनतांत्रिक अधिकार ही नहीं, जनतांत्रिक कर्तव्य भी है. इस बात को समझने की जरूरत है कि जनतंत्न में सरकार और देश एक-दूसरे के पर्याय नहीं है. वस्तुत: नागरिक देश चलाने के लिए सरकार बनाते हैं. यदि उन्हें लगता है कि सरकार कुछ अनुचित कर रही है तो उनका कर्तव्य बनता है कि वे इससे असहमति व्यक्त करें, या इसका विरोध करें. नागरिक के इस कर्तव्य को देशद्रोह मानना गलत है. यह सोच ही अलोकतांत्रिक है. इस सोच से उबरने की आवश्यकता है.